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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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पूर्व मान्यताओं के प्रति दुराग्रह उचित नहीं

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यह संसार क्या है ? किन पदार्थों से बना है ? उनके गुण, धर्म क्या हैं? आदि प्रश्नों का ऊहापोह विचार शक्ति के विकास क्रम के साथ ही होता चला आया है। इनका दार्शनिक प्रतिपादन कई प्रकार से होता है।

वेदान्त दर्शन ने सचेतन परब्रह्म को इस संसार का एकमात्र तत्व माना है। फ्राँसीसी दार्शनिक वेर्गसाँ ने विश्व को चेतन और अचेतन से ऊपर माना है। साँख्यकार ने उसे प्रकृति पुरुष के- जड़ और चेतन के- दो भागों में विभक्त किया है। योरोप का प्रख्यात दार्शनिक लाक भी भारतीय त्रैतवादियों की तरह ईश्वर, जीव और प्रकृति के तीन आधार मानता रहा है। चार्वाक और यूनानी दार्शनिक एम्पेदीकाल ने चार तत्व माने हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु। अन्य भारतीयों के दर्शनों ने इनमें एक आकाश को और जोड़कर पाँच कर दिये। पंचभूत की मान्यता हम सब की जुबान पर चढ़ी रहती है। इस्लामी दार्शनिक अजीजद्दीन राजी ने भी तत्वों की संख्या, तो पाँच ही मानी है, पर वे हैं भिन्न- ईश्वर, जीव, प्रकृति, दिशा और काल। जैन दर्शन ने छह तत्व माने हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश। वैशेषिक उन्हें नौ मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के अतिरिक्त उसने काल, दिशा, आत्मा और मन को भी तत्व में गिना है।

प्राचीन काल में इन मान्यताओं का अपने-अपने समय और क्षेत्र में जोर-शोर से प्रतिपादन होता रहा है। उन पर विवाद, शास्त्रार्थ और खण्डन-मंडन भी होते रहे हैं। उनके भेद-उपभेद और सम्प्रदाय-उप सम्प्रदाय बनते रहे हैं। पर प्रगति क्रम पर बढ़ते हुए हमें जानकारियाँ एवं मान्यताएं भी बदलने के लिए विवश होना पड़ा है। विवेचन और विश्लेषण ने पिछली दार्शनिक पृष्ठभूमि में ऐसे परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं जिन्हें मानने में भारी असमंजस होता है, पर किया क्या जाय, प्रस्तुत प्रत्यक्ष प्रमाणों के साथ जुड़े हुए तर्कों और प्रतिपादनों को अस्वीकार भी तो नहीं किया जा सकता है।

अब पंच तत्वों को ‘तत्व’ नहीं माना जाता, वे मूल तत्वों की अवस्था मात्र रह गये हैं। प्रत्येक पदार्थ ठोस, तरल एवं भाप के रूपों में बदला जा सकता है। अस्तु आकार को देखकर जो मान्यताएं स्थापित की गयी थीं वे अब परीक्षा की कसौटी पर गलत ठहरा दी गई हैं। ठोस धातुएं तक अत्यधिक तपाये जाने पर भाप बनकर आकाश में उड़ जाती हैं और अपना मूल स्वरूप समाप्त कर देती हैं, अग्नि आप में कोई वस्तु नहीं वह परमाणुओं के तीव्र गति से भ्रमण करने की प्रतिक्रिया भर है। पानी ऑक्सीजन और हाइड्रोजन नामक दो गैसों का सम्मिश्रण भर है। गैसें अपने आप में कुछ रासायनिक एवं आणविक तत्वों के मिलने से बनती हैं। इस प्रकार अब पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु कोई मूल तत्व नहीं रह गये हैं।

अब विश्व की मूल सत्ता ‘एनर्जी’ मानी गई है। इसके दो भाग- एक ऋण दूसरा धन। ऋण शक्ति और धन शक्ति प्रोटीन कही जाती है। प्रोटोन बड़ा और इलेक्ट्रॉन छोटा होता है । परमाणु इन्हीं दोनों के मिलने से बने हैं। किन्तु वे भी ठोस नहीं है। उनके बीच में बहुत सी पोल है। उस आकाश के मध्य एक नाभिक रहता है। जिनकी तुलना अपने सूर्य से कर सकते हैं। सौरमंडल में कई ग्रह हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं। ठीक उसी प्रकार ‘नाभिक’ में प्रोटोन होते हैं और उसके इर्द गिर्द इलेक्ट्रॉन परिक्रमा करते हैं। प्रत्येक परमाणु अपने आप में एक पूरा सौरमण्डल है। प्रत्येक परमाणु में इलेक्ट्रॉनों की संख्या अलग-अलग होती है और उनके भ्रमण करने की कक्षा में अन्तर पाया जाता है। इसी भिन्नता के कारण जो भिन्न-भिन्न तत्व उत्पन्न होते हैं वे ही सृष्टि के बिखरे हुए पदार्थों के मूलभूत आधार होते हैं। साधारणतया परमाणु की सत्ता अभेद्य मानी जाती थी और उसमें दूसरा कोई परमाणु प्रवेश नहीं कर सकता ऐसा कहा जाता था, पर कुछ समय पूर्व परमाणु विस्फोट की विधि ढूँढ़ निकाली गई और उसे भी विकेन्द्रित कर दिया गया है। ऐसी दशा में परमाणु सत्ता भी पंच तत्वों की तरह ही शाश्वत नहीं रह गई है। तो भी जहाँ तक तत्वों को आधुनिक मान्यता है वह परमाणुओं की स्थिति भिन्नता के आधार पर ही मानी जाती है। यह मान्यता भविष्य में कब तक स्वीकार करने योग्य बनी रहेगी यह नहीं कहा जा सकता।

पिछले दिनों इन तत्वों की संख्या 92 थी अब एक-एक करके नई खोजों के कारण उसमें और वृद्धि होती चली जा रही है। अणु तोल लिया गया है तथा वह कितनी गर्मी पर पिघलता है यह भी जान लिया गया है। तथा कितने ताप पर भाप में बनकर उड़ जाता है यह भी पता चला लिया गया है। भार द्रवाँक, क्वथनाँक भी अणु विश्लेषण के साथ जाने जा सकते हैं। हाइड्रोजन, हीलियम, लिथियम, वेसीलियम आदि इनके नाम हैं। इनमें सबसे भारी यूरेनियम और सबसे हल्का हाइड्रोजन है।

एनर्जी का प्रत्यक्ष स्वरूप गर्मी है। गर्मी नापने के दो तरीके हैं- फारेनहाइट और सेन्टीग्रेड। शरीर की गर्मी नापने में फारेनहाइट और वस्तुओं का लेखा-जोखा लेने में सेन्टीग्रेड काम में आता है। सेन्टीग्रेड में बर्फ जमने की स्थिति को शून्य मानकर चलते हैं और पानी उबलने के ताप को 100 अंश कहते हैं। फारेनहाइट पद्धति के अनुसार 32 डिग्री पर बर्फ जमता है और 212 पर पानी उबलता है। दूसरे शब्दों में 100 सेन्टीग्रेड को 180 डिग्री फारेनहाइट मान सकते हैं। यों मोटे तौर पर गर्मी का आरम्भ बर्फ जमाने वाली स्थिति से होता है, पर वस्तुस्थिति इससे भी आगे है। बर्फ भी पूर्णतया ताप रहित नहीं है। उससे भी ठण्डी दूसरी चीज है। लिक्विड एयर, तरल वायु-इतनी ठण्डी होती है कि उसकी तुलना में बर्फ भी आग की तरह गरम है। गर्मी का पूरा अभाव 273 सेन्टीग्रेड शीत की दिशा में नीचे उतर जाने पर आता है। परमाणुओं की गर्मी नापने में इसी आत्यन्तिक शीत बिन्दु को अंक मानकर चला जाता है। उतना शीत आने पर परमाणु का भ्रमण रुक जाता है और वह स्थिर बनकर खड़ा हो जाता है।

यह आधुनिक मान्यतायें उन पुरानी मान्यताओं को झुठलाती हैं जो किसी समय अकाट्य समझी जाती थीं। इसमें गर्व करने की कोई बात नहीं कि हम ज्ञान क्षेत्र में पूर्वजों से आगे हैं। क्रमिक विकास की गति अपने रास्ते, अपने ढंग से चलती ही रहेगी। कुछ समय उपरान्त अपना समय भी दकियानूसों और अनाड़ियों का युग समझा जा सकता है। तब नई खोजें, नई मान्यताओं और नये साधनों को सामने ला सकती है। इस प्रवाह में किसी काल या तथ्य से बंधकर नहीं रहा जा सकता। हम पूर्ण सत्य की खोज में अपने साधनों से चल रहे हैं। बहुत कुछ चल चुके और बहुत कुछ चलना बाकी है। यहाँ दुराग्रह की गुँजाइश नहीं है। किसी मान्यता को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर नहीं चला जा सकता पूर्वजों की मान्यताएं ही शाश्वत थीं- वे जो सोचते थे वही सनातन था ऐसा आग्रह नहीं होना चाहिए। हमारी आज की मान्यताएं भी शाश्वत कहाँ हैं- उसमें कल परिवर्तन हो सकते हैं इसलिए पूर्ण सत्य का दावा करना तो सर्वथा निरर्थक है। अधिक वास्तविकता जानने के लिए, हमारा मस्तिष्क सदा खुला रहना चाहिए। आग्रह तो प्रगति के आधार को ही नष्ट करके रख देता है।

यों प्रत्येक परमाणु की सत्ता स्वतन्त्र है फिर भी ये सजातीय और विजातीय आकर्षणों से खिंचकर अणु गुच्छ बन जाते हैं। उन्हीं के कारण आँखों से दीख पड़ने वाले विविध पदार्थ बनते हैं। इस मिलन की ऐसी विचित्र प्रतिक्रियाएं भी होती हैं जिनसे मिलकर वे बने हैं। जैसे ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दोनों ही जल उठने वाले तत्व हैं, पर उनके मिश्रण से पानी बनता है जो जलना तो दूर उलटे आग को बुझाने के काम आता है। क्लोरीन एक विषैली गैस है, पर सोडियम के साथ मिलकर वह नमक बन जाती है जिसे हम रोज ही खाते हैं।

जब आग के गोले की स्थिति से आगे चलकर पृथ्वी ठण्डी हुई तो फैले हुए हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के परमाणु मिलकर जलाणु बने और बादल बरसने लगे। धरती समतल नहीं थी। गर्म से ठंडी होने के चक्र में उसमें विस्फोट होते रहे और कहीं छह मील तक गहरे समुद्र और कहीं साढ़े पाँच मील तक ऊंचे पहाड़ बन गये। जहाँ खड्ड थे वहाँ वर्षा का पानी भरता गया। आरम्भ में समुद्र खारी नहीं था। पर जब नदियाँ धरती का नमक अपने में घुलाकर समुद्र तक पहुँचाने लगीं तो वह क्रमशः अधिकाधिक खारी होता चला गया। समुद्र से बादल उठते हैं वे नमक साथ लेकर नहीं जाते इसलिये उसका खारी पानी कम होने का कोई रास्ता नहीं उलटे नदियों द्वारा जो 6224 घन मील पानी हर साल समुद्र में पहुँचता है वह ढेरों नया नमक और उसमें बढ़ा देता है इस तरह उसका खारापन बढ़ता ही जा रहा है।

पानी की ऐसी अनेक विशेषताएं हैं- जो अन्य पदार्थों में नहीं होती। सब चीजें ठंडी होने पर सिकुड़ती हैं और भारी हो जाती हैं, पर बर्फ उलटे हल्की हो जाती है और हिम पर्वत समुद्र में भली प्रकार तैरते रहते हैं। हवा में भी पानी घुला रहता है और प्रत्येक पदार्थ में न्यूनाधिक मात्रा में उसकी उपस्थिति पायी जाती है। प्राणियों के शरीर तो एक प्रकार से जल बहुल ही कहे जा सकते हैं। 45 से 80 प्रतिशत तक जलीय अंश उनमें रहता है। वनस्पतियों तथा शाक, फलों में उसका अनुपात 60 से 95 प्रतिशत तक पाया जाता है। इसलिये जीवधारियों के लिए भोजन में भी अधिक जल की आवश्यकता रहती है।

हवा अपनी पृथ्वी की बहुमूल्य सम्पदा है तो भी वह तत्व नहीं है। वह जमीन से लेकर 500 मील की ऊंचाई तक फैली हुई है। सूर्य की गर्मी को सीमित मात्रा में आने देने में उसी की भूमिका है। अन्तरिक्ष में भ्रमण करने वाली उल्काओं को वही जलाकर खाक करती है अन्यथा चन्द्रमा की तरह धरती पर भी आये दिन उन पत्थरों की बौछार होती रहती और निरन्तर बड़े-बड़े खड्ड बनते रहते।

अनेक तत्वों के मिलने से हवा बनती है। नाइट्रोजन 78 प्रतिशत ऑक्सीजन 21 प्रतिशत तथा थोड़ी-थोड़ी मात्रा में आर्गन, हीलियम, कार्बनडाई ऑक्साइड, क्रिप्टन, जीवन आदि के अंश मिले हुए हैं। हवा में पानी का अंश तथा धूलि कण भी मिले रहते हैं। एक इंच स्थान में 5 हजार से लेकर 40 हजार तक धूलि कण पाये जाते हैं इन्हीं की वजह से आकाश नीला दीखता है। यदि वे न होते तो चन्द्रमा तल की भाँति भूतल से भी आसमान काला दीखता। धूलि कणों के अतिरिक्त उसमें कीटाणु भी उड़ते रहते हैं। हवा का वजन भी है। साधारणतया एक वर्ग इंच जगह में हवा का वजन सोलह पौंड होता है। इस तरह हमारे शरीर पर हवा का बोझ लदा रहता है। उसे उठाये रहना शरीर के भीतर वाली हवा के कारण ही सम्भव होता है। जितना ही ऊपर उठते हैं उतनी ही हवा हलकी होती जाती है। संसार भर में जितना पानी है उससे हवा का वजन 1270 गुना अधिक है। पृथ्वी के कुल बोझ से हवा का बोझ 1270 गुना अधिक है।

भूतल पर नाइट्रोजन की मात्रा ऑक्सीजन की तुलना में चार गुनी है। ऊंचे चलने पर क्रमशः नाइट्रोजन बढ़ती और ऑक्सीजन घटती जाती है। 70 मील ऊंचाई तक पहुँचते-पहुँचते यह दोनों ही समाप्त हो जाती हैं और मात्र हाइड्रोजन बन जाता है। जमीन पर फैले बादल कुहरा कहलाते हैं। बिजली कड़काने वाले बादल सिर्फ 1 मील तक पाये जाते हैं। इसके बाद भी बादल होते हैं पर बहुत पतले। चार मील ऊपर जाने पर आँधी तूफान कुछ नहीं दीखते। इतनी सब विशेषताओं के रहते हुए भी हवा एक सम्मिश्रण मात्र है उसे तत्व नहीं कह सकते ।

अग्नि, जल, वायु और आकाश की चर्चा ऊपर हो चुकी है और यह बताया जा चुका है कि इनमें से एक भी पदार्थ उस स्तर का नहीं है जिसे ‘तत्व’ कहा जा सके। वे सभी तत्वों का मिश्रण एवं हलचलों का प्रतिफल हैं। पृथ्वी के बारे में यह बात और भी अधिक स्पष्ट है। मिट्टी का मोटा विश्लेषण करने पर उसमें ऑक्सीजन 49 प्रतिशत, सिलिकन 26 प्रतिशत, एल्युमिनियम 7, लोहा 4, कैल्शियम 3, सोडियम 2, पोटेशियम 2, मैग्नेशियम 2, हाइड्रोजन 1 तथा टाइटेनियम, क्लोरीन, कार्बन आदि 80 तत्व उसमें और भी मिले हुए हैं। कहीं की मिट्टी में किन्हीं पदार्थों की और कहीं किन्हीं की न्यूनाधिकता रहती है, पर समस्त पृथ्वी का मिला-जुला अनुपात प्रायः इसी स्तर का है। इन सम्मिश्रणों को देखते हुए पृथ्वी को भी तत्व कैसे कहा जा सकता है ?

हम बढ़ रहे हैं साथ ही बदल भी रहे हैं यह एक सुनिश्चित और ऐसा तथ्य है जो सभी को प्रभावित करता है। बच्चा छोटा है, किशोर बनता है, फिर युवक, फिर अधेड़ फिर वयोवृद्ध और अन्ततः वह पके फल की तरह डाली से टूटकर बीज बन जाता है और नये पौधे की तरह नया जन्म धारण करता है। चौरासी लाख योनियों का क्रम पूरा करते हुए प्राणी मनुष्य योनि में आता है और फिर क्रमशः महात्मा, देवात्मा, विश्वात्मा, परमात्मा की दिशा में बढ़ते-बढ़ते अपूर्णता से पीछा छुड़ाता हुआ पूर्णता का परम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। यह प्रगति यात्रा अनवरत गति से चल रही है। प्राणी इसी प्रवाह में अमीबा जैसे एक कोषीय पूर्वजों से बढ़ते विकसित होते होते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। जल पदार्थों के भी विकास क्रम का इतिहास भी इसी प्रकार बनता बढ़ता चला आया है।

विचारों और मान्यताओं के बारे में यही बात है। सामाजिक परम्पराओं में भी इसी नियम का निर्वाह होता आया है। समय-समय पर स्मृतियाँ बदली हैं, दर्शन शास्त्र में परिवर्तन हुए हैं और प्रथा परम्पराओं में सुधार होता चला आया है। पूर्व मान्यताओं को तत्कालीन स्थिति के अनुरूप समझकर उनका समुचित आदर किया जा सकता है, पर यह नहीं मानना चाहिए कि भूतकाल में जो कहा, किया या माना जाता था वही शाश्वत सत्य है और उसमें परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। पंच तत्वों के सम्बन्ध में भूतकालीन मान्यता तक में जब परिवर्तन करना पड़ रहा है तो फिर अन्यान्य मान्यताओं के सम्बन्ध में भी दुराग्रह नहीं बरता जाना चाहिए।

हम विवेक को प्रधान मानकर चलें। सत्य की शोध का अपने आपको एक विनम्र विद्यार्थी मानें। तर्क और प्रमाण का आश्रम लें। विवेक एवं औचित्य की कसौटी पर वस्तुस्थिति को परखें और जो न्याय युक्त, प्रामाणिक एवं तथ्य पूर्ण दिखाई पड़े उसी को स्वीकार करें। इसी राह पर चलते हुए तथ्य और सत्य तक पहुँचने का लक्ष्य अधिक सुगमता से प्राप्त किया जा सकता है। परम्पराओं के प्रति दुराग्रह बरतने से तो प्रगति पथ में व्यवधान ही उपस्थित होता है।

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