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Magazine - Year 1976 - Version 2

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उपासना के अतिरिक्त अंशदान भी

आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य यह है कि आत्मा का हर दृष्टि से विकास विस्तार परमात्मा के समतुल्य हो। बूँद समुद्र से मिले। छोटा निर्झर गंगा में अपने आपको समर्पित करके अपनी लघुता को महानता में विकसित करे। ईश्वर व्यापक है- जीव सीमित। ईश्वर दिव्यता का समुद्र है- जीव पर मलीनता की परत भी है। उपासना एवं साधना का उद्देश्य यह है कि जीवन अपनी मलीनताओं से छुटकारा प्राप्त करने का प्रयत्न करे और अपने इष्टदेव की-भगवान की- समीपता समता प्राप्त करता हुआ आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ता चला जाय। इस प्रगति का परिचय इसी कसौटी पर मिलता है कि व्यक्ति ने संकीर्ण स्वार्थपरता को किस सीमा तक छोड़ा और अपनी आत्मीयता का विस्तार कितनी परिधि तक फैलाया।

उपासना के दो आधार हैं- एक ईश्वर का स्वरूप निर्धारण दूसरा उसकी समीपता, अनुकम्पा प्राप्त करने का प्रयत्न। स्वरूप निर्धारण में प्रायः मनुष्य आकृति की किसी प्रतिमा को ध्यान पूजन का प्रतीक बनाया जाता है। यह प्रतीक प्रतिमाएं मनुष्यकृत हैं। उनके निर्माण का उद्देश्य ध्यान साधना के लिए आधार खड़ा करना भर है। भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम एवं भगवान कृष्ण को पूर्ण पुरुष कहा जाता है। उनकी वास्तविक प्रतिमा बना सकना कठिन है। क्योंकि उनके अवतरण काल में यथार्थ चित्रकला का कोई प्रमाणिक आधार उपलब्ध नहीं है। जो भी चित्र या प्रतिमा गढ़ी हैं वे मानवी कल्पना पर अवलम्बित हैं। यहीं कारण है कि अनेकानेक आकृतियां प्रतिमाएं बनती और बनाई जाती रहती हैं। राम की प्रतीक स्थापना में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ बनने और कृष्ण प्रतिमा में पूर्ण पुरुष बनने का लक्ष्य है। इष्ट अर्थात् लक्ष्य। हमारी आत्मिक प्रगति किस स्तर की हो- उसका स्वरूप क्या हो इसका निर्धारण इष्टदेव की स्थापना के आधार पर होता है। शिव जैसा वैराग्य, गणेश जैसी बुद्धि, सरस्वती जैसा ज्ञान, लक्ष्मी जैसा वैभव, सूर्य जैसा तेज आदि जो भी पूर्णता का अन्तिम बिन्दु हो उसकी प्रतीक प्रतिमा स्थापित करके उपासना के ध्यान पक्ष को सहारा दिया जाता है। प्रतीकों की आवश्यकता इसी निमित्त होती है।

उपासना के अवसर पर प्रयुक्त होने वाले क्रिया-कलाप एवं उपचार भी आधार मात्र हैं। उनके सहारे चेतना को यह प्रशिक्षण दिया जाता है कि आत्मोत्कर्ष के अभिलाषी को अपने गुण, कर्म, स्वभाव में क्या परिवर्तन एवं परिष्कार करना चाहिए। संक्षेप में जीवन विकास का लक्ष्य और उस के लिए अपनाई जाने वाली रीति-नीति के सम्बन्ध में चेतना को अधिकाधिक परिचित एवं प्रशिक्षित करना ही समूचे उपासना विज्ञान का एकमात्र उद्देश्य है। आत्मिक प्रगति पूरी तरह उदात्त दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया-कलाप के दोनों चरण बढ़ाते हुए- दोनों पहिये घुमाते हुए ही सम्भव होती है। ईश्वर भक्ति का उद्देश्य न इससे कम है और न अधिक।

अखण्ड ज्योति के परिजनों को हम आरम्भ से ही आस्तिकता की आवश्यकता और उपासना की उपयोगिता समझाते रहे हैं। हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण भाग उपासना के निमित्त ही समर्पित रहा है। इसके अतिरिक्त जो भी सम्पर्क में आया है उसे आस्तिकता अपनाने और उपासना में संलग्न होने का परामर्श देते रहे हैं। इसका सत्परिणाम भी सामने आया है। ईश्वर भक्ति का आश्रय लेकर जिन सत्परिणामों का लाभ मिला है, उस पर हमें सन्तोष है, साथ ही इस प्रेरणा द्वारा लाभान्वित होने वालों को देखकर भी यह विश्वास दिन-दिन बढ़ा है कि ईश्वर की समीपता के लिए किये गये प्रयत्न मनुष्य के लिए हर दृष्टि से श्रेयस्कर ही सिद्ध होते हैं।

अपनी आस्था के प्रति अधिक भाव भरी और अधिक प्रखर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इस वर्ष विशेष प्रयत्न किया गया है। यह हमारी साधना का स्वर्ण-जयंती वर्ष है। विगत पचास वर्षों से हम अपनी अगाध आस्था ईश्वर भक्ति के केन्द्र पर केन्द्रित किये रहे हैं। इस मार्ग पर चलते हुए जिन उपलब्धियों का दिव्य अनुदान मिलता रहा है उनने इस प्रयत्न के लिए विवश कर दिया है कि इस विशेष वर्ष में आस्तिकता के विस्तार का अधिक प्रयत्न किया जाय। तद्नुसार 45 मिनट की सामूहिक साधना का उपक्रम बना- सम्बद्ध परिजनों को उसमें सम्मिलित होने का आमन्त्रण दिया गया। प्रसन्नता की बात है कि अपने प्रस्तुत परिजनों में से एक लाख को सम्मिलित करने की सीमा लगभग पूरी होने को है। गायत्री जयन्ती 8 जून 76 को उसमें प्रवेश बन्द हो जायगा। इसके पश्चात प्रस्तुत साधक अपने क्षेत्र में अनुसाधक बनाते रहेंगे और स्थानीय साधना मण्डलों का गठन करके उनकी गतिविधियाँ वार्षिक सूत्रों आधार पर सजीव बनाये रहने के लिए प्रयत्न करते रहेंगे।

ईश्वर इतना विस्तृत है कि उसके समग्र स्वरूप एवं क्रिया-कलाप को न तो उपकरणों के माध्यम से प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष किया जा सकता और न मानवी बुद्धि अपनी समीपता के कारण उस असीम की विवेचना कर सकती है। ‘अणोरणीयान् महती महीयान्’ की व्याख्या विवेचना तो नहीं, पर अन्तरात्मा के मर्मस्थल में अनुभूति हो सकती है। इस अनुभूति के दो आधार हैं- एक साकार दूसरा निराकार। साकार परमेश्वर यह विश्व ब्रह्मांड है। शिवलिंग और शालिग्राम की गोल-मटोल प्रतिमाएं इसी के प्रतीक रूप में गढ़ी गई हैं। भगवान राम ने कौशल्या और काकभुसुण्डि को- भगवान कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को-यही अपना विराट् रूप दिखाया था। साकार ईश्वर की उपासना लोक मण्डल के सत्प्रयोजनों में संलग्न रहकर की जा सकती है।

निराकार ईश्वर कोमल भाव सम्वेदनाओं और उत्कृष्ट विचारणाओं में परिलक्षित होता है। उन्हीं की प्रेरणा से आदर्श कर्तृत्व बन पड़ता है। अन्तरंग जीवन में निराकार ईश्वर की प्रतिष्ठापना करनी होती है और बहिरंग क्रिया-कलाप में विराट् विश्व कि लिए अपने साधनों को समर्पित करना होता है। इन्हीं दोनों तथ्यों को चेतना में अधिकतम गहराई तक उतारने के लिए पूजा उपचार के विधि-विधानों का आश्रय लिया जाता है। यह सब कैसे होता है? इस पर विस्तृत प्रकाश जनवरी, फरवरी के अंगों में परिजन पढ़ चुके हैं। हममें से प्रत्येक को उन तथ्यों पर बार-बार विचार करना चाहिए। सच्ची ईश्वर उपासना का आधार उसी माध्यम से खड़ा हो सकता है और ईश्वर भक्ति के जो लाभ माहात्म्य बताये गये हैं उन्हें जीवन शोधन के राजमार्ग पर चलते हुए ही पाया जा सकता है।

यदि साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष में उपासना उपचार में उत्साह उत्पन्न करने के साथ-साथ उसके पीछे प्राण चेतना की तरह काम करने वाले तथ्यों को भी हृदयंगम कराया जा सकता तो ही इस प्रबल प्रयत्न की सार्थकता समझी जा सकती है- जिसमें एक लाख भावनाशील परिजनों को आग्रहपूर्वक सम्मिलित किया गया है। उपासना की 45 मिनट वाली पूजा प्रक्रिया जिस उत्साह से की जा रही है उतने ही विश्वासपूर्वक उस तत्वज्ञान को, जीवन दर्शन को, परमलक्ष्य को अपनाया जाना चाहिए जिनसे इस सुरदुर्लभ मनुष्य की सार्थकता सिद्ध होती है। दर्शन की अपेक्षा करके मात्र उपचार ही अपनाया गया तो समझना चाहिए कि निष्प्राण शरीर की सेवा, सज्जा मात्र के लिए श्रम किया जा रहा है।

ईश्वर भक्ति किस स्तर की हो रही है- आत्मोत्कर्ष की दिशा में प्रगति किस क्रम से चल रही है इसकी परख जिस कसौटी पर हो सकती है- वह है- “अंश दान।” संकीर्ण स्वार्थ-परता को उदात्त परमार्थ परायणता में विकसित करना ही ईश्वर भक्ति का उद्देश्य है। इस उद्देश्य की कहाँ कितनी पूर्ति हो रही है- इसकी जाँच पड़ताल अंश दान में बढ़े-चढ़े उत्साह को देखकर ही जानी जा सकती है।

अंश दान का तात्पर्य है ईश्वर के प्रति अपनेपन का समर्पण। ईश्वर का मनुष्य के प्रत्यक्ष सम्पर्क में जो भाग आता है उसमें एक है-सद्भावना और दूसरा है लोक-साधना। दोनों के समन्वय है- “सद्भाव सम्वर्धन की लोक साधना” इस प्रयत्न में संलग्न रहकर ही मनुष्य अपनी पशु प्रवृत्तियों से छुटकारा पाता है और आत्म विस्तार के साथ जुड़े हुए देवत्व का अधिग्रहण करता है।

पूजा प्रक्रिया में कई प्रकार की वस्तुएं देवता को समर्पित करनी पड़ती हैं। धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प जल को पंचोपचार सामग्री माना गया है। इनमें उपलब्ध पाँच संपत्तियों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए उदारतापूर्वक अर्पण करना है। ईश्वर ने हर व्यक्ति को इतनी सम्पदाएं देकर भेजा है कि वह उनसे अपना काम चला सके और दूसरों को सहारा दे सके। उपयोग न जानकर कोई दरिद्र रहे तो बात दूसरी है, पर वस्तुतः कुछ अपंग असमर्थों को छोड़कर कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसे दरिद्र कहा जा सके। हर किसी के पास समय, श्रम, चिन्तन, प्रभाव की ईश्वर प्रदत्त विभूतियाँ मौजूद हैं। इनके सहारे धन, संपत्ति, विद्या, बलिष्ठता, कीर्ति और सुविधा रूपी पाँच संपत्तियां कमाई जाती हैं। इन विभूतियों और संपत्तियों से न्यूनाधिक मात्रा में हर व्यक्ति सम्पन्न है।

इस वैभव का एक अंश ईश्वरीय दिव्य प्रयोजन के लिए अर्पित करते रहने का नाम ‘अंश दान’ है। इसे और भी स्पष्ट रूप से समझना हो तो यों समझना चाहिए कि उच्च आदर्शों के प्रति अपनी आस्था और ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा का प्रमाण परिचय देने के लिए अपने पास विभूतियों और संपत्तियों का जो संग्रह है उसका बढ़ा-चढ़ा अंश सदुद्देश्य के लिए अर्पित करते रहा जाना चाहिए। किसी आवेश, दबाव, अवसर या प्रयोजन के लिए व्यक्ति कई बार दान-पुण्य करते देखे जाते हैं, पर वह सामयिक होता है। उत्साह उबलता और ठण्डा होता रहता है। इतने भर से अन्तःकरण पर स्थिर संस्कार नहीं जमते। स्थिर संस्कार उत्पन्न करने के लिए प्रयोग निरन्तर चलते रहने चाहिए। व्यायाम, संगीत का निरन्तर जारी रखने में ही लाभ है। भोजन, निद्रा, स्वच्छता की नित्य आवश्यकता पड़ती है। स्वाध्याय और उपासना को भी नित्य कर्म में सम्मिलित रखा जाता है। ठीक इसी प्रकार अंश दान हमारा नित्य कर्म होना चाहिए। स्थूल संपत्ति के रूप में धन और सूक्ष्म संपत्ति के रूप में श्रम सद्भाव संवर्धन के लिए नित्य ही नियोजित किया जाना चाहिए। यही है अंश दान, जिसके आधार पर दृष्टिकोण की उदारता और अन्तःकरण में विकसित आत्म भाव का प्रमाण मिलता है।

परिजनों को हम आत्मिक प्रगति का-ईश्वर भक्ति का अनिवार्य अंग ‘अंश दान’ को आरम्भ से ही बताते रहे हैं। ज्ञान -यज्ञ के लिए-न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य नियमित रूप से लगाते रहने की बात पर हम उतना ही जोर देते रहे हैं जितना कि उपासनात्मक विधि-विधान पर। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उपचारों को देवता से वरदान झटकने का जादू समझकर बाल बुद्धि उतने भर को ही सब कुछ मान बैठती है- अंश दान की बात वे उपेक्षा के गर्त में फेंक देती हैं। हमें यह देखकर निराशा होती है कि बीज बोने में तो बच्चे भारी दौड़-धूप करते हैं किन्तु अंकुर में खाद, पानी लगाने की आवश्यकता न समझते। यह तथ्य है कि भगवत् भक्ति के सारे विधि-विधान-परमार्थ प्रयोजनों के लिए अंश दान में कृपणता बरतने पर निष्प्राण और निरर्थक बनकर रह जाते हैं। मरुभूमि में बोया हुआ बीज खाद, पानी के अभाव में नष्ट ही हो जाता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की अनुदार मनोभूमि में ईश्वर भक्ति का कल्पवृक्ष बोया तो कितनों ने ही है, पर उनमें से पल्लवित और फलित एक का भी न हुआ।

‘भज-सेवायाम्’ धातु से भजन शब्द बनता है, जिसका स्पष्ट अर्थ है- ‘सेवा साधना’। ‘सेवा-पूजा’ समानार्थक शब्द है और बोलचाल में साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। भक्ति भावना की आत्मीयता के विस्तार के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ माना गया है। इसमें अपनेपन की- सीमित परिधि को अधिकाधिक विस्तृत करने का स्पष्ट संकेत है। अपना सुख बाँट देने और दूसरों का दुःख बंटा लेने की उदारता जहाँ जिस सीमा तक उमंगती हो समझना चाहिए कि वहीं उसी सीमा तक सच्ची भक्ति भावना प्रवाहित हो रही है। लौकिक धन, वैभव और पारलौकिक स्वर्ग सिद्धि के लिए किये गये पूजा, उपचार उद्देश्य में स्वार्थ-परता भरी रहने के कारण ईश्वर को प्रभावित नहीं कर पाते। उनसे आत्मिक पवित्रता की वृद्धि होगी ही नहीं, ऐसी दशा में आत्मोत्कर्ष के फलस्वरूप मिल सकने वाली विभूतियों से पूजा परायण रहने पर भी सफलता की कोई प्रकाशवान किरण सामने नहीं आती।

आस्तिकता और उदारता एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। आत्म-संयम द्वारा अपने लिए न्यूनतम उपयोग की बात सोचनी पड़ती है तभी परमार्थ के लिए उदार अनुदान दे सकना सम्भव होता है। इस सत्प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए नित्य का अंश दान उतना ही आवश्यक माना जाना चाहिए जितना उपासना उपचार। अंश दान चाहे न्यूनतम ही क्यों न हो? पर वह नित्य और नियमित रूप से होना चाहिए। इससे संयम, परमार्थ, अनुदान, आत्म-विस्तार जैसी अनेकों सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने का अवसर मिलता है। इस ओर उपेक्षा बरतने पर कर्मकाण्डों का निर्जीव कलेवर ही हाथ रह जाता है। प्राणवान् सजीवता तो उदार सेवा साधना के सहारे ही विकसित होती है।

हमारा जीवन प्रयोग प्रत्यक्ष है। अगाध ईश्वर विश्वास और प्रगाढ़ श्रद्धा भक्ति ने हमें हर घड़ी कोंचा है कि जो कुछ पास में है उसका बढ़ा-चढ़ा अंश ईश्वर के लिए- सद्भाव संवर्धन की लोक-साधना के लिए-समर्पित किया जाय। इस दिशा में बढ़ते हुए प्रत्येक चरण ने हमें असीम आनन्द दिया है और अनुदान की मात्रा बढ़ाते चलने के लिए विवश किया और अन्ततः इस स्थिति तक पहुँचाया है कि अपनी जैसी कोई भी वस्तु शेष नहीं रह गई है। समय, श्रम, चिन्तन एवं कौशल का एक-एक कण लोक-साधना में निरत है। धन तो सबसे हलकी वस्तु होने के कारण उसकी एक-एक पाई पहले से ही समर्पित हो चुकी है। समर्पण की अध्यात्म दर्शन में असीम महिमा है। यह समर्पण-शरणागति- वाचालता तक सीमित नहीं रहनी चाहिए उसे यथार्थवादी होना चाहिए।

साधन पथ के सहचरों से हमने बार बार अनुरोध किया है कि वे उपासना का कल्पवृक्ष अवश्य बोयें किन्तु साथ ही अंश दान से उसके पोषण का प्रबन्ध भी करें। यही अनादि काल से होता है और यही अनन्त काल तक चलता रहेगा। अध्यात्म के सत्परिणाम देखने हो तो वृक्षारोपण के साथ साथ उसके लिए खाद पानी का प्रबन्ध भी किया जाना चाहिए।

साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष के साधकों ने जिस उत्साह से उपासनात्मक सरल प्रक्रिया अपनायी है उसी उत्साह से उन्हें कठिन परीक्षण के लिए भी साहस जुटाना चाहिए। अंशदान की बात न तो अनावश्यक है और न अपेक्षणीय। सच तो यह है कि अंशदान प्राण है और उपचार आवरण। उपासना की एक बार उपेक्षा की जा सकती है और अंश दान की अभिवृद्धि करते हुए जीवन लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है, पर मात्र मन्त्र तन्त्र तक सीमित कृपणता की परिधि में जकड़ी हुई उपासना कोई महत्वपूर्ण प्रतिफल प्रस्तुत न कर सकेगी। ईश्वर की अनुकम्पा भावना-स्तर की परख पर आधारित है, उसे मात्र टंट-घंट के सहारे आकर्षित नहीं किया जा सकता, इस तथ्य को जितनी अच्छी तरह, जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही अच्छा है। यहाँ उपासना की निरर्थकता नहीं बताई जा रही है। उसे कलेवर कहा जा रहा है और सेवा साधना को प्राण के रूप में प्रतिपादित किया जा रहा है। मनुष्य शरीर और प्राण दोनों का ही समन्वय है। इनमें से कोई भी अकेला होने पर अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता । उपासना में हमें श्रद्धावान होना चाहिए साथ ही सेवा साधना की गरिमा के प्रति भी निष्ठा में त्रुटि नहीं आने देनी चाहिए।

मनुष्य की समग्र सुख शाँति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति का एकमात्र आधार अध्यात्म तत्व को माना गया है। जिसका व्यावहारिक स्वरूप, उत्कृष्ट, चिंतन एवं आदर्श कर्त्तव्य-सद्भाव एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन होता है। विचार क्रान्ति, ज्ञान, यज्ञ, भावनात्मक परिष्कार आदि नामों से इसी तत्वज्ञान की व्याख्या की जाती रही है- गायत्री और यज्ञ इसी आदर्श के प्रतीक प्रतिनिधि हैं। दृष्टिकोण से भरी हुई विकृतियाँ ही अगणित समस्याएं और विपत्तियां उत्पन्न करती हैं। परिष्कृत विवेकशीलता अपनाने पर समस्त संकटों का समाधान निकल सकता है अस्तु हमें पत्ते सींचने की अपेक्षा जड़ सींचने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए हमें सद्भाव संवर्धन एवं सत्प्रवृत्तियों के विकास को सर्वोपरि महत्व देना चाहिए। हमारा अंश दान इधर उधर बिखरने की अपेक्षा इसी मूल सिंचन पर केन्द्रित रहे तो ही अधिक श्रेयस्कर है। संपत्ति एवं सुविधा संवर्धन के प्रयास दूसरे लोग कर रहे हैं, हमें सद्भाव सम्पदा के उन्नयन में एकाग्र भाव से जुटे रहना चाहिए। हमारा अंशदान इस प्रयोजन के लिए लग सके तो एक महान लक्ष्य को पूरा कर सकने में यह परिवार अधिक सफल सिद्ध हो सकेगा।

“प्रतिदिन एक घण्टा समय और दस पैसा” ज्ञान यज्ञ के लिए देने और उसमें झोला पुस्तकालय चलाना जन सम्पर्क साधने और नवयुग की विचारधारा पढ़ाने सुनाने में इस अनुदान को लगाते रहने का अनुरोध हम चिर काल से करते रहे हैं। परिजनों से इसके लिए बार-बार अधिक आग्रह पूर्वक कहा है। उपेक्षा करने पर बुरा मनाया है कारण स्पष्ट है। हम उपासना को एक पक्ष और अंशदान को उसका पूरक दूसरा पक्ष मानते हैं इसलिए दोनों तथ्यों पर समान रूप से बल देते हैं। एकाँगी प्रयासों में असफलता ही हाथ लगती है। अस्तु हमें उपेक्षित पक्ष की वकालत इन पंक्तियों में अधिक जोर देकर करनी पड़ रही है और कहना पड़ रहा है कि ईश्वर भक्ति का रथ दोनों पहियों वाला होना चाहिए। हमारे प्रति व्यक्तिगत स्नेह सौजन्य प्रकट करना हो तो भी उसकी प्रामाणिकता हमारा अनुरोध आग्रह स्वीकार करने के रूप में यथार्थवादी होनी चाहिए।

जिस उत्साह से एक लाख परिजनों ने साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष की उपासना आरम्भ की है उसी श्रद्धा से अंशदान का उसमें प्राण संचार होना चाहिए। विदाई समारोह पर लोगों ने अपने-अपने यहाँ ‘ज्ञान घट’ स्थापित किये थे लगता है वह उत्साह पानी के बुलबुलों की तरह ठंडा पड़ गया। वे डिब्बे समझ गये और जहाँ-तहाँ छितरा दिये गये। प्रत्येक प्रतिमाएं टंगी रहें और भाव निष्ठा मर जाये तो यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। उपासना संलग्न और बिना उपासना वाले सभी परिजनों से इस बार पुनः आग्रह है कि अंशदान को आत्मोत्कर्ष साधना का एक अनिवार्य अंग मानें और उसके लिए नित्य तकाजा करने वाले ज्ञान घटों को पुनः स्थापित कर दें, इस बार उनकी स्थापना इतनी निष्ठा से करें कि वे फिर उपेक्षा अवज्ञा के गर्त में न गिर पड़े।

बसन्त पर्व से एक लाख उपासकों के व्रत धारणा आरम्भ हुए हैं और वे गायत्री जयन्ती को पूर्ण हो जायेंगे। ज्ञानघटों की स्थापना का पर्व गायत्री जयन्ती से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक पूर्ण हो जाना चाहिए। गायत्री जयन्ती 7 जून की और गुरु पूर्णिमा 11 जुलाई की। यह 35 दिन की अवधि इसके लिए रखी जानी चाहिए कि अखण्ड ज्योति के सभी परिजन अपने-अपने यहाँ अंशदान के प्रतीक ‘ज्ञानघट’ अपने यहाँ स्थापित कर लें और उनके प्रकाश में अपना एक घण्टा समय दान एवं दस पैसा अनुदान का क्रम अनवरत रूप से चलाते रहें। छपे हुए ज्ञान घट गायत्री तपोभूमि से मिल सकते हैं, पर उन्हें मंगाना कठिन हो तो बाजार से बच्चों की पैसा जमा करने वाली “गुल्लकें” खरीदी जा सकती हैं और उन पर ज्ञान घट लिखकर पूजा वेदी के निकट स्थापना की जा सकती है।

एक घण्टा समय नवयुग का सन्देश सुनाने के लिए जन सम्पर्क के लिए है। युग निर्माण साहित्य पढ़ाने एवं सुनाने के लिए अपने परिचय क्षेत्र में हर किसी को प्रयत्न करना चाहिए। चर्चायें एवं गोष्ठियों से भी यह प्रयोजन पूरा होता है। “एक से दस” का कार्यक्रम चलना ही चाहिए। परिजनों में प्रत्येक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वे अपने परिचय क्षेत्र में इस विचारधारा को व्यापक बनाने के लिए सम्पर्क साधते रहेंगे। प्रयत्न हर दिन समय निकालने का करना चाहिए यदि वह न बन पड़े तो सप्ताह में सात घण्टे-महीने में दस घण्टे तो किसी ने किसी प्रकार सुविधानुसार निकाल ही लेने चाहिए। इतना समय आगे पीछे करके ज्ञान यज्ञ के लिए लगाते ही रहना चाहिए।

अपने समय दान का-श्रमदान का यही सर्वोत्तम रूप है। यह तो न्यूनतम अनिवार्य पक्ष हुआ-इसके अतिरिक्त जिनके पास जितना अधिक समय हो वे अन्याय परमार्थ कार्यों में भी लगाते रह सकते हैं।

दस पैसा जमा करने की राशी पिछले दिनों सत्साहित्य खरीदते रहकर झोला पुस्तकालय की आवश्यकता पूरी करते रहने के लिए निर्धारित थी। पर अब उसका क्षेत्र बढ़ा दिया गया है। स्थानीय शाखा के माध्यम से सद्ज्ञान प्रसार के लिए आयोजित समारोह सम्मेलनों के लिए भी अब ये प्रयुक्त किया जा सकेगा। साहित्य जो कार्य करता है वही आयोजन सम्मेलनों से भी सम्भव हो जाता है। यह प्रयत्न संगठित रूप से हो तो और भी अच्छी तरह बन पड़ते हैं। अस्तु अब यह राशि एकत्रित कर स्थानीय समारोहों एवं प्रचार साधन खरीदने की आवश्यकता पूरी करने में प्रयुक्त की जा सकती है।

शाखा संगठन अनेक स्थानों पर बन गये हैं, पर वे साधनों के अभाव में निष्प्राण पड़े रहते हैं। इस स्थिति को समाप्त करने में ज्ञानघटों की अच्छी भूमिका हो सकती है। दो तीन प्रभावशाली व्यक्ति उठ खड़े हों, टोली बनाकर निकल पड़ें और साधना वर्ष को अंशदान आरम्भ करने का आग्रह स्थानीय परिजनों को समझायें तो बड़ी आसानी से 24 ज्ञान घट स्थापित करने में सफलता मिल सकती है। चौबीस अक्षर के गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर 24 ज्ञानघटों के रूप में साधना मन्दिर स्थापित होगा। साधना मण्डल इन दिनों स्थापित हो रहे हैं। उन्हें साधना मन्दिरों के रूप में विकसित एवं परिपुष्ट होना चाहिए।

दस पैसा प्रतिदिन से महीने में प्रायः तीन रुपये जमा होते हैं। 24 ज्ञानघटों से 70) के करीब की मासिक आय होती है। यह वर्ष में 840) के करीब हुई। कुछ लोग महीने में एक दिन को या न्यूनाधिक अनुदान भी दे सकते हैं। इसे 160) की अतिरिक्त आय मान लें तो अपने लोग ही वर्ष में एक हजार जमा कर सकते हैं। इतने भर से वर्ष में एक महिला सम्मेलन भली प्रकार होते रह सकते हैं और इतने से ही साप्ताहिक सत्संग-संस्कार, पर्व आयोजन एवं सप्ताह कथा आदि की व्यवस्था हर साल होती रह सकती है। कहना न होगा कि सम्मेलन आयोजनों का उत्साहवर्धक उपक्रम जहाँ भी चलता रहेगा वहाँ मिशन की जीवन्त हलचलें प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारक क्रिया-कलापों में निश्चित रूप से दृष्टिगोचर होती रह सकेंगी।

जहाँ एकाध परिजन ही हो वे अपने अंशदान को ‘एक से दस’ उद्देश्य की पूर्ति के लिए झोला पुस्तकालय चलाने तक सीमित रह सकते हैं। पर जहाँ संगठन है वहाँ संयुक्त प्रयास होना चाहिए। यह अंशदान साहित्य और सम्मेलन दो ही कार्यों में प्रयुक्त होना चाहिए। आयोजनों के अवसर पर सार्वजनिक चन्दा करके शाखा की प्रचार शक्ति बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर-स्लाइड प्रोजेक्टर-टेपरिकॉर्डर-आयोजन उपकरण आदि खरीदने में खर्च करने चाहिए। इमारतें बनाने की बात इतना सम्भव हो जाने के उपरान्त ही सोची जानी चाहिए। कई जगह संगठन प्रचार आदि की व्यवस्था बनाने से पहले ही भवन बनाने की उछाल लगाई जाने लगती है। विचारशीलता का तकाजा क्रमबद्ध प्रगति करने का है।

ऊपर की पंक्तियों में न्यूनतम की बात कही गई है और जो आरम्भिक चरण उपेक्षा के गर्त में गिरे पड़े रहे हैं उन्हें सुव्यवस्थित करने पर जोर दिया गया है। जहाँ जागरुकता, तत्परता एवं प्रगति पहले से ही विद्यमान हो वहाँ इससे आगे की बात चलनी चाहिए। कर्मठ कर्मयोगी को प्रतिदिन बीस घण्टे निजी कार्यों के लिए और चार घण्टे नित्य कार्यों के लिए देने चाहिए। ऐसे भावनाशील लोग 29 दिन की आमदनी में अपना निजी खर्च चला सकते हैं और एक दिन की आजीविका वही सरलता से लोक मंगल के लिए दे सकते हैं।

जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व जितने हलके हो चले उन्हें उसी अनुपात से वानप्रस्थ परम्परा के पुनर्जीवन के लिए अपना आदर्श प्रस्तुत करने के लिए आगे आना चाहिए। साधु और ब्राह्मण की पुण्य परम्परा का निर्वाह भावनाशील वानप्रस्थ ही कर सकते हैं। उन्हीं के भाव भरे अनुदानों से मनुष्य में देवत्व के उदय का और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार बन सकेगा। अखण्ड-ज्योति परिजनों में से प्रत्येक की महत्वाकाँक्षा और भावी योजना यह होनी चाहिए कि वह अपने शरीर और परिवार तक ही सीमित न रहकर वानप्रस्थ ग्रहण करके यथार्थवादी आध्यात्मिकता का परिचय लक्ष्य निर्धारित करे तो देर-सवेर में अवसर भी मिल ही जाता है।

धर्ममंच से लोक शिक्षण की पुण्य प्रक्रिया ऐसी है जिसके आधार पर भारतीय संस्कृति के महान अतीत को पुनः वापिस लाया जा सकता है। कभी इस देश के 33 करोड़ निवासी संसार भर में 33 कोटि देवताओं के नाम से प्रसिद्ध थे। यह भारत-भूमि “स्वर्गादपि गरीयसी” कही जा सकती थी। उस गरिमा की स्थापना में साधु-ब्राह्मणों ने अपना सर्वस्व होमा था, हममें से जिन भावनाशील आत्माओं के पास जितना अवकाश हो उन्हें उसमें से अधिकतम अनुदान जन-मानस के पुण्य प्रयास में संलग्न युग-निर्माण अभियान के लिए समर्पित करना चाहिए। काम कितने ही पड़े हैं। गतमास तीर्थयात्रा की धर्म परम्परा के पुनर्जीवित अभियान के लिए अनुरोध किया गया था। इसे इन गर्मियों की छुट्टियों में आसानी से चलाया जा सकता है। गाँव-गाँव पैदल या साइकिल यात्रा करके दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन तो इतना सरल है कि उसे स्कूली विद्यार्थी तक खेल खेल में कर सकते हैं। आवश्यकता उन प्रतिभाशाली लोगों की है जो समय देकर इस प्रकार के कार्यों को सुनियोजित कर सकें। युग की ऐसी यह आवश्यकतायें अंशदान में समय एवं चिन्तन देकर ही पूरी की जा सकती हैं।

धन से ही वे साधन जुटते हैं जो लोक मानस में धंसी विकृतियों को उलटकर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना कर सकें। व्यक्ति कितने ही लगनशील एवं सुयोग्य क्यों न हों पर साधन के बिना तो वे भी कुछ नहीं कर पाते हैं। गायत्री तपोभूमि और शाँति-कुंज आश्रमों के पास साधन जैसे-जैसे बढ़े हैं वैसे-वैसे ही वे अधिक परिमाण में अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ हुए हैं युग परिवर्तन का कार्य कितना बड़ा करने को शेष है उसे पर्वत के समान ऊंचा और समुद्र जैसा विस्तृत कहा जा सकता है। इसके लिए साधन चाहिए। इन्हीं के अभाव में वे कार्य पड़े हैं जो मानव जाति के भविष्य को उज्ज्वल बनाने की महान भूमिका सम्पादन कर सकते हैं। लोगों का ध्यान सुख-सुविधा के साधनों में बढ़ने लगा है। चिन्तन और चरित्र को परिष्कृत करने की बात किन्हीं विरलों की ही समझ में आती है। अस्तु मिशन को सफल बनाना हो तो युग लोलुप और दूसरे प्रकार के प्रत्यक्ष प्रतिफल चाहने वाले तथाकथित धनीमानियों के दरवाजे खटखटाने से भी कुछ नहीं बनेगा। इस अभाव की पूर्ति हम सबको अपनी रोटी में से कुछ दाने बचाकर पूर्ति करनी पड़ेगी। जिनके पास सम्पत्तिवान कहला सकने जितनी सम्पदा है उनसे कहना पड़ेगा कि उत्तराधिकार में वंशधरों को अमीर बनाने की बात सोचने की अपेक्षा यह अच्छा है कि मनुष्य के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उसका सराहनीय उपयोग कर लिया जाय।

इन समस्त सम्भावनाओं के मूल में ‘अंशदान’ की प्रवृत्ति का अभिवर्धन ही काम दे सकेगा। यदा-कदा आवेश उभार में कुछ दे गुजरना एक बात है और अंशदान को नित्यकर्म के अध्यात्म कर्तव्य का अविच्छिन्न अंग बनाकर चलना दूसरी। जोश बुलबुले की तरह उठता और झाग की तरह बैठ जाता है उसमें न स्थायित्व है न स्थिरता। महत्वपूर्ण काम आवेश में नहीं स्थिर संकल्प से बनते हैं। अस्तु दान पुण्य के अहंकार भरे और उचित अनुचित का विचार न करके पात्र-कुपात्र को कुछ भी दे गुजरने वाले उपक्रम से कुछ नहीं बनेगा। जीवन तो स्थिर संकल्प में होता है उसी विशेषता के कारण अंशदान का इतना अधिक महत्व है।

आस्तिकता को रोम-रोम में बसा देने वाली उपासना अपने को पवित्र एवं परिष्कृत बनाने की जीवन साधना के साथ-साथ उदार आत्मविस्तार का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करने वाली अंशदान प्रतिज्ञा का समावेश करना प्रत्येक अध्यात्मवादी का पुनीत कर्तव्य है। अखण्ड ज्योति परिजनों से इसी त्रिवेणी में स्नान करके परम पद प्राप्त करने का अनुरोध है। अंशदान की प्रवृत्ति को प्रखर बनाने और उसे इसी गायत्री जयन्ती से गुरुपूर्णिमा के बीच कार्यरूप में परिणत कर देने के आग्रह सहित यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं।

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