
आधुनिक सभ्यता का अभिशाप समय से पूर्व बुढ़ापा
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पच्चीस तीस वर्ष की आयु में कई युवकों के बाल सफेद, चेहरा निस्तेज और गालों पर झुर्रियाँ देखी जा सकती हैं। उनकी आन्तरिक स्थिति भी अनुत्साह, विक्षोभ, निराशा और चिन्ताग्रस्त रहती है। कहा जाता है समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। यह तो कहावतों और लोकोक्तियों वाली बात हुई, पर वैज्ञानिकों ने सचमुच इस तथ्य को ढूंढ़ निकाला है कि आदमी अब समय से पहले ही बूढ़ा होने लगा है।
जब इस आधार पर अन्य वयस्क लोगों की जाँच की गयी तो पता चला कि वे भी उन सब दौरों से गुजर रहे हैं जिनसे उन्हें पच्चीस-तीस वर्ष बाद गुजरना चाहिये। इन परीक्षणों के आधार पर एक नये रोग का पता चला जिसे नाम दिया गया- प्रोजीरिया अर्थात् समय से पूर्व बुढ़ापा और अब पश्चिमी देशों में ये रोग सामान्य होता जा रहा है। उस बालक में समय से बहुत पूर्व ही बुढ़ापा आ गया पर अन्य लोग भी पच्चीस-तीस वर्ष की आयु के बाद शायद ही युवक रह पाये हों। प्रोजीरिया के लक्षण उनमें भी किसी न किसी रूप में अवश्य पाये जा रहे हैं। एल्विन टाफ्लर नामक एक पश्चिमी विद्वान ने इसी विषय पर गहन अनुसन्धान किया और उसके निष्कर्षों को लिपिबद्ध कर दिया। उक्त घटना को भविष्य का संकेत निरूपित करते हुए एल्विन टाफ्लर ने लिखा है कि यह घटना एक चमत्कार है जिसमें भविष्य की एक झलकी मिलती है टाफ्लर ने अपने ग्रन्थ में इसका कारण लिखते हुए यह भी बताया कि- “विकास की रफ्तार बहुत तेज हो गयी है और उसी गति से आज की दुनिया भी बदल रही है। इतनी तेजी से कि हमारी पीढ़ी को यह भी पता नहीं है कि हम कहाँ जा रहे हैं। नयी पीढ़ी का वर्तमान है केवल यौन सम्बन्धों में उन्मुक्तता, नशा और पोशाक। यहाँ तक कि कुछ ही समय में यह वर्तमान भी अपना आकर्षण खो बैठेगा। लोग इतना भर अनुभव करते हैं कि कुछ बदल रहा है लेकिन क्या बदल रहा है? बदल भी रहा है या नहीं - यह कोई नहीं जानता है। जान तो सकता है पर जानना कोई नहीं चाहता। कुछ शताब्दियों पूर्व आदमी की आयु सौ साल की थी, अब पचास साल से भी कम रह गयी है और भविष्य में सिर्फ बारह साल की ही रह जायेगी।”
यह बात कोई चौंका देने के उद्देश्य से नहीं कही गयी है। इस सम्भावित खतरे को दूर करने के लिए पश्चिम में कई वैज्ञानिक समितियाँ काम भी कर रही हैं और इस बात का प्रयत्न कर रही हैं कि जीवन मूल्यों में इतनी तीव्रता के साथ होने वाले परिवर्तनों को एक सम्मिलित रूप दिया जाय। इसके लिए वैज्ञानिक नयी योजनायें, नयी नीति और नयी शिक्षा पद्धतियों का भी निर्धारण करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
एल्विन टाफ्लर के अनुसार हममें से प्रत्येक ने आठ सौवीं बार जीवन धारण किया है। यह विश्वास किया जाय कि हम हर बार मनुष्य रूप में ही जन्मे हैं तो, अगर हमने प्रत्येक जीवन औसतन रूप से 62 वर्ष तक जिया हो तो पिछले हजार वर्षों में- जबसे कि मनुष्य प्राणी अस्तित्व में आया तब से आठ सौ बार जन्म लिया है और इन आठ सौ जन्मों में से पूरी छह सौ पचास जिन्दगियाँ गुफाओं और गिरी कन्दराओं में व्यतीत की हैं। डेढ़ सौ जिन्दगियाँ मनुष्य की वर्तमान स्थिति तक पहुँचने वाली विकास सत्ता पर व्यतीत किये हैं और उनमें से भी हमें केवल सत्तर जीवन वर्षों के बारे में ही कुछ मालूम है अर्थात् पिछले ढाई हजार वर्षों के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक विवरण क्रमबद्ध रूप से उपलब्ध कर पाये हैं। इसमें भी पिछले सात सौ वर्षों में लिखने पढ़ने का प्रचार प्रसार हुआ और अभी करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ही बिजली का प्रयोग करना सीखा।”
कहने का अर्थ यह है कि मनुष्य सभ्यता ने पचास हजार वर्षों में उतना विकास नहीं किया जितना कि पिछले ढाई हजार वर्षों में। ढाई हजार वर्षों से भी अधिक सभ्यता का विकास हुआ पिछले सात सौ वर्षों में और सात सौ वर्षों में भी निकटतम डेढ़ सौ वर्षों की अपेक्षा कम प्रगति हुई है। यह इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य ने समय को छोटा कर वर्षों को क्षणों में बाँध दिया है।
एल्विन टाफ्लर की दृष्टि में यह परिवर्तन ही नयी-नयी बीमारियों का जनक है। लेकिन परिवर्तन उतना ही उत्तरदायी नहीं है जितना कि मनुष्य का आज का कृत्रिम और अप्राकृतिक जीवन। परिवर्तन में कुछ अस्त-व्यस्ततायें स्वाभाविक हैं, पर उन्हें स्वाभाविक से अस्वाभाविक बनाने के लिए अस्वाभाविकतायें ही कारण हैं। आधुनिक सभ्यता के नाम से जानी समझी जाने वाली जीवन पद्धति ने कई ऐसी विकृतियों को जन्म दिया है जो मनुष्य के स्वास्थ्य और जीवन के लिए हानिकारक सिद्ध हुई हैं। प्रोजीरिया- समय से पहले वृद्धावस्था तो उनमें से एक है।
स्वयं एल्विन टाफ्लर ने इन विकृतियों के घातक बनने का कारण परिवर्तनों की अपेक्षा अन्धे होकर भागना ही अधिक माना है। वृद्धावस्था की भयंकरता का एक कारण मृत्यु का भय भी है। आज के समय में बदलते परिवेश ने व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना को तोड़ कर उसे एकाकी से असुरक्षित भी बना दिया है। होने वाले परिवर्तनों के साथ दौड़ने में आदमी इतना व्यस्त है कि उसे अपने आस-पास के लोगों का ध्यान ही नहीं रहता। न ही वह अनुभव कर पाता है कि उसके साथ कोई है भी। फलस्वरूप वह अपने को अकेला और भीड़ में असुरक्षित मानता है। असुरक्षा की भावना वृद्धावस्था की मित्र ही कही जानी चाहिये जो आत्म विश्वास के अभाव में उत्पन्न होती है। बच्चों को भी प्रौढ़ों की भाँति सोचने के लिए विवश होना पड़ता है। क्योंकि वे अपने माता-पिता से आवश्यक और अपेक्षित स्नेह संरक्षण प्राप्त नहीं कर पाते। इन सब कारणों से व्यक्ति युवक हो या बालक मृत्यु का भयावह चित्र देखता रहता है और वह भी समय से पहले ही उसे बूढ़ा बना देती है।
आज का समय औद्योगिक युग के नाम से जाना जाता है। मशीनी युग में आदमी का जीवन भी इतना याँत्रिक हो गया है कि वह सभी प्रवृत्तियों को विवेक की कसौटी पर कसे बिना ही अन्धाधुन्ध अपनाये जाता है। आधुनिक सभ्यता का अंग कही जाने वाली कितनी ही दुष्प्रवृत्तियाँ शरीर और स्वास्थ्य पर अपना घातक प्रभाव छोड़ती हैं- इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार कर चुके हैं। कैन्सर, यक्ष्मा, हृदय रोग, हिस्टीरिया जैसी राजरोग कही जाने वाली बीमारियाँ जो तेजी से बढ़ती जा रही हैं। इनके मूल में वातावरण बदलने के साथ-साथ व्यक्ति की आदतों, स्वभाव और प्रकृति में आया परिवर्तन भी है। इसका कारण बदलता समय कहा जाय या सभ्यता का तीव्र विकास। मूलतः व्यक्ति का असन्तुलित, दिशाहीन और अस्त-व्यस्त जीवन ही है। यदि सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य की भी यही गति रही तो मनुष्य का अन्त सन्निकट ही है। राज-रोगों के साथ प्रोजीरिया जैसी नयी-नयी बीमारियों का बढ़ना यही सिद्ध करता है।
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