
मरण-मात्र विश्राम-मात्र परिवर्तन
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मृत्यु से सब डरते हैं, पर इसलिए कि वह सचमुच ही डरावनी है। हमें सिर्फ अविज्ञात से डर लगता है, अपरिचित के सम्बन्ध में अनेकों आशंकाएँ रहती हैं। अनिश्चय ही- अविश्वस्त स्थिति ही डरावनी होती है। रात्रि के अन्धकार में डर लगता है, पर किसका ? चोर का नहीं, इस सुरक्षित स्थान तक उसकी कोई पहुँच नहीं। सर्प का -नहीं इस ऊँची अट्टालिका के संगमरमर से बने फर्श तक आ सकने का उसका कोई रास्ता नहीं। भूत का-नहीं वह तो भ्रम-मात्र है, उसके अस्तित्व पर कोई भरोसा नहीं। फिर वही प्रश्न-अँधेरा क्यों डरा रहा है ? सुनसान में सिहरन क्यों हो रही है ? निश्चय ही यह अनिश्चय की-स्थिति है जो अपरिचित से डरने के लिए बाध्य करती है। अपरिचित अर्थात् अज्ञात। सचमुच अज्ञान सबसे अधिक डरावना है। मौत अज्ञान की छाया मात्र है।
एक गड़रिया राजकीय सम्मान के लिए सिपाहियों द्वारा दरबार में उपस्थित किया गया। वह बेतरह काँप रहा था। भय था कि न जाने उसका क्या होगा, पर जब उसे सम्मानित किया गया और उपहार से लादा गया जब वह सोचने लगा मैं व्यर्थ ही थर-थर काँपता रहा और अपना रक्त सुखाता रहा।
डरावनी मृत्यु आखिर है क्या ? तनिक जानने की कोशिश करें कि वह तनिक सी विश्रान्ति भर है। अनवरत यात्रा करते-करते जब थककर चेतना चूर-चूर हो जाती है तब वह विश्राम चाहती है। नियति उसकी अभिलाषा पूर्ण करने की व्यवस्था बनाती है। थकान को नवीन स्फूर्ति में बदलने वाले कुछ विश्राम के क्षण वस्तुतः बड़े मधुर और सुखद होते हैं। क्या उन्हें दुखद दुर्भाग्य माना जाय ?
सूर्य हर दिन अस्त होता है, पर वह किसी भी दिन मरता नहीं। अस्त होते समय विदाई की ‘अलविदा’ मन भारी करती है, पर यह मानकर सन्तोष कर लिया जाता है कि कुछ ही समय बाद उल्लास भरे प्रभात का अभिनन्दन प्रस्तुत होगा।
पके फल को प्रकृति उस पेड़ से उतार लेती है। इसलिए कि उसका परिपुष्ट बीज अन्यत्र उगे और नये वृक्ष के रूप में स्वतन्त्र भूमिका सम्पादन करे। वृक्ष से अलग होते समय वियोग की, दुलहन के पतिगृह में प्रवेश करने की तैयारी नहीं है। क्या बिछुड़न की व्यथा में मिलन की सुखद संवेदना छिपी नहीं होती। इन विदाई के क्षणों को दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य ? मृत्यु को अभिशाप कहें या वरदान ? इस निर्णय पर पहुँचने के लिए गहरे चिन्तन की आवश्यकता पड़ेगी।
मरण के कन्धों पर बैठकर हम पड़ौस की हाट देखने भर जाते हैं और शाम तक घूम फिरकर फिर घर आ जाते हैं। मृत्यु के बाद भी हमें इसी नीले आसमान की चादर के नीचे रहना है। अपनी परिचित धूप और चाँदनी से कभी वियोग नहीं हो सकता। जो हवा चिरकाल से गति देती रही है उसका सान्निध्य पीछे भी मिलता रहेगा। दृश्य पदार्थ और सम्बन्धी अदृश्य बन जायेंगे इससे क्या हुआ। दृश्य भोजन उदरस्थ होकर अदृश्य ऊर्जा बन जाता है, इसमें घाटा क्या रहा ? सम्बन्धियों की सद्भावना और अपनी शुभेच्छा आदान-प्रदान जब बना ही रहने वाला है तो सम्बन्ध टूटा कहाँ ? इस परिवर्तन भरे विश्व में जीवन का स्वरूप भी तो बदलना चाहिए ज्वार भाटे की तरह जीवन और मरण के विशाल समुद्र में हम सब प्राणी क्रीड़ा कल्लोल कर रहे हैं। इस हास्य को रुदन क्यों मानें ?
श्मशान को देखकर कुड़कुड़ाओ मत। वह नव जीवन का उद्यान है। उसमें सोई आत्माएँ मधुर सपने सजा रही हैं ताकि विगत की अपेक्षा आगत को अधिक समुन्नत बना सकें। लोगों, डरो मत। यहाँ मरता कोई नहीं, सिर्फ बदलते भर हैं और परिवर्तन सदा से रुचिर माना जाता रहा है, रुचिर के आगमन पर रुदन क्यों ?
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