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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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महत्वाकाँक्षा बनाम महानतानुराग

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First 17 19 Last
एच॰ जी0 वेल्से ने लिखा है - “महान व्यक्तित्वों की प्रतिभा उनकी महत्वाकाँक्षाओं की खाई में गिरकर नष्ट होती रहे, इसे मानव जाति का दुखद दुर्भाग्य ही कहना चाहिये।

प्रतिभाएँ सदा ही उत्पन्न होती रहती हैं। सामान्य स्तर से कुछ ऊँचे स्तर वाले लोगों की कभी कमी नहीं रही, इस उद्यान में एक से एक सुन्दर और सुरभित फूल सदा ही उगते रहते हैं। प्रकृति ने इस प्रकार के उत्पादन में कभी कृपणता नहीं बरती। यदि यह उत्पादन उपयोगी प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त हो सका तो उनके स्वयं के लिए भी और समस्त संसार के लिए भी यह एक बड़ी सुन्दर और सुखद बात होती।

किन्तु इस विधि विडम्बना को क्या कहा जाय, जिसके अनुसार यह सुखद उत्पादन नरक जैसी सड़ांद में गिरकर न केवल नष्ट ही होता रहता है वरन् सड़न बढ़ने से संसार के वातावरण को और भी अधिक विषाक्त करता रहता है।

जिस दुर्घटना के कारण प्रतिभाएँ भ्रष्ट और नष्ट होती हैं वह है महत्वाकाँक्षा। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति ही एक से एक बढ़कर उद्धत कर्म करते हैं और उनकी प्रतिक्रिया से सारा वातावरण विषाक्त बनता है। महत्वाकाँक्षा से मतलब है- व्यक्तिगत सुविधा साधनों का असीम अभिवर्धन करने की ललक और दूसरों पर अपने वर्चस्व की छाप छोड़ने की अहंमन्यता। बड़प्पन की आकाँक्षा बुरी नहीं है, पर जब वह संकीर्ण स्वार्थ परता की परिधि में घिरी रहती है तो उसकी तृप्ति वैभव और विलास के अधिकाधिक साधन संचय करने में ही दिखती है। तब उसे अधिक सम्पत्तिवान बनने की बात ही सूझती है। इसमें लाभ भी दिखता है। उपभोग के प्रचुर साधन मिलने तो प्रत्यक्ष ही हैं। दूसरा लाभ यह भी है कि अपनी सफलताओं से दूसरों को चमत्कृत करके उन पर प्रतिभावान एवं भाग्यवान होने की छाप भी छोड़ी जा सकती है। इससे अपनी अहंमन्यता की एक हद तक पूर्ति होती है।

महत्वाकाँक्षाएँ सीमित नहीं रह सकतीं। ईंधन प्राप्त होते रहने पर फैलने वाली आग की तरह उनकी लपटें फैलती भी हैं और ऊँची भी उठती हैं। अर्थात् अधिक साधन माँगती हैं और अधिक शीघ्रता चाहती हैं। यह असन्तोष क्रमशः प्रचण्ड होता जाता है और स्थिति अधीरता एवं आतुरता के समकक्ष बनती जाती है। जितनी जल्दी - जितनी सम्पन्नता मिल सकती है इसके लिए मन क्षेत्र में समुद्र मन्थन जैसा खड़ा हो जाता है। ललक आँधी-तूफान का रूप धारण कर लेती है। फलतः मर्यादाओं के औचित्य के - सारे बाँध टूट जाते हैं और यह नीति अपनानी पड़ती है कि जैसे बने वैसे अपना वैभव एवं वर्चस्व बढ़ाने में सारी शक्ति झोंक दी जाये।

मनुष्य की इच्छा शक्ति संसार की सर्वोपरि सामर्थ्य है वह जिधर भी गतिशील होती है उधर ही साधन जुटाती और सफलता पाती है। वैभव सम्पादन भी इसका अपवाद नहीं है। फिर जब नीति अनीति के बन्धन तोड़ दिये गये हों तो सफलता और भी अधिक सरल है। आज के वातावरण में राजदण्ड और समाज दण्ड से बच निकलना - अपराध निरोधक तत्वों को चूना लगाना बहुत ही सरल है। इस कला कौशल को कोई भी चतुर आदमी अपने पड़ोसियों से कानों-कान सीख लेता है और अधिक जल्दी- अधिक मात्रा में वैभव इकट्ठा करने का रास्ता तेजी से पार करने लगता है। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति यदि सनकी अव्यावहारिक हो तब तो बात दूसरी है अन्यथा वह अपनी चाही दिशा में बहुत आगे तक बढ़ता चला जाता है।

महत्वाकाँक्षाएँ चूँकि नितान्त व्यक्तिगत होती हैं इसलिए उपलब्धियों का उपयोग भी वे उसी क्षेत्र में करने देती हैं। इन्द्रिय भोग, उद्धत प्रदर्शन एवं प्रचुर संग्रह यह तीन ही लक्ष्य सामने रहते हैं। दान-पुण्य कभी करने को जो आया तो उसका उद्देश्य भी मात्र भौतिक प्रतिदान एवं यश विस्तार भर रहता है। देवी देवताओं की पूजा-पत्री में प्रतिदान का प्रलोभन और प्याऊ धर्मशाला बनवाने आदि में यश लिप्सा के अतिरिक्त और कोई उद्देश्य नहीं रहता। परमार्थ का कीड़ा कुलबुलाया तो उसी परिधि में रेंग राँग कर ठण्डा हो जाता है।

संकल्प शक्ति पुरुषार्थ के लिए सहज ही प्रेरित करती है। इसलिए उनकी उपयोगिता सर्वत्र मानी गई है। इसकी सदा-सर्वदा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। उसमें उत्कर्ष एवं उत्पादन के तत्व प्रचुर परिमाण में भरे पड़े हैं। इस लिए उसकी महत्ता से कभी किसी ने इन्कार नहीं किया है। गड़बड़ तब मचती है जब वह व्यक्तिगत स्वार्थ साधन के संकीर्ण क्षेत्र में सीमाबद्ध होकर बैठ जाती है। तब अधिक धन- अधिक धन- अधिक धन की रट लगाती है। आवश्यकता है या नहीं- है तो कितनी, किस काम के लिए यह प्रश्न उठते ही नहीं। शराबी और चाहिए- और चाहिए की रट लगाकर एक के बाद दूसरा जाम पीता जाता है और अधिक मदहोश होता जाता है। यही हालत महत्वाकाँक्षी व्यक्तियों की होती है, वे धन संग्रह के साथ-साथ अहंकार का उद्धत प्रदर्शन करने वाले अपव्ययी ठाठ-बाठ रोपते हैं। इससे तत्काल कुछ प्रसन्नता भी होती है और तृप्ति जैसी भी मिलती है। अपनों की सीमा में दो ही प्राणी आते हैं एक स्त्री दूसरा पुत्र। उनको भी अपनी ही तरह ‘सुखी’ अर्थात् साधन सम्पन्न बनाने की बात मन में रहती है। विवशता है। व्यक्ति उतने उपार्जन को अकेला तो उपभोग भी नहीं कर सकता। उसे किसी को तो देना ही पड़ेगा। ‘किसी’ की परिधि में अपने ही आते हैं और अपने स्त्री एवं पुत्र के अतिरिक्त कोई तीसरा पक्ष भी हो सकता है यह ‘भीतर वाला’ स्वीकार ही नहीं करता। यह भीतर वाला और कोई नहीं संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा जकड़ा निकृष्ट अन्तस् ही है। वह पूर्णतया स्वगत होता है। स्त्री पुत्र की बात तो उसे अत्यन्त विवश होकर भारी मन से सोचनी पड़ती है। यदि किसी को भी अपनी सम्पदा में साझीदार बनाये बिना उसकी सुरक्षा हो सकी होती, उपभोग बन पड़ा होता तो सम्भवतः यह महत्वाकाँक्षी व्यक्ति उन्हें भी लाभान्वित होने में साझीदार न बनाते। होता भी ऐसा ही है कृपण लोग उत्तराधिकारियों के लिए धन तो छोड़ते हैं पर उन्हें स्वास्थ्य एवं शिक्षा ज्ञान अनुभव आदि की वृद्धि के लिए कुछ खर्चे करने के लिए रजामन्द नहीं होते। इससे उनके ‘स्वजन प्रेम’ की कलई सहज ही खुल जाती है।

महत्वाकाँक्षा यदि संकीर्ण स्वार्थ परता से- व्यक्तिगत लिप्साओं से तनिक ऊँची रह सकें तो वे कितनी उपयोगी हो सकती, उसका चिन्तन करने मात्र से बड़ी प्रसन्नता होती है। यदि उनका विस्तार सद्भावनाओं के अभिवर्धन के लिए- सत्प्रवृत्तियों का पोषण करने के लिए सम्भव हो सके तो वह संकल्प शक्ति से उत्पन्न पुरुषार्थ उच्च कोटि की उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकता है यदि मैं का दायरा अत्यन्त छोटी ‘व्यक्तिवादी’ परिधि से आगे बढ़कर ‘हम’ की सीमा का स्पर्श कर सके तो बात कहाँ से कहाँ पहुँच जाय और प्रतिभा का चमत्कार आदर्शवादी परम्पराओं के निर्वाह में संलग्न दिखने लगे।

महामानवों के व्यक्तित्वों को यदि निकट से - गम्भीरता से देखा जाये और उनका तात्विक विश्लेषण किया जाये तो प्रतीत होता है कि उनमें साधारण लोगों से अधिक तनिक सी ही प्रतिभा अधिक थी। बाकी सब बातों में वे पूर्णतया मामूली आदमी थे। विशेषता के रूप में उन्हें थोड़ी सी चमक थोड़ी सी प्रतिभा मिली थी उसका उपयोग उतने नितान्त व्यक्तिवादी दल-दल से कुछ ऊपर उठकर करने की बात सोची और उधर ही रुचि लेने लगे। इस रुचि में उनका प्रचण्ड पुरुषार्थ जुड़ा और उसके आधार पर क्रमिक सफलताएँ मिलती चली गई फलतः गिरते पड़ते- चलते रुकते वे वहाँ-वहाँ जा पहुंचे जहाँ महानता के- महान उपलब्धियों के- अधिपति रूप में उन्हें विराजमान देखा गया और जन साधारण ने उनके चरणों पर श्रद्धा के शत-शत भाव पुष्प चढ़ाए।

महत्वाकाँक्षी, सुसम्पन्न और महानतानुरागी समुन्नत व्यक्तियों का तुलनात्मक अध्ययन विश्लेषण करने पर व्यक्तित्व, प्रयत्न, पुरुषार्थ, श्रम, साहस, कष्ट सहिष्णुता आदि की दृष्टि से कोई खास अन्तर नहीं दिखता। दोनों को लगभग समान प्रयत्न पुरुषार्थ करना पड़ा है। दोनों ने उत्साह एवं बुद्धि कौशल का प्रायः एक जैसा ही उपयोग किया है। कठिनाइयाँ दोनों ने ही एक जैसी उठाई हैं और सूझ-बूझ का भी वैसा ही परिचय दिया है। अन्तर राई-रत्ती भर का रहा है। एक ने ‘अपने’ को अत्यन्त छोटी परिधि में जकड़ बाँध लिया। मात्र शरीर को अपना समझा और वासना को शारीरिक और तृष्णा की मानसिक भूख को पूरा करना पर्याप्त माना। इससे आगे की बात सोचने में उनकी संकीर्णता ने इनकार कर दिया। मतलब की बात उन्होंने पेट और प्रजनन की पशुप्रवृत्तियों तक सीमाबद्ध करली। इससे आगे का कोई क्षेत्र न उनके लिए सोचने को खुला था और न पुरुषार्थ के लिए कहीं किसी दिशा में कदम बढ़ाने की गुंजाइश थी। कोल्हू के बैल की तरह उन्हें उसी सीमा में चक्कर काटने पड़े। तेल तो बहुत निकला, पर उन्हें खली ही मिली। माल मसाला दूसरों के हाथ लगा। श्रम अपने को करना पड़ा- समय अपना लगा- प्रतिभा अपनी प्रयुक्त हुई- पापों की गठरी अपने सिर पर लदी और अन्ततः खाली हाथों सिर पर घोर पश्चाताप साथ लेकर विदा हो गये। सुसम्पन्न प्रतिभाओं के जीवन का यही है लेखा-जोखा जिसे हम अपने इर्द-गिर्द असंख्य मनुष्यों के साथ जुड़ा हुआ देखते हैं।

सम्पन्नता उन्होंने संग्रह तो की, पर उपभोग का वह अवसर ही नहीं मिला जिसके लिए उस उपार्जन का ताना-बाना बुना गया था। लोगों ने वाह-वाही तो दी- चापलूसी भी की, पर सच्चे मन से श्रद्धा करने वाला हृदय से स्नेह सौजन्य देने वाला, एक भी नहीं मिला। समय आया तो सभी ने आँखें फेर लीं। उत्तराधिकारियों ने दुधारू गाय से बढ़कर उनका कभी कोई मूल्याँकन नहीं किया। शहद पाने के लिए वे छत्ते को तोड़-फोड़ की निष्ठुरता भी समय-समय पर बरतते ही रहे। परमार्थ की बात तो सोची भी नहीं गई थी सो वह बन भी नहीं पड़ा। आत्म प्रवंचना के लिए उल्टी पुल्टी माला घुमाने जैसी टन्ट-घन्ट ही पर्याप्त समझी गई। उससे कुछ बनने वाला था भी नहीं सो बना भी नहीं। परमार्थ के फलस्वरूप जो आत्मिक आनन्द एवं उल्लास मिलना चाहिये इसका दर्शन तो उन्हें कभी भी नहीं हो सका, यों देवी देवता मन्दिरों में और सपने में आये दिन देखने को मिलते रहे।

महत्वाकाँक्षी और महानतानुरागी में एक ही मौलिक अन्तर होता है। उदात्त व्यक्ति दूरदर्शी होते हैं, वे विवेक को अपनाते हैं और जीवन की गरिमा को समझते हैं। इस सुरदुर्लभ दिव्य अनुदान के साथ जुड़े हुए लक्ष्य एवं कर्तव्य का विचार करते हैं और अपनी दिशा आदर्शवादी उत्कृष्टता की निश्चित करते हैं। कदम बढ़ाने से पूर्व ही वे निश्चय कर लेते हैं कि पेट भरने और तन ढकने तक की महत्वाकाँक्षाएँ ही पर्याप्त हैं। निर्वाह के न्यूनतम साधनों से ही उन्हें गुजारा करना है। सम्पन्नता के सपनों में नहीं उलझना है। अपनी प्रभु प्रदत्त क्षमताओं को उन कार्यों के लिए प्रयुक्त करना है जिनसे मनुष्य जीवन की सार्थकता बन पड़ती हो। इस दृष्टिकोण ने उन्हें ऐसे अनेक कार्य प्रस्तुत कर दिये जिनमें व्यक्तिगत स्वार्थ तो पूरा नहीं होता था पर परमार्थ प्रयोजनों की सिद्धि भली प्रकार होती थी। वे उन कार्यों में उसी प्रकार उसी उत्साह से उसी तत्परता से जुट गये जिस प्रकार महत्वाकाँक्षी वैभव सम्पादन में संलग्न होते हैं।

एक ही समय पर एक ही गति से छूटने वाली दो रेल गाड़ियाँ दिशा भिन्नता के कारण चलते चलते इतनी दूर पहुँच जाती हैं जहाँ से उनके बीच का अन्तर आश्चर्यजनक नापा जा सकता है। महामानव अपने जीवन काल में उतने महत्वपूर्ण कार्य कर गुजरते हैं जिससे उनका अन्तरात्मा परमात्मा अजस्र आशीर्वाद की वर्षा करता रहता है। लोकश्रद्धा और ऐतिहासिक सम्मान तो उन्हें मुफ्त के उपहार की तरह मिल जाते हैं।

दोनों को कभी मिलाया जाय और उनकी दलील सुनी जाय तो वे अपनी रीति-नीति की बुद्धिमत्ता सिद्ध करेंगे। दोनों एक दूसरे को मूर्ख बतावेंगे। इनमें से वस्तुतः कौन मूर्ख है कौन बुद्धिमान- कौन घाटे में रहा और कौन लाभान्वित हुआ, इसका निर्णय वे स्वयं भी कर सकते हैं- पर आज के आवेश में नहीं इसके लिए मरण दिन की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तभी नशा उतरेगा और तभी वस्तु-स्थिति समझ सकना सम्भव होगा, पर खेद इसी बात का है कि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और महत्वाकाँक्षी के लिए अपने चिन्तन को बदलने एवं कर्तव्य को उलटने की गुंजाइश न रह गई होगी।

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