
भ्रम जंजाल में उलझे हुए हम सब
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अक्सर हमारी अनुभूतियाँ वस्तुस्थिति से सर्वथा उलटी होती हैं। इन्द्रियाँ अपूर्ण ही नहीं कई बार तो वे भ्रामक सूचनायें देकर हमें ठगती भी हैं। उनके ऊपर निर्भर रहकर-प्रत्यक्षवाद को आधार मानकर शाश्वत सत्य को प्राप्त करना तो दूर, समझ सकना भी सम्भव नहीं होता।
उदाहरण के लिए प्रकाश को ही लें। प्रकाश क्या है। उसे विद्युत चुम्बकीय लहरों का बवंडर ही कहा जा सकता है। वह कितना मंद या तीव्र है यह तो उसकी मात्रा पर निर्भर करता है, पर उसकी चाल सदा एक सी रहती है। एक सैकिण्ड में वह एक लाख छियासी हजार मील की गति से दौड़ने वाला पदार्थ है। प्रकाश किरणों में सात रंग होते हैं। इन्हीं के सम्मिश्रण से हल्के भारी अनेकानेक रंगों का सृजन होता है।
यह बात कहने, सुनने और जानने मानने में विचित्र लगेगी कि संसार के किसी पदार्थ में कोई रंग नहीं है। हर वस्तु रंग रहित है। किन्तु यह विशेषता अवश्य है कि प्रकाश की किरणों में जो रंग है उनमें से किसी को स्वीकार करें किसी को लौटा दें। बस इसी कारण हमें विभिन्न वस्तुएं विभिन्न रंगों में दीखती हैं। पदार्थ जिस रंग की किरणों को अपने में सोखता नहीं वे उससे टकराकर वापिस लौटती हैं। वापसी में ये हमारी आँखों से टकराती हैं और हम उस टकराव को पदार्थ का अमुख रंग होने के रूप में अनुभव करते हैं। पौधे वस्तुतः हरे नहीं होते, उनका कोई रंग नहीं, हर पौधा सर्वथा बिना रंग का है, पर उसमें प्रकाश की हरी किरणें सोखने की शक्ति नहीं होती अस्तु वे उसमें प्रवेश नहीं कर पातीं। वापिस लौटते हुए हमारी आँखों को इस भ्रम में डाल जाती हैं कि पौधे हरे होते हैं। हम उसी छलावे को शाश्वत सत्य मानते रहते हैं और प्रसंग आने पर पूरा जोर लगाकर यह सिद्ध करते हैं कि पौधे निश्चित रूप से हरे होते हैं। कोई उससे भिन्न बात कहे तो हँसी उसी की बुद्धि पर आवेगी, भ्राँत और दुराग्रही उसी को कहेंगे। यह जानने और मानने का कोई मोटा आधार दिखाई नहीं पड़ता कि हमारी आँखें धोखा खा रही हैं- प्रकृति की जादूगरी, कलाबाजी हमें ही छल रही है। पेड़ का तो उदाहरण मात्र दिया गया। हर पदार्थ के बारे में हम रंगों के सम्बन्ध में ऐसे ही भ्रम जंजाल में जकड़े हुए हैं। जिन आँखों को प्रामाणिक मानते हैं, जिस मस्तिष्क की विवेचना पर विश्वास करते हैं यदि वही भ्रमग्रस्त होकर हमें झुठलाने लगे तो फिर हमारा ‘प्रत्यक्षवाद’ को तथ्य मानने का आग्रह बेतरह धूल धूसरित हो जाता है।
हमारी दृष्टि में काला रंग सबसे गहरा रंग है और सफेद रंग कोई रंग नहीं है। पर यथार्थता इस मान्यता से सर्वथा उलटी है। किसी रंग का न दीखना काला रंग है और सातों रंगों का सम्मिश्रण सफेद रंग। अंधेरा वस्तुतः ‘कुछ भी नहीं’ कहा जा सकता है जबकि वह घोर घना छाया दीखता है। उसके कारण कुछ भी सूझ न पाने की स्थिति आ जाती है। वैशेषिक दर्शन ने अँधेरे को कोई पदार्थ मानने से इनकार किया है जबकि दूसरे दार्शनिक उसे एक तत्व मानने का जोर-शोर से प्रतिपादन करते हैं। कालापन सभी प्रकाश किरणों को अपने भीतर सोख लेता है फलतः हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता है और अंधेरे में ठोकर खाते हैं- घनी कालिमा छाई देखते हैं।
किसी भी रंग की किरणें सोख सकने में जो पदार्थ सर्वथा असमर्थ हैं वे ही हमें सफेद दीखते हैं। कारण यह है कि उनसे टकराकर तिरस्कृत प्रकाश तरंगें वापस लौटती हैं और उनके सात रंगों का सम्मिश्रण हमारी आँखों को सफेद रंग के रूप में दीखता है। कैसी विचित्र, कैसी असंगत और कैसी भ्रम जंजाल भरी विडम्बना है यह। जिसे न उगलते बनता है न पीते। न स्वीकार करने को मन होता है न अस्वीकार करने का साहस। अपने ही अपूर्ण उपकरणों पर क्षोभ व्यक्त करते हुए मन मसोस कर बैठना पड़ता है। वैज्ञानिक सिद्धियों को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है। हलका, भारी, गहरा, उथला, कालापन भी एक पहेली है। अन्धकार कहीं या कभी बहुत गहरा होता है और कहीं या कभी उसमें हलकापन रहता है यह भी उतने अंशों में प्रकाश को सोखने न सोखने की क्षमता पर निर्भर रहता है। काले रंग में प्रकाश का सारा अंश सोख लेने की क्षमता का एक प्रमाण यह है कि वह धूप में अन्य पदार्थों की अपेक्षा अधिक मात्रा में और अधिक जल्दी गरम होता है।
अब एक नया प्रश्न उभरता है कि प्रकाश किरणों में रंग कहाँ से आता है ? इस स्थल पर उत्तर और भी विचित्र बन जाता है। प्रकाश लहरों की लम्बाई का अन्तर ही रंगों के रूप में दीखता है। रंग नाम की कोई चीज इस समस्त विश्व में कहीं कुछ है ही नहीं। उसका अस्तित्व सर्वथा भ्रामक है।
विद्युत चुम्बकीय तरंगें ही प्रकाश हैं। इन तरंगों की लम्बाई अलग-अलग होती है। अस्तु उनका अनुभव हमारा मस्तिष्क भिन्न-भिन्न अनुभूतियों के साथ करता है। यह अनुभूति भिन्नता ही रंगों के रूप में विदित होती है। सात रंग तथा उनसे मिलजुलकर बनने वाले अनेकानेक रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रकाश तरंगों की लम्बाई का मस्तिष्कीय अनुभूति के रूप में ही किया जा सकता है। रंगों की अपनी तात्विक सत्ता कुछ भी नहीं है।
अगर हम विदित प्रकाश किरणों को यन्त्रों की अपेक्षा खुली आँखों से देख सकने में समर्थ हो सके होते तो जिस प्रकार एक सात रंगों का सप्तक हमें दीखता है उससे अतिरिक्त अन्यान्य ऐसे रंगों के जिनकी आज तो कल्पना कर सकना भी अपने लिए कठिन है 67 सप्तक और दीखते। 67 x 7 = 469 रंगों के सम्मिश्रण से कितने अधिक रंग बन जाते हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जाता है कि विज्ञात सात रंगों से ही हजारों प्रकार के हल्के भारी रंग बने हुए दीखते हैं।
प्रातः काल का अरुणोदय और लाल रंग का सूर्य निकलना इस रंग भ्रम जंजाल की एक झलक है। सूर्य वस्तुतः सफेद ही होता है, पर सवेरे वह सिर पर नहीं पूर्व में तिरछी स्थिति में होता है। इसलिए उसकी किरणों को बहुत लम्बा वायुमंडल पार करना पड़ता है। इस मार्ग में बहुत अधिक धूलि कण आड़े आते हैं। वे कण लाल रंग नहीं सोख पाते अस्तु वे किरणें हम तक चली आती हैं और सवेरे का उगता हुआ सूर्य लाल रंग का दिखाई पड़ता है।
आँखें कितना अधिक धोखा खाती हैं और मस्तिष्क कितनी आसानी से बहक जाता है इसका एक उदाहरण रंगों की दुनिया में पहला पैर रखते ही विदित हो जाता है। अन्य विषयों में भी हमारी भ्रान्ति का ठिकाना नहीं । जीवन का स्वरूप,प्रयोजन और लक्ष्य एक प्रकार से पूरी तरह विस्मृत कर दिया है और जड़ पदार्थों पर अपनी ही मान्यता को बिखेर कर उन्हें प्रिय- अप्रिय के रूप में देखने की स्थिति को संसार से मिलने वाले सुख-दुःख को मान लिया है। आत्म-ज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि यदि मिल सके तो पता लगेगा कि हम अज्ञान, माया और भ्रम के जिस जंजाल में फँसे हुए हैं उनसे निकले बिना सत्य के दर्शन नहीं हो सकते और सत्य के बिना सुख नहीं मिल सकता।
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