
दुर्बल मनःस्थिति पर पड़ने वाले आघात और उनकी प्रतिक्रिया
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शरीर पर मस्तिष्क की नियंत्रण है। शरीर रोगों का मोटा कारण आहार विहार का विकृति माना जाता है पर यह ध्यान रखने की बात है कि न केवल शरीर गत वरन् जीवन के सभी क्षेत्रों में बढ़ती जा रही विकृतियोँ का मूल कारण मानसिक विकृतियाँ ही होती है। असंयमी अस्त-व्यस्त व्यक्ति मानसिक दृष्टि से अविकसित होता है उसे अपने कलपुर्जों का अंग अवयवों का ठीक तरह उपयोग करना नहीं आता, फलतः वे टूट-फूट कर अवांछनीय विहार की सामान्य गड़बड़ियों से पीड़ित होते हैं वे औषधि लेने एवं परहेज करने से जल्दी ही अच्छे हो जाते हैं, पर जिनकी जड़े मस्तिष्क की गहराई में घुसी होती है वे शरीर चिकित्सा के अनेक साधन जुटाने पर भी अच्छे नहीं होते।
मानसिक रोगों में एक बहुत प्रचलित रोग है ‘हिस्टेरिया’। यों यह स्त्री पुरुष, बाल-वृद्ध किसी को भी किसी भी आयु में आरम्भ हो सकता है, पर उसका अधिक आक्रमण स्त्रियों पर होता है और उसके आरम्भ होने की आयु किशोरावस्था अथवा उसके बाद नव यौवन में प्रवेश करते समय की होती है। मस्तिष्क का शरीर पर से कुछ समय के लिए नियंत्रण टूट जाने और अचेतन में जमी विकृतियों का नंगा नृत्य दिखाने की अवाँछनीय स्थिति को हिस्टेरिया, अपस्मार, मृगी आदि नामों से पुकारते हैं।
हिस्टीरिया को एक किस्म का सामयिक एवं मानसिक पक्षाघात कर सकते हैं। साधारण लकवे में भी गड़बड़ी तो मस्तिष्क की ही होती है, पर उसमें सोचने की शक्ति का लोप नहीं होता। किन्तु शरीर के हाथ-पैर, मुँह आदि अन्य अंग भी प्रभावित होते हैं। परोक्ष में स्नायु संस्थान को जो आघात लगा हैं उसे यंत्रों द्वारा जाना, आँका जा सकता है। हिस्टीरिया की स्थिति इससे थोड़ी भिन्न होती है। उसका दौरा कुछ ही अच्छा हो जाता है। नाड़ी संस्थान की जाँच करने पर उसमें कोई खराबी प्रतीत नहीं होती। चेतना का पूर्ण लोप अथवा आँशिक व्यवधान दो ही बातें हो सकती है। पूरा दौरा पड़ने पर रोगी बेहोश होकर गिर जाता है। आग में जलने या गहरी चोट लगाने तक का पता नहीं चलता दाँत भिच जाते हैं, साँसें लम्बी चलती है, घबराहट जैसी आवाजें निकलती है, मुँह से झाग गिरता है, हाथ-पैरों में अकड़न तथा ऐंठन के लक्षण दीखते हैं। अधूरे दौरे में गिरने की नौबत नहीं आती। रोगी जो कर रहा था वही करता रहता है। दौरे से पूर्व हाथ जो कर रहे थे, पैर जिधर चल रहे थे उधर ही उनकी गति बनी रहती है। आँखें खुली रहने पर भी ठीक से देख नहीं पाती। इसी प्रकार कान जीभ आदि भी मस्तिष्कीय नियंत्रण, छूट जाने से अव्यवस्थित हो जाते हैं। दौरे के समय रोगी इच्छापूर्वक किसी अंग से काम नहीं ले सकता। इच्छा शक्ति तक गायब हो जाती है। मस्तिष्क न कुछ सोच सकता है और न कुछ करने का आदेश शरीर के किसी अवयव को दे सकता है। गिर पड़ने वाली और ऐंठन, अकड़न उत्पन्न करने वाली स्थिति तो यह नहीं है फिर भी मस्तिष्क और इन्द्रियों का सम्बन्ध विच्छेद तो हो ही जाता है। इन्हीं सभी लक्षणों की न्यूनाधिक मात्रा को सामयिक पक्षाघात कहा जा सकता है।
हिस्टीरिया का नामक करण डा0 हिपोक्रिट ने किया। वे इसे गर्भ कोष की गड़बड़ी मानते थे। ग्रीक भाषा में ‘हिस्टेरो’ गर्भाशय को कहते हैं। काम संवेदनाएं मन मस्तिष्क और जननेन्द्रिय को समान रूप से प्रभावित करती है। एक की स्थिति का प्रभाव दूसरी पर पड़ता है। अस्तु यह संगति मिलाई गई कि गर्भकोष की विकृतियाँ नाड़ी संस्थान के माध्यम से मस्तिष्क को प्रभावित करती है और उभार की स्थिति में दौरे पड़ते हैं।
गैलेन, फ्रायड वैविनोस्क होप आदि के मन विशेषज्ञों के अपने विचार है वे कहते हैं असंतोष से मानसिक संतुलन बिगड़ता है उसी की एक प्रतिक्रिया ‘हिस्टेरिया’ है। उनने इसका दोष कामेच्छा एवं दूसरी इच्छाओं की अतृप्ति के सिर थोपा है। शारकोट अर वैविनोस्की आदि विशेषज्ञ इसे भय की प्रतिक्रिया मानते हैं वे कहते हैं कि किसी घटना से अथवा कल्पना, आशंका से डरने वाला मनुष्य हिस्टेरिया का रोगी हो सकता है। शारकोट की खोजों में हिस्टेरिया ग्रसित रोगियों में दो तिहाई संख्या नव युवतियों की होती है और उनमें से अधिकाँश का मानसिक संतुलन दाम्पत्य जीवन की विसंगतियों के कारण बिगड़ा होता है। वे कहते हैं स्त्रियाँ प्रायः मानसिक दृष्टि से बहुत भावुक और कोमल होती हैं। दाम्पत्य जीवन संतुलित रहने पर वे जहाँ बहुत पुलकित पाई जाती है वहाँ उस संदर्भ में छोटे मोटे, आघात भी उन्हें तिलमिला देते हैं। यह असंतुलन कितने ही मानसिक रोगों को जन्म देता है। उन्हीं में से एक बहुत प्रचलित रोग हिस्टीरिया भी है।
शरीर विकास क्रम में कई बार तीव्र उभार आते हैं। शैशव पार करके किशोरावस्था में प्रवेश किशोरावस्था पर यौवन का नशा- जबानी में असंख्य उत्तरदायित्वों का लद जाना, प्रौढ़ावस्था से बुढ़ापे की गई गुजरी और जरा जीर्ण स्थिति का आधमकना जैसे परिवर्तन एक चलते ढर्रे में भारी व्यतिरेक उत्पन्न करते हैं अभ्यस्त स्थिति छोड़कर अनभ्यस्त में प्रवेश करना पड़ता है। इससे कई उलझने और कई उत्तेजनाएं पैदा होती है। यदि व्यक्ति में साहस का अभाव है तो इस प्रकार आगे धकेले जाने और पिछले प्रिय के छिनने से उसे असुविधा होती है और डर लगता है। इस स्थिति में उत्पन्न हुई उलझनें मानसिक विक्षोभ उत्पन्न करती है और उनके कारण कई अटपटे रोग उत्पन्न होते हैं। जिन्हें ‘प्रिडिस्पाजिंग संज्ञा दी जाती है।
ऐसी स्त्रियाँ परिवार के अन्य लोगों के साथ ही नहीं, अपने बच्चों के प्रति भी उदास या कर्कश रहने लगती है। और उनके लालन-पालन में, स्नेह दुलार में उपेक्षा बरतती हैं। उन्हें समय कुसमय मारती पीटती तथा भार भूत मान कर दूसरी तरह की प्रताड़नाएं देती है।
गर्भ धारण के दिनों स्वास्थ्य का गड़बड़ा जाना, उस स्थिति में भी पिसते पिटते रहना, प्रसव की असह्य पीड़ा प्रसूति काल में असाध्य रोगी जैसी दुर्बलता नवजात शिशु की आठों प्रहर साज संभाल, परिवार के लोगों द्वारा अछत समझ कर दूर-दूर करना जैसी बातें मिलकर इतना बुरा असर डालते हैं कि प्रथम प्रजनन में ही उनका मानसिक स्वास्थ्य टूट जाता है। जल्दी-जल्दी अनिच्छित संतानें जनने की विवशता उन्हें अपनी असहाय स्थिति पर आँसू बहाने वाली प्रतीत होती है और वे खिन्न उद्विग्न रहने लगती है।
किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रखते -रखते लड़कियों को मासिक धर्म होने लगता है। देखने में यह एक नियम कालीन मल विसर्जन जैसी क्रिया प्रतीत होती है, पर वस्तुतः वह भीतर ही भीतर असाधारण परिवर्तन साथ लेकर आती है। कितने ही नये ‘हारमोन’ विकसित होते, प्रजनन अंगों की पुष्टि एवं उत्तेजना सारे शरीर को विशेषतया मस्तिष्क को प्रभावित करती है। नाड़ी संस्थान में विचित्र हलचलें उत्पन्न होती है। उस स्थिति में उन्हें सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें क्या न करें? सहज विकास की रीति उपलब्ध न हो तो अवाँछनीय चिन्तन एवं क्रिया कलाप में उलझनें से भय, आशंका दुराव, उमंग नियंत्रण आवेश आदि का संमिश्रण कई प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न कर देते हैं। जो बच्चियाँ छोटी आयु में बहुत ही सरल थी वे इस विचित्र स्थिति में पड़ कर अपना मानसिक संतुलन गँवाती और सनकी, अव्यवस्थित बनती दीखती है।
सुशिक्षित सुविकसित प्रगतिशील परिवारों की बात दूसरी है। वयस्क सहेलियों से पुस्तकों पत्रिकाओं से उन्हें गृहस्थ जीवन की भावी संभावनाओं का बहुत कुछ आभास मिल जाता है और वे उसके लिए मानसिक तैयारी करती रहती है; जिससे समय पर ससुराल जाना उन्हें अटपटा नहीं लगता और कष्टकारक भी नहीं होता, पर अविकसित वातावरण में अथवा भोली अनजान मनःस्थिति में रहने के कारण उन्हें जब अचानक ससुराल में जाना पड़ता है, वहाँ तो पूर्णतया अनभ्यस्त वातावरण मिलता है; साथ ही नियन्त्रण की कठोरता, आलोचना, भर्त्सना और रूखे पन से भरे व्यवहार का सामना करना पड़ता है तो वे सकपका जाती है। प्रिय परिवार का विछोह उन्हें सताता है। पति का स्नेह-सौजन्य एवं मृदुल-कोमल व्यवहार सान्त्वना दे सकता था पर अनाड़ी वातावरण में वह भी संभव नहीं। काम कौतुक उनके सामने नृशंस बलात्कार के रूप में जाता है फलतः ये बेतरह भयभीत हो उठती है। आजीवन आये दिन उन पर यही अत्याचार होने है, यह सोचकर ये बेतरह घबरा उठती है। छुटकारे का, बचाव का कोई मार्ग न पाकर उनकी मनःस्थिति आतंक ग्रस्त बन जाती है और उसमें भूतोन्माद, हिस्टेरिया तथा अन्य कई प्रकार के मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। भारत के पिछड़े क्षेत्रों में आधे से अधिक नव वधुओं को इसी विपत्ति का मुख्य कारण है। ससुराल की कठोरता बदनाम है। ऐसी दशा में नव वधुओं को कितने ही प्रकार के मानसिक रोगों से ग्रसित पाया जाता है। पारिवारिक कलह, दाम्पत्य जीवन में असामंजस्य, बेशऊर, फूहड़, आलसी, अनाड़ी, अवज्ञाकारी होने के लाँछन वस्तुतः उन मानसिक रोगों की ही देन है जो ससुराल पहुंचते-पहुँचते नव वधुओं को बेतरह दबोच लेते हैं।
नारी की मानसिक संरचना में भावुकता के तत्व अधिक है। मुद्दतों से चली आ रही सामाजिक अनीति ने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित करके उसे पिछड़े वर्ग की दयनीय स्थिति में धकेल दिया है, फलस्वरूप उसे अपमान जनक और पराधीन स्थिति में रहना पड़ता है, पग-पग पर अपनी भावनाओं को दबाना पड़ता है, यह कुचली हुई मनःस्थिति इतनी दुर्बल हो जाती है कि तनिक सी प्रतिकूलता में वह संतुलन खो बैठती है। प्रतिकूलताओं के साथ ताल मेल बिठा लेने का गुण साहसी और विवेकवानों में होता है पर जिनकी स्थिति वैसी नहीं है वे सामान्य जीवनक्रम से आगे बढ़कर जब अनभ्यस्त प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं तो उनका मानसिक ढाँचा लड़खड़ाने लगता है और वे घबराहट में अनाड़ी, फूहड़, भुलक्कड़ जैसे स्तर के अव्यवस्थित आचरण करने लगते हैं। इस पर और उलटी डाँट पड़ती है। यह भर्त्सना उन्हें और भी अधिक असंतुलित करती है। प्रतिकूलताएँ चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो भावुक और दुर्बल संरचना के मस्तिष्क पर इतना दबाव डाल सकती है मानो कोई भार विपत्ति सामने आ खड़ी हुई हो। ऐसी दशा में हिस्टेरिया के दौरे जैसे रोग भी उन्हें अपने चंगुल में कस सकते हैं।
नई उम्र का उभार ही लड़कियों में अनभ्यस्त उत्तेजना उत्पन्न करता है और वे उस उभार में उलटा सीधा सोचने और उलटा-सीधा करने लगती है। एक ओर मानसिक उभार दूसरी और सामाजिक प्रतिबंधों की भय चक्की के दो पाटों के बीच में पड़े अनाज की तरह वे पिसने लगती है इस स्थिति के कई प्रकार के मानसिक रोग उन्हें आ घेरते हैं उन्हीं में एक अति चिन्ताजनक हिस्टेरिया भी है।
मनोविज्ञानी जुँग का कथन है-मनुष्य की आन्तरिक तृप्ति स्नेह से होती है, वह सबसे अधिक जिस वस्तु को चाहता है वह है -प्यार। इसे मानसिक विकास के लिए उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि शरीर रक्षा के लिए अन्न−जल को और पौधों के लिए खाद पानी की। जिसे प्यार न मिलेगा उसकी मनःस्थिति मुरझाई रहेगी, उसकी उर्वरता मंद पड़ जायगी और जरा-जरा सी बात में वह उलझा खोया और चिन्तित दिखाई पड़ेगा। कभी-कभी तो वह अवज्ञाकारी और उच्छृंखल -उद्धत भी हो जाता है। प्यार से मनुष्य बँधता और बाँधता है। इसके अभाव में यह एकाकी हो जाता है। वह न किसी का होता है न किसी को अपना मानता है। उपेक्षा और तिरस्कार के वातावरण में पलना सचमुच ही एक बड़ा दुर्भाग्य है। यह अन्न जल की कमी से दुर्बल बने शरीर की तरह ही मनोबल को क्षीण करने वाली स्थिति है।
प्यार का अभाव, अनुरक्षण की आशंका, कठोर नियंत्रण आशंका युक्त चिंता कुसंग से उत्पन्न विकृतियाँ बालपन से ही मनुष्य के विकास क्रम में लड़खड़ा देती है। छोटेपन में वे विकृतियाँ दूसरे रूप में रहती है पर बड़े होने पर उनका झुण्ड इकठ्ठा होकर हिस्टीरिया या उन्माद की और कोई स्थिति उत्पन्न कर देती है। घुटन कई रूप में फूटती है मनुष्य को अवाँछनीय आचरण करने के लिए प्रेरित करती है। उसे बाँध तोड़कर बाहर निकलने के एक प्रकार को इस प्रकार भी देखा जा सकता है।
हिस्टेरिया का एक दूसरा प्रकार है, ‘सामयिक उन्माद’ इसे भूत, पलीत या देवी देवताओं के आवेश के रूप में देखा जा सकता है। शिक्षितों में यह आवेश दूसरी कई तरह की सामयिक उचंगों के रूप में आता है और वे अपने आप को क्रोध आदि आवेशों से ग्रसित पाते हैं। कई बार तो ऐसी स्थिति अपने लिए तथा संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के लिए घातक बन जाते हैं। आवेश ग्रस्त स्थिति के साथ रोगी जब भूत-प्रेतों के या देवी देवताओं के आक्रमण के साथ संगति बिठा लेता है तक वह प्रवाह उसी दिशा में बहने लगता है और ऐसे लक्षण प्रकट होते हैं जिनमें ऐसा प्रतीत होता है मानो सचमुच ही कोई भूत बेताल उन पर चढ़ दौड़ा हो।
‘ऐक्जाइटी न्यूरो सिस’ एवं हिस्टरिक न्यूरोसिस को हिस्टीरिया तो नहीं कहा जा सकता पर उसकी ‘सहेली’ या ‘छाया’ कहने में हर्ज नहीं है। कोई कल्पना जब मस्तिष्क पर असाधारण रूप से हावी हो जाती है तो उसे अनुभूतियाँ भी उसी प्रकार की होने लगती है। भूत-प्रेतों के आवेश प्रायः इसी स्थिति में आते हैं। मस्तिष्क में असंतुलन का दौरा पड़ता है। रोगी के मस्तिष्क का एक बहुत छोटा अंश यह अनुमान लगाने की चेष्टा करता है कि इस आकस्मिक हलचल का कारण क्या हो सकता है। उसे दूसरे लोगों पर भूतों का आवेश आने की जानकारी देखने या सुनने से पहले ही मिल चुकी होती है अस्तु क्षण भर में अपनी स्थिति उसी प्रकार की मान लेने का विश्वास जम जाता है। बस, इतनी भर मान्यता शरीर के हिलने, झूमने, गरदन डुलाने, लम्बी साँसें, उत्तेजना आदि भूतोन्माद के लक्षण प्रस्तुत कर देती है।
इसी श्रेणी में देवी-देवताओं को आवेशों की गणना की जा सकती है। भूतोन्माद अधिक अविकसित, अशिक्षित और असंस्कृत लोगों को आते हैं। उनमें भय आक्रोश का बाहुल्य रहता है और हरकतों में तथा बचनों में निम्न स्तर की स्थिति टपकती है। जब कि देवोन्माद में अपेक्षा कृत सज्जनता एवं शिष्टता की मात्रा अधिक रहती है। आवेश एवं वार्तालाप भी ऐसा ही होता है मानों कोई देव स्तर का व्यक्ति कर रहा हो। जिन लोगों ने देवी देवताओं की चर्चा अधिक सुनी है, स्वयं उस पर विश्वास करते हैं उनका मस्तिष्क आवेश की स्थिति में अपनी कल्पना, साथ ही हरकतें भी उसी स्तर की बना लेता है। वस्तुतः इन आवेशों में देव स्तर सिद्ध करने वाली कोई प्रमाणिकता नहीं होती। स्तर के अनुरूप इनका वर्गीकरण भूतोन्माद या देवोन्माद के रूप में किया जा सकता है, पर उनके बीच कोई बड़ा भेद नहीं होता।
आयुर्वेद ग्रन्थों में भूतोन्माद की कितनी ही शाखा प्रशाखाओं का वर्णन है उसे रोग की संज्ञा दी गई है और उपचार विधि बताई गई है। वस्तुतः उसे उन्माद का यदा कदा आने वाला दौरा ही कह सकते हैं। आवेश गहरा हो तो रोगी के अवयव ही उत्तेजित होते हैं और वह उन्मत्त जैसी हरकतें करता है किंतु यदि दौरा हल्का हो तो एक प्रकार से नशे जैसी स्थिति बन जाती है। भूत का व्यक्तित्व अपने ऊपर थोप कर वह ऐसी ही बातें करता है मानो वह सचमुच ही भूत की स्थिति में पहुँच गया हो। भूत को जो कहना चाहिए सो ही वह कह रहा हो। यह कथन क्रम बद्ध तो होता है, उसकी संगति बैठती है पर होता सर्वथा काल्पनिक है। भोले लोग उसे तथ्य मान बैठते हैं और उन्माद की स्थिति में जो कहा गया था उसी पर विश्वास करके वैसा ही करने या मानने लगते हैं।
कई मनुष्यों को ऐसी सुनाई पड़ती है। मानो किसी ने उनसे कुछ बात जोर देकर कही है। लगता है उन्होंने वैसा सुना है। किसी किसी को ऐसा लगता है कोई भीतर से बोल रहा है। पेट में बैठकर या शिर पर चढ़ कर कुछ बता रहा हैं इस बीमारी को ‘हैवीफ्रेनिक शिजोफेनिया’ कहते हैं। भूत पलीतों के देवी देवताओं के सन्देह, आह्वान, आदेश प्रायः इसी प्रकार के होते हैं। प्रेमी और प्रेमिकाओं को इसी प्रकार की अनुभूतियाँ होती है मानो उनका प्रिय पात्र सामने खड़ा कुछ इशारे कर रहा है यह कह रहा है। जिनके प्रियजन जल्दी ही मरें है, उनका वियोग निरन्तर छाया रहता उन्हें भी झपकी आते ही मृतात्मा निकट आकर कुछ करती कहती दिखाई पड़ती है। भक्त लोगों को उनके इष्ट देव भी ऐसे ही कौतूहलवर्धक परिचय देते हैं।
मानसिक अस्त-व्यस्तता को दो भागों में विभाजित किया जाता है (1) न्यूरोसिस (2) साइकोसिस।
न्यूरोसिस वह स्थिति है जिसमें मनुष्य अन्ट-सन्ट सोचता और आयँ-बाँय बोलता है। बेकार की चिंताएं और बेसिर पैर की कल्पनाएं उसे हैरान करती रहती है। चिन्ता में डूबा, आशंकाओं से, ग्रसित भयभीत एवं असंभव चिन्तन के घोड़े दौड़ाते हुए उसे आये दिन देखा जा सकता है। कभी कुछ कभी कुछ खब्त सवार रहता है।
साइकोसिस इससे आगे की और अधिक बिगड़ी हुई स्थिति है। उसमें व्यक्ति पूर्ण रूप से तो नहीं पर किसी विशेष प्रसंग में पगलाया रहता है। किसी विशेष समय, परिस्थिति, घटना, वर्ग या व्यक्ति के सम्बन्ध में उसके कुछ ऐसे भले या बुरे आग्रह जम जाते हैं जिनका वास्तविकता के साथ बहुत कम सम्बन्ध होता है। उसकी अपनी कल्पना और मान्यता एक अलग से स्वप्न लोक रच लेती है और उन्हीं में वह खोया रहता है।
मानसिक रोगों की निदान पुस्तकों में आवसेसिव कम्पलसिक न्यूरोसिस एग्जाइरी जैसे विश्लेषणों के साथ अनेक रूपों में लक्षणों और उदाहरणों के साथ चित्रित किया गया है, साइकोसिस शाखा में से आर्गेनिक साइकोसिस फैक्शनल, पैरानायड् जैसे भेद उपभेद है। संक्षेप में न्यूरोसिस हल्की और साइकोसिस बढ़ी हुई स्थिति को कहते हैं। हल्की स्थिति में दूसरों के समझाने में रोगी अपनी गलती और सोचने की पद्धति में त्रुटि होने की बात स्वीकार कर लेता है किन्तु बढ़ी स्थिति में नशा इतना गहरा होता है कि यह अनुभव या स्वीकार ही नहीं होता कि वह कुछ गलती कर रहा है। गहरे पागलपन में यही स्थिति हो जाती है। उसे यह तनिक भी आभास नहीं होता है कि वह किसी मानसिक रुग्णता का कष्ट भुगत रहा है। वह अपने को सामान्य मानता है दूसरों के द्वारा अपने प्रति किए गये असामान्य व्यवहारों के द्वेष दुर्भाव की संज्ञा देता है।
कई बार दुहरे परस्पर विरोधी विचार एक ही व्यक्ति या कार्य के सम्बन्ध में आते हैं। ज्वार में पानी बहुत ऊँचा उठता है और भाटा आने पर वह नीचा चला जाता है। नशा चढ़ने पर ताकत फूटी पड़ती है और उतरने पर शिथिलता बेतरह आ घेरती है। बच्चे के गड़बड़ करने पर क्रोध में माता कस कर चाँटा जड़ देती है पर बच्चे के सुपक कर रोते ही उसकी करुणा जग पड़ती है और अपने को कोसते हुए बच्चे को वात्सल्य पूर्वक छाती से चिपटा लेती है। यह परस्पर विरोधी परिस्थितियाँ हुई कुछ मस्तिष्क में प्रिय और अप्रिय भावनाओं के ऐसे ही ज्वार-भाटे आते रहते हैं। आज अमुक व्यक्ति बहुत प्रिय है कल वही बहुत बुरा लगा, आज जो काम खराब लगता है कल उसी को करने के लिए आकुलता उठने लगी, आज जो निर्माण किया जा रहा है कल उसी को तोड़ डालने की योजना बन कर तैयार हो गई। इस दोगली मनोवृत्ति को “कैटै टोनिक शिजीफ्रेनिया” कहते हैं।
मानसिक रोगों का परिवार बहुत बड़ा है। उसमें शिवजी की बरात जैसे चित्र विचित्र स्तर के विभिन्न आकृति-प्रकृति के विक्षोभ भरे पड़े है, उनके प्रकट होने के स्वरूप अलग-अलग है। इतने पर भी यह कहा जा सकता है कि यह सब मानसिक असंतुलन के परिणाम है। पेट की गड़बड़ी से शरीर रुग्ण होता है और असंतुलन से मस्तिष्क। आवश्यकता इस बात की है कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आहार बिहार का सही तरीका सीखा जाय और मन को स्वस्थ रखने के लिए परिस्थितियों के निर्माण करने, उनके साथ ताल मेल बिठाने अथवा बदल डालने का साहस उत्पन्न किया जाय, विकसित मनोबल उत्पन्न किया जाना उतना ही आवश्यक है जितना कि शरीर को निरोग रखना हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इन दोनों ही दिशाओं में सुधार के आवश्यक प्रयत्न करने चाहिए।