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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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अध्यात्म सिद्धान्त न तो अनावश्यक है, न अप्रमाणिक

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अध्यात्म के सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन को अधिक पवित्र एवं शालीन बनाने की भूमिका सम्पादित करते हैं। उनसे सामाजिक सुव्यवस्था की आधार शिला भी रखी जाती है और सर्वजनीन प्रगति एवं सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता है।

शरीर की नश्वरता, आत्मा की अमरता, कर्मफल का सुनिश्चित होना तथा परलोक पुनर्जन्म की सम्भावना यह चार सिद्धान्त ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में प्रायः अध्यात्म की सभी शाखाओं में प्रतिपादित किये गये हैं। यों कई धर्मों में पापों के क्षमा हो जाने और मरणोत्तर जीवन की स्थिति में भिन्न मान्यताएँ भी हैं, पर वे लोचलचक के रूप में ही हैं। इतनी कठोर नहीं कि उनसे उपरोक्त चार सिद्धान्त जड़-मूल से ही कट जाते हों। मरणोत्तर जीवन किसी न किसी रूप में बना रहता है। कर्म को भले ही नैतिक रूप में न मानकर साम्प्रदायिक विश्वासों की परिधि में लपेट लिया गया हो तो भी यह नहीं कहा गया कि कर्म का कोई फल नहीं मिलता। इस प्रकार छोटे मतभेदों के रहते हुए भी मूल सिद्धान्तों के प्रति प्रायः सहमति ही पाई जाती है।

वर्तमान जीवन में शुभ कर्म करने पर भले ही इस जन्म में उसका सुखद प्रतिफल न मिले पर मरणोत्तर जीवन में उसका मंगलमय परिणाम उपलब्ध हो जायेगा इस विश्वास के आधार पर लोग त्याग और बलिदान के बड़े-बड़े साहस पूर्ण कदम उठाते रहते हैं। इस जन्म में किये गये पापों के दण्ड से भले ही इस समय किसी चतुरता से बचाव कर लिया जाय पर आगे चलकर उसका दण्ड भुगतना ही पड़ेगा यह सोचकर मनुष्य दुष्कर्म करने से अपने हाथ रोक लेता है और कुमार्ग पर पैर बढ़ाने से डरता, झिझकता है। यदि इस मान्यता को हटा दिया जाय तो तत्काल शुभकर्म का सत्परिणाम न मिलने की स्थिति में कोई उसके लिए उत्साह प्रदर्शित न करेगा। इसी प्रकार पाप दण्ड से सामाजिक बचाव कर लेने की उपलब्ध तरकीबें ढूंढ़कर फिर कोई अनीति अपनाने पर मिलने वाले लाभों को छोड़ने की इच्छा न करेगा। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज में अनैतिक अवाँछनीय तत्वों की बाढ़ आ जायगी और मर्यादाओं के बाँध टूट जायेंगे। धार्मिक मान्यताओं का अंकुश रहने पर भी जब लोग दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने में संकोच नहीं करते तो मानसिक नियन्त्रण न रहने की स्थिति में तो भयंकर स्वेच्छाचार फैल जायगा और उस उच्छृंखलता से समूची मनुष्य जाति का-समस्त संसार का भारी अहित होगा।

मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म की मान्यता हमें चिन्तन के कितने ही उत्कृष्ट आधार प्रदान करती है। आज हम हिन्दू, भारतीय एवं पुरुष हैं। कल के जन्म में ईसाई, योरोपियन या स्त्री हो सकते हैं। ऐसी दशा में क्यों ऐसे कलह बीज बोयें, ऐसी अनैतिक परम्पराएँ प्रस्तुत करें जो अगले जन्म में अपने लिए ही विपत्ति खड़ी कर दें। आज का सत्ताधीश, कुलीन मनुष्य सोचता है कल प्रजाजन, अछूत, एवं पशु बनना पड़ सकता है उस स्थिति में उच्च स्थिति वालों का स्वेच्छाचार उनके लिए कितना कष्ट कारक होगा। इस तरह के विचार दूसरों की स्थिति में अपने को रखने और उदात्त दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देते हैं।

“मैटर” का विश्लेषण 92 तत्वों-ऐलीमेन्टस्-के आधार पर किया जाता है। तत्वों का भेद उनके पृथक-पृथक गुण, कर्म के आधार पर किया जाता है। इन तत्वों में चेतना गुण किसी के भीतर भी नहीं पाया जाता। ऐसी दशा में चेतना को एक स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। भले ही वह अमुक शरीर में अमुक स्तर की हो पर है वह स्वतन्त्र ही। चेतना के स्तर का शरीर मिलना-अथवा शरीर के स्तर की चेतना उत्पन्न होना इस विवाद में प्रधान और गौण होने का ही मतभेद है। चेतना के स्वतन्त्र अस्तित्व की अस्वीकृति नहीं है।

मृतात्माओं की हलचलों के जो प्रामाणिक विवरण समय-समय पर मिलते रहते हैं और पिछले जन्मों की सही स्मृति के प्रमाण देने वाले घटनाक्रमों के प्रत्यक्ष परिचय अब इतनी अधिक संख्या में सामने आ गये हैं कि उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसी दशा में पिछली पीढ़ी के वैज्ञानिकों की आत्मा का अस्तित्व न होने की बात सहज ही निरस्त हो जाती है।

मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आत्मा के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं। हमारा अस्तित्व मुक्ति में- मृत्यु के साथ- अथवा अन्य किसी स्थिति में किसी समय समाप्त हो जायगा इस कल्पना को कितना ही श्रम करने पर भी स्वीकार नहीं कर सकते । चेतना इस तथ्य को कभी भी स्वीकार न करेगी। यह स्वतः प्रमाण मनःशास्त्र के आधार पर इस स्तर के समझे जा सकते हैं कि जीव चेतना की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के लिए संतोषजनक माना जा सके।

पदार्थ विज्ञानी यह जानते हैं कि तत्वों के मूल-भूत गुण धर्म को नहीं बदला जा सकता है। उनके सम्मिश्रण से पदार्थों की शकल बदल सकती है। रंग को गन्ध में, गन्ध को स्वाद में, स्वाद को रूप में, रूप को स्पर्श में नहीं बदला जा सकता। हाँ वे अपने मूल रूप में बने रहकर अन्य प्रकार की शक्ल या स्थिति तो बना सकते हैं, पर रहेंगे सजातीय ही। दो प्रकार की गन्धें मिल कर तीसरे प्रकार की गन्ध बन सकती है- दो प्रकार के स्वाद मिलकर तीसरे प्रकार का स्वाद बन सकता है, पर वे रहेंगे गन्ध या स्वाद ही, वे रूप या रंग नहीं बन सकते। विभिन्न प्रकार के परमाणुओं में विभिन्न प्रकार की हलचलें तो हैं, पर उनमें चेतना का कहीं अता-पता नहीं मिलता।

मस्तिष्क को संवेदना का आधार तो माना जा सकता है, पर उसके कण स्वयं संवेदनशील नहीं है। यदि होते तो मरण के उपरान्त भी अनुभूतियाँ करते रहते। ध्वनि या प्रकाश के कम्पन जड़ हैं- मस्तिष्कीय अणु भी जड़ है। दोनों के मिलन में जो विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं उनमें पदार्थ को कारण नहीं माना जा सकता। चेतना की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार किये बिना प्राणी के चेतना सिद्ध करने के लिए जितने तर्क पिछले दिनों प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, वे अब सभी क्रमशः अपनी तेजस्विता खोते जा रहे हैं। अमुक रसायनों या परमाणुओं के मिलने से चेतना की उत्पत्ति होती है और उनके बिछुड़ने से समाप्ति। यह तर्क आरम्भ में बहुत आकर्षक प्रतीत हुआ था और नास्तिकतावाद में जीव को इसी रूप में बताया था, पर अब उनके अपने ही तर्क-अपने प्रतिपादन को स्वयं काट रहे हैं कि मूल-तत्व अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता। विचार हीन परमाणु- संवेदनशील बन सकें ऐसा कोई आधार अभी तक नहीं खोजा जा सका है। जड़ के साथ चेतना घुली हुई हो तो उसके साथ-साथ जड़ में भी परिवर्तन हो सकते हैं। अभी इतना ही सिद्ध हो सका है। किसी परखनली में बिना चेतन जीवाणुओं की सहायता के साथ रासायनिक पदार्थों की सहायता से जीवन उत्पन्न कर सकना सम्भव नहीं हुआ है। परखनली के सहारे चल रहे सारे प्रयोग अभी इस दिशा में एक भी सफलता की किरण नहीं पा सके हैं कि रासायनिक संयोग से जीवन का निर्माण संभव किया जा सके।

लोह खंडों के घर्षण से बिजली पैदा होती है तो भी बिजली लोहा नहीं है। स्नायु संचालन से संवेदना उत्पन्न होती है किन्तु संवेदना स्नायु नहीं हो सकते। अमुक रासायनिक पदार्थों के संयोग से जीवन उत्पन्न होता है तो भी वे पदार्थ जीवित नहीं हैं। चेतना का अवतरण कर सकने के माध्यम मात्र हैं।

हर्ष, शोक, क्रोध, प्रेम, आशा, निराशा, सुख-दुःख, पाप, पुण्य आदि विभिन्न संवेदनाएँ किन परमाणुओं के मिलने से किस प्रकार उत्पन्न हो सकती हैं, इस संदर्भ में विज्ञान सर्वथा निरुत्तर है।

अपने बचपन के दिनों में विज्ञान का नया उत्साह आत्मा, ईश्वर और धर्म को अप्रामाणिक एवं अनावश्यक मानता था और इनके विरुद्ध जोर-शोर से गोला बारी करता था, पर अब स्थिति वैसी नहीं रही। न केवल प्रमाणों के आधार पर वरन् व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी होने की कसौटी पर भी अध्यात्म सिद्धान्तों को एक-एक कदम चलते हुए मान्यता ही दी जा रही है।

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