
अन्तरंग प्रकाश का बहिरंग प्रभाव
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मस्तिष्क के एक भाग प्रकाश दर्शन को लें तो प्रतीत होगा कि वही नेत्रों की सहायता से उन चित्रों को बनाता है जिन्हें हम दृश्य रूप में अनुभव करते हैं। वस्तुतः पदार्थों से निकलने वाली किरणें हमारे नेत्र गोलकों से टकराती भर हैं। यही है भौतिक रूप से दृश्य की अटपटी स्थिति। यदि मस्तिष्क का ‘प्रकाश दर्शन’ केन्द्र ठीक से काम न करे तो मात्र आँखों की सहायता से जो दीख पड़ता है उसका कोई सही स्वरूप बन नहीं सकेगा और देखते हुए भी अनदेखे जैसी स्थिति बनी रहेगी।
अभी तक माना जाता था कि कोई वस्तु देखनी हो तो प्रकाश और आंखें दो ही वस्तुएँ आवश्यक हैं। प्रकाश जब आंखों की रेटिना से टकराता है तो आँखों का तन्त्रिका तन्त्र (ज्ञानकोप) एक विशेष प्रकार की रासायनिक क्रिया करके सारी सूचनायें मस्तिष्क को देता है। मन एक तीसरी वस्तु है; जो प्रकाश और आँखों के क्रियाकलाप को अनुभव करता है और नई तरह की योजनायें, आदेश, अनुभूतियाँ तैयार करके शरीर के दूसरे अवयवों में विभक्त करता है अर्थात् मानसिक चेतना न हो तो प्रकाश और आँखों के होते हुए भी देखना सम्भव नहीं।
भगवान का दिया हुआ एक ऐसा ही यन्त्र मनुष्य के पास भी है जिसे दृष्टिवर्धन के आद्यावधि आविष्कारों की सम्मिलित उपलब्धियों से भी अधिक समर्थ और व्यापक कहा जा सकता है। न इसे खरीदना पड़ता है और न संचालन की कोई बड़ी शिक्षा लेनी पड़ती है। भू मध्य भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र अपना तीसरा नेत्र आज्ञाचक्र है। इसे खोलने की साधना करने से वह अन्तर्ज्योति विकसित हो सकती है जिसके माध्यम से लोक लोकान्तरों की भू गर्भ की पंचभौतिक परिस्थितियों को देखा और समझा जा सके। इतना ही नहीं इस नेत्र में वह शक्ति भी है कि जीवित प्राणियों की मनःस्थिति, भावना, कल्पना, योजना, इच्छा, आस्था एवं प्रकृति को भी समझा जा सके। इस आज्ञाचक्र को विकसित करने की साधना हमें दृष्टि की प्रखरता और व्यापकता का अनुपम उपहार दे सकती है।
यों सामान्य नेत्र ही अपने आप में अद्भुत हैं। उनकी संरचना देखते हुए भी आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। फिर मस्तिष्क के वे संस्थान जिनमें प्रकाश दर्शन की रहस्यमय परतें सन्निहित हैं, का विवेचन अपने मोटे-झोटे शब्द ज्ञान और शरीर गठन प्रक्रिया की जानकारी के आधार पर कर ही कैसे सकते हैं।
संसार में अभी तक ऐसा फोटो कैमरा नहीं बना जो टैक्नीकलर, विस्ताविजन और थ्री डी0 के0 टेक्नोलॉजी युक्त हो। शत प्रतिशत साफ फोटो खींचता हो। जिसमें फोटोग्राफर की आवश्यकता न हो और फिल्म प्लेट आदि लगाने का झंझट न हो। ऐसा कैमरा बनना तो दूर किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में इस तरह की सम्भावना की कल्पना भी अभी तक नहीं आई है। यदि कोई सोचने भी लगे तो इन सारी सुविधाओं से सम्पन्न किसी विशालकाय यन्त्र की ही कल्पना की जा सकती है। इतने उपकरण होते हुए भी उसका साइज 1 इंच छोटा हो उसे तो सर्वथा असम्भव ही कहना चाहिए। यान्त्रिक जगत में ऐसा फोटो यन्त्र भले ही न बना हो भले ही उसकी सम्भावना अशक्त मानी जाय पर ऐसा कैमरा अपने पास मौजूद है और उसका उपयोग जन्म काल से ही हम लोग कर रहे हैं। यह जादू जैसा फोटो यन्त्र है। ‘नेत्र’
मस्तिष्क के अग्रभाग में जकड़े हुए दो नेत्र सभी को दीखते हैं, पर उनके मध्यवर्ती अन्तराल में जो तीसरा नेत्र है उसकी जानकारी योगीजनों को ही थोड़ी बहुत मात्रा में मिली है।
दोनों भौहों के मध्य भाग में जो बाल रहित खाली स्थान है उसे भृकुटी कहते हैं उसके नीचे अस्थि आवरण के उपरान्त एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि है। इसे ‘आज्ञाचक्र’ कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका, पर आत्मा विद्या के अन्वेषी उसके अति महत्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे तीसरा नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। दिव्य दृष्टि यहीं से निःसृत होती है।
प्रकाश की सहायता से हम वस्तुओं को देखते हैं। पर यह रहस्य किन्हीं-किन्हीं को ही विदित है कि हमारे भीतरी जीवाणुओं में भी प्रकाश विद्यमान है और उनसे निकलने वाली किरणें न केवल भीतर प्रकाश बनाये रहती हैं वरन् बाहर भी तेजस्विता का परिचय देती हैं। आँखों में अपना निज का प्रकाश है। आज्ञाचक्र का प्रकाश तो ऊर्जा रूप में भी विकसित हो सकता है और उससे टेलीविजन एवं संवाद प्रेषण जैसा कार्य भी लिया जा सकता है। इस ऊर्जा से अन्य व्यक्तियों अथवा वस्तुओं को भी प्रभावित किया जा सकता है।
प्रकाश किरणों को छवि रूप में पकड़ने की कला अब फोटोग्राफी टेलीविजन तक सीमित नहीं रही, अब वे आधार प्राप्त कर लिए गये हैं जिनसे तीन आयामों वाले त्रिविमीय चित्र देखे जा सकें। आमतौर से फोटोग्राफी लंबाई-चौड़ाई का बोध कराती है गहराई का तो उसमें आभास मात्र ही होता है। यदि गहराई को भी प्रतिबिम्बित किया जा सके तो फिर आँखों से देखे जाने वाले दृश्य और छाया अंकन में कोई भेद नहीं रहेगा। ऐसा दृश्य प्रचलन सम्भव हो सका तो फिल्में अपने वर्तमान अधूरे स्तर की फोटोग्राफी तक सीमित नहीं रहेंगी वरन् पर्दे पर रेल, मोटर, घोड़े मनुष्य आदि उसी तरह दौड़ते दिखाई पड़ेंगे मानो वो अपने यथार्थ स्वरूप में ही आँखों के आगे से गुजर रहे हैं। यदि सामने से अपनी ओर कोई रेल दौड़ती आ रही हो या शेर झपटता आ रहा हो तो बिल्कुल यह मालूम पड़ेगा कि वे अब अपने ऊपर ही चढ़ बैठने वाले हैं। ऐसी दशा में आरम्भिक अनभ्यास की स्थिति में सिनेमा दर्शक को भयभीत होकर अपनी सीट छोड़कर भागते ही बनेगा।
प्रकाश विज्ञानी एर्नेस्टएये और उनके सहयोगी शिष्य डी0 गैवर ने होलीग्राफ के एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया जिसके आधार पर- त्रिविमीय स्तर की छाया चित्रण आँखों से देखा जा सकेगा और भूत-कालीन दृश्यों को इन्हीं आँखों से इस प्रकार देखा जा सकेगा मानो वह घटना क्रम अभी-अभी ही बिलकुल सामने घटित हो रहा है।
भ्रूमध्य भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र को तृतीय नेत्र कहा जाता है। शिव और पार्वती के चित्रों में उनका एक पौराणिक तीसरा नेत्र भी दिखाया जाता है। कथा के अनुसार शंकर भगवान् ने इसी नेत्र को खोलकर उसमें से निकलने वाली अग्नि से कामदेव को भस्म किया था। यह दिव्य दृष्टि का केन्द्र है। इससे टेलीविजन जैसा कार्य किया जा सकता है। दूर-दर्शन का दिव्य यन्त्र यहीं लगा हुआ है। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी के माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये। चित्रलेखा द्वारा प्रद्युम्न प्रणय इस दिव्य दर्शन का ही परिणाम था।
सूक्ष्म और कारण शरीर की दिव्य दृष्टि की मर्यादा और क्षमता बहुत बड़ी-चढ़ी है। उसे समझने, विकसित करने और प्रयोग करने की क्षमता, योगाभ्यास से उपलब्ध होती है। पर स्थूल शरीर में भी यह शक्ति बहुत व्यापक है। आँखों से ही सब कुछ नहीं देखा जाता उसके अतिरिक्त अंगों में भी देखने समझने की क्षमता मौजूद है। मस्तिष्क, नेत्र गोलकों का फोटोग्राफी कैमरे जैसा प्रयोग करता है और पदार्थों के जो चित्र आँखों की पुतलियों के लेंस से खींचता है वे मस्तिष्क में जमा होते हैं। इनकी प्रतिक्रिया के आधार पर मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु जो निष्कर्ष निकालते हैं उसी का नाम ‘दर्शन’ है। आँख इस के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम हैं। मस्तिष्क के रूप दर्शन केन्द्र के साथ नेत्र गोलकों के ज्ञान तन्तुओं का सीधा और समीपवर्ती सम्बन्ध है इसलिए आमतौर से हम नेत्रों से ही देखने का काम लेते हैं और मस्तिष्क उन्हीं के आधार पर अपनी निरीक्षण क्रिया को गतिशील देखता है। पर ऐसा नहीं समझना चाहिये कि दृष्टि शक्ति केवल नेत्रों तक ही सीमित है। अन्य अंगों के मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञानतन्तुओं को विकसित करके भी मस्तिष्क बहुत हद तक उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। समस्त विश्व का हर पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत किरणें संजोये हुए है। वे कम्पन लहरियों के साथ इस निखिल विश्व में अपना प्रवाह फैलाती हैं। ईथर तत्व के द्वारा वे दूर-दूर तक जा पहुँचती हैं और यदि उन्हें ठीक तरह से पकड़ा जा सके तो जो दृश्य बहुत दूर पर अवस्थित हैं, जो घटनायें सुदूर क्षेत्रों में घटित हो रही हैं, उन्हें निकटवर्ती वस्तुओं की तरह देखा जा सकता है। इन दृश्यों को पकड़ने के लिए नेत्र उपयुक्त हैं। समीपवर्ती दृश्य वही दीखते हैं और दूरवर्ती दृश्य देखने के लिए तृतीय नेत्र को - भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञाचक्र को प्रयुक्त किया जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिये कि रूप तत्व का सम्बन्ध नेत्रों से ही है। अग्नि तत्व की प्रधानता से ‘रूप’ कम्पन उत्पन्न होते हैं। शरीर में अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व नेत्र करते हैं, पर ऐसा नहीं मानना चाहिये कि अग्नि तत्व शरीर के अन्य अंगों में नहीं है। समस्त शरीर पंच तत्वों के गुम्फन से बना है। यदि किसी अन्य अंग का अग्नि तत्व अनायास ही विकसित हो जायेगा या साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा विकसित कर लिया जाये तो नेत्रों की बहुत आवश्यकता उनके माध्यम से भी पूरी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के कार्य एक सीमा तक दूसरे अंग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये गये पवहारी बाबा प्रत्यक्षतः वायु ही ग्रहण करते थे, अन्न जल सेवन नहीं करते थे पर शरीर के अन्य अंगों द्वारा अदृश्य जगत से सूक्ष्म आहार बराबर मिलता रहता था। इसके बिना किसी के लिए भी जीवन धारण किये रहना असम्भव है।
इजवेस्तिया (रूस में छपने वाला समाचार पत्र) में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार निझनी तागिल (रूस) की रोजा नामक युवती पंक्तियों पर उंगली चलाकर मामूली प्रेस में छपी पुस्तकें पढ़ लेती हैं। कई समाचार पत्रों ने उसके प्रमाण सहित फोटो भी छापे हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुस्तकों में बने हुये किसी भी फोटो को उँगलियाँ रखकर ही वह बता देती है कि यह फोटो महात्मा गाँधी की है अथवा इब्राहिम लिंकन की है। यदि वह जानती नहीं होती तो आकृति का वर्णन कर देती हैं, इसके इतनी बड़ी मूंछें हैं, ऐसे कान और अमुक पोशाक पहने हुए फोटो उतारी गई है।
साँप चुपचाप पड़ा होता है और अपने इस अवयव से यह जान लेता है कि किस दिशा में कहाँ पर शिकार है, बस उधर ही झपटकर उसे पकड़ लेता है।
इसी तरह के तन्तुओं से चिड़ियों और कबूतरों के मस्तिष्क भी सजे होते हैं, जिससे वे हजारों मील की यात्रा का ज्ञान रिकार्ड करके रखते हैं। दस वर्ष बाद भी उसकी सहायता से वे अपने मूल निवास को लौट सकते हैं। मेंढक की आँख और मस्तिष्क के बीच में इस तरह के ज्ञान तन्तु होते हैं, उन्हीं से वह अपने दुश्मनों की आक्रमण करने की इच्छा तक को पहचान लेता है (यह मनुष्य के आज्ञाचक्र भ्रूमध्य में भी एक ऐसी ही संवेदनशील शक्ति के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है) और आक्रमण होने से प्रथम ही बच निकलता है।
इन जानकारियों के आधार पर वैज्ञानिकों ने रौजा की जाँच की। उन्होंने प्रकाश में से ‘इन्फ्रारेड किरणें निकाला हुआ प्रकाश और उसके साथ अक्षर एक कागज पर डाले तब भी रौजा ने उन्हें पढ़ दिया। बेशक वह इस स्थिति में आकृतियाँ नहीं पहचान पाई पर वैज्ञानिकों को यह मालूम पड़ गया कि आँखें ही नहीं, शरीर के अन्य अंगों में भी दृष्टि तत्व हो सकते हैं। रौजा के हाथों में प्रति एक मिलीमीटर ऐसे दस तत्व पाये भी गये वैज्ञानिकों ने बताया- यह असामान्य स्थिति है, हम कह नहीं सकते कि क्या शरीर में ऐसे तत्व और भी कहीं हैं या विकसित किये जा सकते हैं। हम इस बात को जानने की शोध अवश्य करेंगे कि प्रकाश को ग्रहण करने वाले तत्व उँगलियों में कैसे आ गये। यदि इस बात को ढूंढ़ निकाला गया तो ध्यान के रूप में प्रकाश कणों को आकर्षित करने और शरीर में अतीन्द्रिय ज्ञान (एक्ट्रा आर्डिनरी सेन्सपरएप्शन) की क्षमता उत्पन्न करने की भारतीय योग प्रणाली पूर्ण विज्ञान सम्मत हो जायेगी।
प्रो0 फोन्टान ने एक फ्राँसीसी नाविक का ऐसा ही उल्लेख किया है। वह अन्धा व्यक्ति उँगलियों से छूकर ऐसे विवरण बताता था जो साधारणतया आँखों के बिना नहीं बताये जा सकते। कनाडा की एक अन्धी लड़की हाथ की कुहनियों के माध्यम से ऐसा ही अदृश्य दर्शन कर सकने में समर्थ थी ऐसे प्रमाण मिले हैं।
फ्राँसीसी कवि जूल्स रोमेन्स की उन दिनों परोक्ष दृष्टि विज्ञान में बड़ी दिलचस्पी थी उसने अपने साहित्य में कार्यों के साथ साथ इस विषय में भी शोध की थी और बतलाया है कि त्वचा में अगणित “कीट नेत्र” विद्यमान हैं जो स्पर्श संवेदन के द्वारा निकटवर्ती वस्तु के बारे में निरन्तर जानकारी संग्रहीत करते रहते हैं। आँखों की तरह ये छोटे नेत्र वस्तुओं की आकृति भले ही स्पष्ट रूप से न जान सकें पर उनकी प्रकृति के सम्बन्ध में नेत्र गोलकों से भी अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।
प्रसिद्ध जादूगर गोगिया पाशा और प्रो0 सरकार नेत्रों से कड़ी पट्टी बँधवाकर घनी आबादी की भीड़ भरी सड़कों पर मोटर साइकिल दौड़ाने के अपने करतब दिखा चुके हैं। इस प्रदर्शन में आँखों से देखने की कोई गुँजाइश तो नहीं रही है। इसलिए पट्टी बाँधने से लेकर उसकी जाँच करने तक का काम ऐसे कार्यों की जानकारी रखने वाले प्रामाणिक लोगों को सौंपा गया था। उन लोगों की मोटर साइकिलें मोड़ और बचाव की सही व्यवस्था बनाती हुई निर्धारित लक्ष्य पर ठीक प्रकार जा पहुँची तो दर्शकों को यह विश्वास करना पड़ा कि बिना आँखों की सहायता के भी दूसरे माध्यमों से देखने का कार्य किया जा सकना सम्भव है। स्वामी माधवानन्द जी ने राजस्थान में जल रहित प्रदेशों में कई जगह अपनी दृष्टि से जल स्रोतों की जानकारी दी थी और वहाँ कुआँ खोदने पर सचमुच यथा स्थान पानी निकला।
भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देख सकने की विद्या को रेण्डोमेन्सी कहते हैं। इस विज्ञान की परिधि में जमीन में दबे खनिज, रसायन, जल, तेल आदि सभी वस्तुओं को जाना जा सकता है। किन्तु यदि केवल जल तलाश तक ही वह सीमित हो तो उसे ‘वाटर डाउनिंग’ कहेंगे।
आयरलैण्ड के विकलो पहाड़ी क्षेत्र में दूर-दूर तक कहीं पानी का नाम निशान नहीं था। जमीन कड़ी, पथरीली थी। प्रो0 वेनेट ने खदान विशेषज्ञों के सामने अपना प्रयोग किया वे कई घन्टे उस क्षेत्र में घूमें, अन्ततः वे एक स्थान पर रुके और कहा - केवल 14 फुट गहराई पर यहाँ एक अच्छा जल स्रोत है। खुदाई आरम्भ हुई और पूर्व कथन बिलकुल सच निकला। 15 फुट जमीन खोदने पर पानी की एक जोरदार धारा वहाँ से उबल पड़ी।
अपने भीतर की प्रकाश सत्ता को यदि योगाभ्यास द्वारा विकसित किया जा सके तो उससे बाहरी पदार्थों को बिना आँखों के भी देखा जा सकता है। बल्ब अपने आप में प्रकाशित होता है तो उसके प्रकाश में अन्य वस्तुयें भी दिखाई पड़ती हैं। आकाश में जगमगाते तारे भी रात्रि के सघन अन्धकार को कम करते हैं और ऐसी स्थिति बनाये रहते हैं कि आसपास की चीजों को किसी सीमा तक देखा जा सके। हमारे आन्तरिक प्रकाश कण यदि कुछ अधिक जगमगाने लगें तो संसार में अन्यत्र घटित हो रही घटनाओं को देखा समझा जा सकता है। संजय ने धृतराष्ट्र को अपनी इसी विशेषता के कारण राजमहल में बैठकर - महाभारत का आँखों देखा घटनाक्रम सुनाया था। भौतिक विज्ञान में टेलीविजन प्रक्रिया के अनुसार अन्यत्र का घटनाक्रम किसी अन्य स्थान पर यथावत देखा जा सकता है। यह छविमान प्रकाश किरणों का छवि रूप में परिवर्तन करने और उनका यथावत अनुभव करना ही है। टेलीविजन से भी अधिक महत्वपूर्ण यंत्र हमारे आशाचक्र में मौजूद हैं और उनके सहारे वह सब कुछ देखा जा सकता है जो कहीं भी घटित हो रहा हो अथवा घटित हो चुका है। इस शक्ति को अधिक विकसित कर लेने पर भविष्य की झाँकी भी इसी प्रकार मिल सकती है जिस तरह कि यन्त्रों द्वारा निकट भविष्य में आँधी तूफान आने या मौसम बदलने सम्बन्धी जानकारी मिलती है।
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