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Magazine - Year 1975 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सद्विचारों पर ही समुन्नत जीवन की संभावनायें आधारित हैं।

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विचार यों अपने आप में एक शक्ति है और अपनी निर्धारित रीति-नीति से अपने लिये तथा दूसरों के लिये परिणाम प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। पर उनमें प्रचण्डता तब आती हैं जब वे प्राणी शक्ति के चुंबकीय विद्युत प्रवाह के साथ जुड़े होते हैं। प्राण को मानवी व्यक्तित्व के आधार पर ढली हुई विशिष्ठ ऊर्जा कह सकते हैं, यह हर किसी में बहुत ही स्वल्प मात्रा में होती हैं। बहुमुखी इच्छाएं और अस्त-व्यस्त, क्रिया-प्रतिक्रियाएं तथा अस्थिर अभिरुचियाँ मनुष्य के जीवन संवेगों को बखेर देती हैं और वह सब कुछ बनने के प्रयास में कुछ भी नहीं बन पाता। ऐसे लोगों का व्यक्तित्व कौतूहलवर्धक तो होता है, पर कहना विदूषक जैसा ही है, उसमें वह दिशा या प्रेरणा नहीं होती जो एकाग्रता रखने और एक दिशा अपनाने से उत्पन्न होती है। लक्ष्य निर्धारित करके एक दिशा में यदि मनोयोगपूर्वक सोचने और करने का उपक्रम चलता रहे तो उससे व्यक्तित्व ढलेगा। यह क्रियाकलाप निकृष्टता संपन्न ही हो सकता है और उत्कृष्टता संपन्न भी। प्राण शक्ति में यह स्तर बड़ी मात्रा में घुला रहता है और उसी आधार पर उसका स्तर विनिर्मित होता है।

प्राण का यों मोटे तौर पर प्राणिज विद्युत, जीवनी शक्ति, विटल फोर्स आदि के नाम से पुकारते हैं। प्रत्यक्षतः उसका यही रूप हैं, पर जब उसमें निष्ठाओं ओर भावनाओं का गहरा पुट होता है तो प्रभावी क्षमता उत्पन्न होती है। एंप्लिफायर के माध्यम से हल्की सी आवाज को इतना शक्तिशाली बनाया जा सकता है कि उसे दूर-दूर तक बैठे हुए हजारों लाखों व्यक्ति सुन सकें। विचार को वाणी और प्राण को बिजली के रूप में माना जाय तो यह समझना सरल पड़ेगा कि किस प्रकार विचारों में प्रखरता उत्पन्न होती हैं। किसी के विचार क्यों अत्यन्त प्रचण्ड, प्रभावशाली ओर साकार होते हैं इसका कारण उसकी विचारधारा में प्राण शक्ति को सघन सम्पुट के रूप में देखा समझा जाना चाहिये।

विचारों का प्रवाह मन्द, मध्यम और प्रखर स्तर का क्यों होता है इसका उत्तर विचारों की गहराई, आस्था और प्राण शक्ति युक्त व्यक्तित्व के आधार पर समझा जा सकता है। उथले व्यक्तित्व, बिखरे मस्तिष्क से यों ही उपेक्षापूर्वक कुछ सोचते रहे तो उसका परिणाम स्वभावतः मंदगामी होना चाहिये। भाव भरी विचारधारा, प्रांगण निष्ठापूर्वक उनका हृदयंगम किया जाना और निजी व्यवहार में उन मान्यताओं को स्थान मिलना वह स्थिति है जिसमें विचारों की शक्ति मध्यवर्ती होती है। पर जब कोई व्यक्ति सब ओर से मन हटाकर किसी आदर्श विशेष में तन्मय हो जाता है। अनवरत चिन्तन एवं आकाँक्षाओं को केन्द्रीकरण किसी विशेष बिन्दु पर हो जाता तो मनुष्य उसी उधेड़−बुन में लगा रहता है और हर घड़ी उसी प्रयोजन के लिये अपनी हलचलें गतिशील रखता है। इस प्रकार विचारणा, आस्था और क्रिया का जहाँ भी त्रिविध समन्वय होता है वहाँ अत्यन्त ही प्रचण्ड मस्तिष्कीय ऊर्जा विनिसृत होती है। शक्तिशाली झरने के रूप में वह धारा फूटती है और अवरोधों से टकराती हुई प्रवाहशील सरिता की नाई अपनी महत्वपूर्ण भूमिका संपादित करती हैं

हमारी विचार शक्ति किस स्थिति में बढ़ती या घटती है। इसका उत्तर यही हो सकता है कि अन्यमनस्कता आलस्य, अवसाद, उपेक्षा एवं अस्त-व्यस्तता की मनोभूमि में उपजने वाले विचार ऐसे ही मुरझाते, कुम्हलाते और बुझते, मरते रहते हैं उनका कोई प्रभावशाली परिणाम न अपने जीवन में परिलक्षित होता है और न दूसरे उनसे कुछ प्रेरणा ग्रहण करता है। अक्सर प्रवचनकर्ता और वक्ताओं की मनःस्थिति ऐसी ही होती है। उन्हें कुछ बातें रटी हुई होती है उन्हें ही घुमा फिराकर शब्द चातुर्य के चाक पर घुमाकर तरह-तरह के बर्तन बनाते रहते हैं। गहन अनुभूतियों की गर्मी उनमें लगी नहीं होती फलतः इस प्रकार वाचालता की भुरभुरी मिट्टी से बने हुये कच्चे बर्तन पानी पड़ते ही गल जाते हैं। जिनका उद्गम मस्तिष्क का उथला स्तर है जो जिह्वा के अग्र भाग से ही निकले हैं, वे विचार निकलते हैं। वे सुनने में मधुर और समझने में आकर्षक हो सकते हैं किंतु उनमें प्राण शक्ति की अभीष्ट मात्रा जुड़ी न रहने से वैसा प्रभाव नहीं होता जैसा होना चाहिये। इसके विपरीत भले ही धारा प्रवाह या लच्छेदार शब्दावली का प्रयोग न हो सके यदि भावना, आस्था और अनुभूति से संपुटित विचार व्यक्त किये जाये तो उनका प्रभाव शब्द बेधी बाण की तरह होगा। महामानवों की वाणी में जनमानस को झकझोर देने की जो अद्भुत क्षमता पाई जाती हैं उसका रहस्य यही है।

जब तब जैसा-तैसा विचार कर लेना एक बात है और लगातार गहराई तक किसी विषय का अवगाहन, अध्ययन और निदिध्यासन करना दूसरी चीज है। दार्शनिक और वैज्ञानिक गहराई तक देर तक एक ही विषय बिन्दु पर विचार करते रहने की रुचि और आदत उत्पन्न करते हैं फलतः वे समुद्र में गहरे उतरने वाले गोताखोरों की तरह बहुत से मणि मुक्ता ढूंढ़ लाते हैं। किनारे पर टहलने वाले दर्शकों के तो सीप और घोंघों के बेकार छिलके ही हाथ लगते हैं। जिस संदर्भ में हमारी आन्तरिक अभिरुचि जुड़ जाती है, उसी पर एकाग्रता संभव होती है। उथले और गहरी व्यक्तित्वों का यही अन्तर होता है। उथले लोग उड़ते हुए तिनके की तरह हवा का रुख देखकर अपनी गतिविधियाँ बदल देते हैं, पर जिनकी किसी आदर्श एवं लक्ष्य पर गहरी आस्था जम गई वे उसी में रम जाते हैं और चट्टान की तरह अटल रहते हैं। ऐसे ही लोगों के विचार दूसरे के लिये प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय बनते हैं।

व्यक्तिगत एकाकी विचारों का भी महत्व हैं। उससे पूरे व्यक्तित्व का कण-कण निर्धारित लक्ष्य में तन्मय हो जाता है तो मनुष्य की प्रभावशीलता देखते ही बनती है। इसके अतिरिक्त सामूहिक विचारों की भी अपनी उपयोगिता है और अपनी प्रभावशीलता। देवालयों में निरन्तर पूजा उपासना, प्रार्थना होती रहती है। भक्ति भावना संपन्न लोग ही वहाँ आते हैं और एक ही स्तर की गतिविधियाँ लगातार चलती है। इसका प्रभाव वहाँ के वातावरण पर ही नहीं इमारत पर भी पड़ता है। वह उसी रंग में रंग जाती है और आगन्तुकों में अपने ढंग की सहज प्रेरणा उत्पन्न करती है। तीर्थों का निर्माण भी इसी आधार पर किया गया है। सत्संग भवनों की महिमा इसी प्रयोजन को पूरा करते करते बढ़ जाती है। मनस्वी महामानवों के निवास स्थान इसी दृष्टि से प्रेरणाप्रद बन जाते हैं उन्हें दिव्य स्मारकों के रूप में सुरक्षित रखने का यही प्रायोजन है।

दुर्भावों का सम्मिलित शक्ति का प्रभाव कहीं भी देखा जा सकता है। साफ सुथरे पड़े होने पर भी कसाईखाने में घुसते ही हम आतंकित होते हैं। श्मशान में कोई चिता न जल रही हो तो भी वहाँ वीभत्स वातावरण की अनुभूति होती है। जहाँ अवाँछनीयता की परिस्थितियाँ सामूहिक रूप से विनिर्मित की जायेंगी वहाँ उसी स्तर के पतन के लिये आकर्षित करने वाला प्रभाव निश्चित रूप से उत्पन्न होगा।

सामूहिक सत सम्मेलनों एवं धर्मानुष्ठानों के पीछे तक बड़ा प्रयोजन सामूहिक विचार प्रवाहों के मिलने के एक सम्मिलित शक्ति का उद्भव करना भी होता है। सामूहिक प्रार्थना, पर्व त्यौहारों के सम्मिलित आयोजन इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं। इकट्ठे होकर धर्म प्रयोजन पूरे करने में छुटपुट अलग-अलग प्रयत्न करने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ होते हैं। साधु संस्थाओं का जन्म इसी आधार पर हुआ था, वे इकट्ठे रहकर एक दूसरे को प्रेरणा ही नहीं देते थे वरन् प्रचण्ड वातावरण भी विनिर्मित करते थे। बौद्ध बिहार, चैत्य, साधु आश्रम इसी दृष्टि से विनिर्मित किये जाते हैं। सत्कर्मों के सामूहिक आयोजन का जितना विस्तार हो सके उतना ही सदुद्देश्यों का विस्तार और प्रेरक प्रभावों को अधिक बलिष्ठ बनाया जा सकेगा।

विचारों की शक्ति और संपदा का यदि महत्व समझा जा सके और उनके सदुपयोग का मार्ग अपनाया जा सके तो निस्सन्देह सफल और समुन्नत जीवन की मंगलमयी उपलब्धियाँ प्रचुर परिमाण में प्राप्त कर सकते हैं।

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