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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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मनुष्य तो मच्छर से भी हार गया

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First 18 20 Last
मनुष्य का यह दावा कि वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और अपने बुद्धि बल से बड़े शक्तिशाली जानवरों को भी काबू में कर सकता है, अब तक तो सच सिद्ध होता आया था। यह बात और है कि वह इस बात का दावेदार अपने अहंकार के कारण करता रहा हो। अन्यथा देखा जाये तो उसे मच्छरों से पच्चीस साल तक लड़ने के बाद अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह स्वीकारोक्ति व्यक्त की है कि यह कहना गलत है, हमने मलेरिया उन्मूलन अभियान में सफलता प्राप्त करली है क्योंकि पच्चीस साल तक इस दिशा में किये गये प्रयासों के बावजूद भी मलेरिया को समाप्त नहीं किया जा सका है।

अकेला मलेरिया ही वह रोग नहीं है जो मच्छरों के कारण होता है। मलेरिया के अतिरिक्त फिलेरिया, डेंगू, फीलपाँव और मस्तिष्क शौथ तथा पीला बुखार तो अलग ही है जिनके उन्मूलन हेतु उस प्रकार का कोई अभियानात्मक प्रयास नहीं चला। देखा जाय तो मनुष्य की तुलना में मच्छर का अस्तित्व नगण्य ही है। मुश्किल से एक मिली मीटर लम्बाई का उसका शरीर और उसका जीवन मात्र तीस दिन। जबकि एक सामान्य मनुष्य का कद साढ़े पाँच फीट होता है अर्थात् हजारों गुना ज्यादा और मनुष्य की आयु भी कई गुना ज्यादा।

मलेरिया किसी समय में बड़ा भयानक रोग रहा है। इसके कारण लाखों लोग अकाल काल कवलित हो चुके हैं। जैसे-जैसे विज्ञान ने प्रगति की और स्वास्थ्य चिकित्सा के क्षेत्र में भी उसका ज्ञान बढ़ने लगा पता चला कि मलेरिया का कारण एक विशेष प्रकार के मच्छर द्वारा काटने से होता है। सर रोनाल्ड रोस ने अपने अनुसंधानों द्वारा यह तथ्य खोज निकाला कि - एनोफिलीज जाति की मादा मच्छर के काटने से मलेरिया होता है। मलेरिया के रोगाणु मच्छरों द्वारा ही मनुष्य शरीर में प्रवेश पाते हैं। इन ‘मलेरियल पैरासाइट’ की उत्पत्ति भी ‘एनौफीलीज मच्छर के पेट में होती है और वे अपने जीवन चक्र का एक अध्याय एनौफीलीज के उदर में ही पूरा कर लेते हैं। सोते या जागते समय मनुष्य को जब एनौफीलीज मच्छर काटता है तो वह रक्त चूसते समय ही इस ‘पैरासाइट्स’ को शरीर में उगल देता है।

रोग के कारण और रोगाणुओं के जीवन चक्र का अध्ययन कर लेने के बाद उसके उपचार की भी खोज हुई और कुनैन इसकी अचूक औषधि सिद्ध हुई और मलेरिया ग्रस्त रोगियों को इसी औषध का सेवन कराया जाने लगा। आमतौर पर जैसा कि होता है एलोपैथिक दवायें रोग पर तो अपना आक्रमण करती ही हैं, रोग के साथ-साथ शरीर के अन्य आवश्यक तत्वों को भी अपनी खुराक बनाती हैं। कुनैन मनुष्य के स्वास्थ्य को अन्य प्रकार से क्षति पहुँचाने के साथ साथ मस्तिष्क के लिए भी कुप्रभावकारी सिद्ध हुई है। पर उसका प्रयोग जारी है।

मलेरिया उन्मूलन अभियान का एक अंग यह कार्यक्रम भी बनाया गया कि उन स्थानों पर जहाँ मच्छर पैदा होते हैं उनके अस्तित्व की सम्भावना को ही निर्मूल कर दिया जाय। मच्छर प्रायः अन्धेरे स्थानों या रुके हुए पानी के गड्ढों पर अण्डे देता है। उन्हें खत्म करने के लिए डी0डी0टी0 की शोध हुई। यह दवा सफल होने लगी और गाँव-गाँव में मकानों से लेकर गड्ढों तक इनका छिड़काव किया जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद व्यापक रूप से इस दवाई का सफलतापूर्वक उपयोग किया जाने लगा, पर कालान्तर में ही पता चला कि मच्छरों की एक ऐसी नस्ल का विकास होने लगा जिन पर डी0डी0टी0 का कोई प्रभाव नहीं होता है। अन्य कीटनाशक दवाओं का निर्माण भी किया गया। मैलेथियान, मैथिल पैरेथियान, एथिल पैरेथियान, फैनथियान जैसी कीटनाशी दवाओं का उपयोग होने लगा, पर सबका परिणाम वही हुआ। मच्छर उन्हें खाकर मर तो जाते थे, पर बहुत से बचे भी रहते और उन बचे हुए मच्छरों की जो सन्तानें होतीं वे फिर कीटनाशी दवाओं के प्रभाव से मुक्त ही रहती। उनमें इन कीटनाशक दवाओं की प्रतिरोधी शक्ति का जन्म हो गया।

जब यह उपाय असफल होने लगे तो पर्यावरण के परिशोधन की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया। रुके हुए पानी को तेजी से बहाने, अन्धेरे स्थानों पर सफाई करने और इसी प्रकार के परिवर्तन किये गये। पर मच्छरों ने भी जैसे हार न मानने की कसम खा रखी है। पाया गया कि मच्छरों ने गन्दे पानी में अण्डे देने की अपनी आदत को बदल लिया है और वे साफ पानी पर भी अण्डे देने लगी हैं। क्यूलेक्स तथा स्टिकेन्सी जाति के मच्छरों ने तो गन्दे पानी पर अण्डे देने के स्वभाव को जैसे भुला ही दिया है और धड़ल्ले के साथ साफ पानी, स्वच्छ स्थानों पर प्रजनन करने लगे हैं। कुछ मच्छर तो बहते हुए पानी पर भी अण्डे देते देखे गये हैं।

मलेरिया उन्मूलन अभियान में इस बात पर जोर दिया गया कि उन स्थानों पर रहना ही छोड़ दिया जाये जहाँ कि मच्छरों के आक्रमण की सम्भावना अधिक रहती है। लेकिन इस बात का पता लगते ही यह कार्यक्रम बदल दिया गया कि मच्छर नजदीकी लोगों को ही नहीं दूरस्थ लोगों को भी अपना शिकार बनाते हैं। इस सन्दर्भ में वैज्ञानिकों का मत है कि जंगल के घने अन्धेरे स्थानों पर रहते हुए भी उन्हें मनुष्य की बस्ती का आभास दूर से मिल जाता है। इसका कारण मनुष्य द्वारा श्वाँस-प्रश्वास क्रिया में उत्सर्जित कार्बनडाई-ऑक्साइड गैस है। कुछ मच्छर तो मनुष्य की उपस्थिति दो मील दूर से भी पता लगा लेते हैं। कारण उसके पसीने से निकलने वाली ‘एक्रीन’ और ‘एपोक्रीन’ गन्ध। सामान्यतः कुछ फीट दूर गुलाब के फूल की सुगन्ध भी मनुष्य नहीं पकड़ पाता। इस दृष्टि से मच्छर को आदमी से विशिष्ट शक्ति सम्पन्न ही कहना पड़ेगा और इतना ही नहीं मच्छरों में गजब की सामूहिक भावना भी देखी गई है। एक मच्छर को पता चलता है कि अमुक स्थान पर उसका पेय आहार उपलब्ध है तो वह परा ध्वनि संकेतों द्वारा अपने साथियों को भी आमन्त्रित कर लेता है।

मनुष्य ने मच्छरों को परास्त करने के लिए जैसे-जैसे नये उपाय खोजे, मच्छर भी उसी अनुसार अपना पैंतरा बदलने से नहीं चूके। यों प्रकट रूप में मलेरिया उन्मूलन की गतिविधियाँ पच्चीस-तीस वर्षों से देखने में आ रही हैं, पर इस दिशा में खोज लगभग सत्तर वर्ष से चली रही है। इतनी मोर्चाबन्दी के बावजूद भी मच्छर जैसे नगण्य कीड़े को काबू में न ला पाना मानव की हार नहीं तो क्या है? फिर मनुष्य किस अहंकार में अकड़ा घूमता है कि वह अजेय है।

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