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Magazine - Year 1977 - Version 2

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प्राणायाम प्राणशक्ति बढ़ाने का वैज्ञानिक आधार

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भौतिक के छात्र जानते हैं कि घर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है। दियासलाई घिसने से लेकर विशालकाय जनरेटरों द्वारा आग या विद्युत उत्पन्न होने के कारणों में घर्षण ही मुख्य है। निर्जन सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के गीले सूखे पेड़ों को जलाकर खाक कर देती है। यह मनुष्यों द्वारा लगाई गई नहीं होती, वह आग सूखे पेड़ों की टहनियों के तेज हवा से हिलने और आपस में रगड़ने के कारण उत्पन्न होती है। इस कार्य में बाँस सब से अग्रणी है। सूखे बाँस आपस में रगड़ खाकर पहले गरम होते हैं फिर चिनगारियाँ निकालने लगते हैं। यह आग बढ़ती फैलती चली जाती है और दावानल का रूप धारण कर लेती है। यह घर्षण के सिद्धान्त का ही चमत्कार है।

चकमक पत्थर के दो टुकड़े आपस में टकरा कर चिनगारियाँ उत्पन्न करने की कला ही आदि मानव ने सीखी थी, पीछे लोहे और पत्थर को टकरा कर भी आग निकालने की तरकीब निकाल ली गई। यज्ञ कार्यों में लकड़ियाँ रगड़कर अग्निमन्थन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती थी। चेतना और पदार्थ-ब्रह्म और प्रकृति के उद्गम स्त्रोत में देखा गया है कि वे परस्पर टकराते-घिसते है-फलतः शब्द रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है और उसके सहारे सृष्टि क्रम चल पड़ता है। हवा चलती है, विभिन्न पदार्थों से टकराती है। समुद्र में लहरें उठती गिरती हैं-मनुष्य शरीर में श्वास-प्रश्वास और आकुंचन प्रकुञ्चन चलता है फलतः घर्षण चलता है और ऊर्जा उत्पन्न होती है उसी के अपने-अपने प्रयोजन हर स्थान पर चल पड़ते हैं। पदार्थों और प्राणियों में चलती रहने वाली हलचलों की-घर्षण की उत्पत्ति ही कहा जा सकता है।

साधारण श्वास प्रश्वास क्रिया से जीवन चर्या चलती है। पेण्डुलम हिलना बन्द हो जाय तो घड़ी के सारे पुर्जे ठप्प हो जाते हैं। साँस रुकी तो मरण निश्चित है। घर्षण बन्द तो जीवन भी समाप्त। साँस के साथ जीवन जुड़ा हुआ है क्योंकि प्रत्यक्षतः ऊर्जा की उत्पत्ति उसी से होती है, यों गहराई में जाने पर सहस्रार से उठने वाले विद्युत स्फुल्लिंग भी उसके मूल कारण समझे जाते हैं। वहाँ भी रुक-रुककर उछलने की क्रिया ही घर्षण उत्पन्न करती है।

अधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए हमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बड़ा कारखाना चलाने के लिए बड़ी मशीनें गतिशील बना सकने वाली, बड़ी मोटर फिट करनी पड़ती है। छोटी मोटर तो छोटी मशीन ही चला पाती है। महत्त्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कार्य करने के लिए अधिक उच्चस्तरीय ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यह खाने पीने या आग तपाने जैसे प्रयत्नों से नहीं वरन् वहाँ से प्राप्त करने होती है जहाँ पर चेतना और पदार्थ दोनों को प्रभावित करने वाला क्षमता का उद्गम है। कहना न होगा कि यह आधार ‘प्राण’ ही है। प्राण वह तत्त्व है जो अन्तरिक्ष में जीवन और पदार्थ दोनों की संयुक्त शक्ति के रूप में प्रवाहित रहता है। शुद्ध चेतना ब्रह्म है। प्रशुद्ध प्रकृति ऊर्जा है। दोनों ही अपने मूल रूप में अपूर्ण है। प्राणि जगत का उत्पत्ति इन दोनों धाराओं के मिलने पर ही सम्भव होती है। इसीलिए जीवधारियों को प्राणी कहते हैं। विज्ञान के बढ़ते हुए चरण परमाणु-परमाणु से तरंग-तरंग से ऊर्जा-ऊर्जा से क्वान्टा तक जा पहुँचा है। इकॉलाजी की मान्यताओं ने क्वान्टा को विचारशील होने की मान्यता अब तक मिलने ही वाली है। आकाश आकाश में, हवा -हवा में-ईथर-ईथर में एस्ट्रल तक की मान्यता मिल चुकी । अब विज्ञान प्राण सत्ता के महासमुद्र को इस निखिल ब्रह्माण्ड में लहलहाते देखने की स्थिति में पहुँचने ही जा रहा है।

प्राण तत्त्व का अस्तित्व तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत पहले ही जान लिया था। प्रकृति अनुदानों की सीमित ड़ड़ड़ड़ से काम चलते न देखकर विशेष प्रयोजनों के लिए ड़ड़ड़ड़ विशिष्ट मात्रा उपलब्ध करने का मार्ग भी खोज ड़ड़ड़ड़ था। इसे उन्होंने प्राण विज्ञान का नाम दिया ड़ड़ड़ड़ उसके प्रयोग प्राणायाम कहलाये। प्राणायाम का उद्देश्य साँस के मार्ग से अधिक मात्रा में प्राण तत्त्व को आकर्षित करना और आत्म-सत्ता में धारण करके अधिक सशक्त बनना है। यहाँ साँस और प्राण का पारस्परिक सम्बन्ध तनिक और अच्छी तरह समझने की आवश्यकता ड़ड़ड़ड़।

मोटे तौर से हवा एक हलकी गैस है जो अन्तरिक्ष ड़ड़ड़ड़ अपने हल्केपन के कारण तनिक-तनिक से आघातों से ठोकर खाकर इधर से उधर उड़ती-उछलती ड़ड़ड़ड़ है। इस हवा के अन्तराल में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण व बहुमूल्य वस्तुएँ समाई हुई है। दूध में घी रहता है और दीखता नहीं वनस्पतियों में प्रोटीन, क्षार चिकनाई आदि घुले रहते हैं। माँस के भीतर ढेरों प्रकार के रासायनिक पदार्थ रहते हैं। इन्हें विशेष विश्लेषण से ही ड़ड़ड़ड़ और विशेष उपायों से ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार हवा के भीतर भी बहुत कुछ भरा पड़ा है। साँस लेते समय आक्सीजन, नाइट्रोजन, आदि का रासायनिक, सम्मिश्रण हमारे भीतर प्रवेश करता है। उसमें जो आवश्यक है उसे शरीर सीख लेता है और भीतर उत्पन्न कचरे को वापिस लौटने वाली साँस में कार्बनडाइआक्साइड गैस के रूप में बहा देता है इस प्रकार ड़ड़ड़ड़ विश्लेषण किया जाय तो प्रवेश करते और ड़ड़ड़ड़ समय की उसकी स्थिति में रासायनिक सम्मिश्रणों की दृष्टि से भारी अन्तर आ जाता है। भिन्न-भिन्न स्थानों की जलवायु में जो स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली स्थिति होती है, उसका कारण इस रासायनिक सम्मिश्रण की मात्रा में न्यूनाधिकता का अन्तर ड़ड़ड़ड़ है। पदार्थ ठोस-प्रवाही और वायु भूत बनता रहता है। पृथ्वी पर ठोस-पानी में प्रवाही और ड़ड़ड़ड़ गैस रूप में पदार्थ की सत्ता बनी है। इतना ड़ड़ड़ड़ के उपरान्त यह जानना सरल पड़ेगा कि हवा आक्सीजन जैसे रासायनिक पदार्थ ही नहीं उसके ड़ड़ड़ड़ अन्तराल में प्राण तत्त्व की प्रचुर मात्रा भी विद्यमान् रहती है। यह साँस के साथ अनायास भी शरीर में प्रवेश करता रहता है। शरीर उसमें में काम चलाऊ मात्रा सोख्ता भी है । साँस के घर्षण से ऊर्जा की उत्पत्ति और हवा के साथ घुले हुए आक्सीजन जैसे रासायनिक पदार्थों की ही नहीं प्राण शक्ति की उपलब्धि का भी लाभ मिलता रहता है। जीवन का आधार साँस पर अवलम्बित कहा जाता है इसके पीछे घर्षण एवं प्राण अनुदान से अभीष्ट ऊर्जा की उपलब्धि का तथ्य ही काम कर रहा होता है।

प्राणायाम में साँस की गति में असामान्य व्यक्तिक्रम निर्धारित हैं इसमें घर्षण का असामान्य क्रम उत्पन्न होता है और उसकी प्रतिक्रिया ‘निर्वाह’ की आवश्यकता पूरी करने से आगे बढ़कर शरीर में विशेष हलचलें उत्पन्न करती है। वे असामान्य हलचलें ऐसे प्रसुप्त संस्थानों को जगाती है जो सामान्यतया निर्वाह क्रम में तो अधिक आवश्यक नहीं होते, पर जागृत होने पर मनुष्य में विशेष स्तर की अतिरिक्त मात्रा में विशेष समता प्रदान कर सकते हैं। प्राणायाम-माँस की गति को तीव्र कना नहीं उसे तालबद्ध और क्रमबद्ध करना है। इस ताल लय और क्रम के हेर-फेर के आधार पर ही अनेक प्रकार के प्राणायाम बने है और उनके विविध प्रयोजनों के लिए विविध प्रकार के उपयोग होते हैं। प्राणायाम के समय साधक को अपनी विशिष्ट संकल्प शक्ति का श्रद्धा भावना का-मनोबल का प्रयोग करना पड़ता है। इसी आकर्षण से साँस में प्राण तत्त्व की अधिक मात्रा अन्तरिक्ष में खिंचती, और धुलती चली आती है। प्राणायाम में श्वास क्रम की विशेष प्रक्रिया और साधक की संकल्प शक्ति का समावेश होने से वह सामान्य साँस लेना न रह कर विशिष्ट ऊर्जा की उपलब्धि की विशेष आधार बन जाता है।

घर्षण के महत्त्व को हमें और भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क्रिया सामान्य है, पर उसकी प्रतिक्रिया से ऊर्जा की उत्पत्ति असामान्य हैं चलती रेल के पहियों की चिकनाई समाप्त हो जाती है। अथवा अन्य किसी कारण उनमें रिसाव पड़ने लगता है, तो उतने भर से उत्पन्न होने वाली गर्मी पहिये के धुरे तक को गला देती है और दुर्घटना की स्थिति बन जाती है। आकाश में कभी-कभी प्रचण्ड प्रकाश रेखा बनाते हुए-तारे टूटते’ देखते हैं यह तारे नहीं उल्का पिण्ड है अन्तरिक्ष में छितराए हुए धातु पाषाण जैसे छोटे-छोटे टुकड़े कभी-कभी पृथ्वी के वायु मण्डल में घुस पड़ते हैं और हवा से टकराने पर जल कर खाक हो जाते हैं। इसी जलने का तेज प्रकाश देखकर ‘तारा टूटने’ का अनुमान लगाया जाता है यह मात्र घर्षण क्रिया का चमत्कार है। ‘रति क्रिया में चुम्बकीय अवयवों का घर्षण विशिष्ट स्तर की ऊर्जा उत्पन्न करता है। उसी की अनुभूति सरस सम्वेदना के रूप में होती है और उसी से उत्तेजित होकर शुक्राणु डिम्बाणु संयोग के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह घर्षण ही प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनता है।

दही मथने में ‘रई की रस्सी के दो छोर पकड़कर उलटा सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है। ऊर्जा उत्पन्न होती हैं और उसी उत्तेजना से दही में घुला हुआ घी उभर कर बाहर आ जाता है। दांये-बांये नासिका स्वरों के चलने वाले विशेष प्रकार मेरुदण्ड के इड़ा पिंगला विद्युत प्रवाहों को उत्तेजित करते हैं और उनकी सक्रियता दही मथने जैसी हलचल उत्पन्न करती है। फलतः ओजस् तत्त्व उभर कर ऊपर आता है इसको विधिवत् उत्पन्न और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। इस उपलब्धि के सहारे प्रखरता की अनेक चिनगारियाँ फूटती हैं साहस, स्फूर्ति, पराक्रम , निष्ठा, आदि अनेकों आन्तरिक विशेषताओं के रूप में इनका प्रभाव उत्पन्न होता है। उनसे लाभान्वित होने पर व्यक्तित्व में अनेकों विभूतियाँ उभरती दिखाई देती है।

कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक दृष्टि से सुयोग्य होते हैं पर अन्तःकरण में साहस न होने के कारण कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-आशंकाओं से असमंजस में पड़ी मनःस्थिति में न तो कोई साहसिक निर्णय कर सकना बन पड़ता है और न अवसर का लाभ उठा सकना ही सम्भव होता है। इसके विपरीत मनस्वी व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन, सहयोग, अवसर आदि की कठिनाइयाँ रहते हुए भी दुस्साहस भरे कदम उठते और आश्चर्यचकित करने वाली सफलताएँ प्राप्त करते हैं। ऐसे ही व्यक्ति अपने विशिष्ट करते हैं। ऐसे ही व्यक्ति अपने विशिष्ट कर्तव्य और विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण कुछ ऐसा कर गुजरते हैं जिनके कारण उन्हें ऐतिहासिक महामानवों की श्रेणी में गिना जाने लगता है इस आन्तरिक समर्थता को दूसरे शब्दों में प्राण कहा जाता है। प्राणवान का अर्थ जीवित ही नहीं साहसी भी होना है। इस उपलब्धि को अन्य साँसारिक सम्पदाओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही माना जा सकता है।

प्राण विद्या के अंतर्गत किये जाने वाले प्राणायाम प्रयोगों में जिस अंतःऊर्जा की जागृति होती है उनमें साहसिकता एवं सक्रियता प्रधान है। आलस्य और प्रमाद जैसी जीवन सम्पदा को अपंग बना देने वाली दुःखदायी विडम्बनाओं को निरस्त करने में इस साधना से बड़ी सहायता मिलती है। उत्साह जगता है और स्फूर्ति बढ़ती हैं। क्रिया के साथ मनोयोग जुड़ा रहने से सफलता के समस्त आधार बनते हैं। इसके लिए मन को प्रशिक्षित करना पड़ता है। यह भी सरकस के लिए हिंस्र जानवर साधने की तरह कठिन कार्य है। यह अन्तरंग आत्म बल के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। व्यवहार कौशल की शालीनता-व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय सिद्ध करने वाली सज्जनता एवं संपर्क क्षेत्र की बिखरी पड़ी अवांछनीयताओं से जूझने की वीरता यह सब कुछ आत्मबल से ही सम्भव हो सकता है। प्राण विद्या के आधार पर जो चेतनात्मक ऊर्जा उपार्जित की जाती है। उसे ऐसी ही साहसिकता एवं सक्रियता के सुखद समन्वय के रूप में काम करते हुए देखा जाता है।

अण्डा तब फूटता है जब उसके भीतर के बच्चे की अन्तःचेतना उस परिधि को तोड़कर बाहर निकलने की चेष्टा करती है। प्रसव पीड़ा और प्रजनन की घड़ी तब आती है जब गर्भस्थ शिशु की चेष्टा उस वेधन को तोड़कर उस बन्धन से मुक्ति पाने की होती है। इन गर्भस्थ शिशुओं के संकल्प यदि गिरे मरे हो तो वे भीतर ही सड़ गल कर नष्ट हो जायेंगे। प्रगति के लिए पराक्रम एवं साहस की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है उसके बिना प्रतिकूलताओं के आये दिन होते रहने वाले आक्रमणों से आत्म रक्षा तक कर सकना सम्भव नहीं हो सकता। पराक्रम प्राण का गुण है। इसी की पौरुष एवं शौर्य भी कहते हैं। आत्मबल इसी आन्तरिक ऊर्जा का नाम है। प्राणायाम के विविध प्रयोगों द्वारा विविध स्तर की प्राण ऊर्जा उत्पन्न करने के जो ऋषि प्रणीत प्रयोग बताये गये हैं, उनका साधक की स्थिति के अनुरूप यदि तालमेल बिठाया जा सके तो अप्रत्यक्ष लाभ किसी बड़े प्रत्यक्ष उपार्जन की तुलना में कम नहीं अधिक ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।

सन्ध्या वन्दन हमारा धार्मिक नित्य कर्म है। उसमें प्राणायाम क्रिया भी सम्मिलित है। आत्म-परिष्कार एवं आत्म-विकास के लिए आत्मबल अभिवर्धन की भी की भी आवश्यकता है। आत्मिक प्रगति इसी आधार पर सम्भव होती है। आत्मबल बढ़ाने के लिए वैचारिक भावना परक और क्रियात्मक प्रखरता उत्पन्न करना आवश्यक है। साथ ही इस प्रयोजन में असाधारण रूप से सहायता करने वाले प्राणायाम जैसे विशिष्ट क्रिया योगों को भी आवश्यकता रहती है। दुर्बलता निवारण के लिए आहार बिहार की सुव्यवस्था तो होनी चाहिए, पर साथ ही चिकित्सा उपचार के साधन जुटाने से भी उस कार्य में सहायता मिलती है। प्राणायाम ऐसा ही विशेष उपचार है जिसके सहारे आत्मिक बलिष्ठता बढ़ाने का पथ-प्रशस्त होता है। संध्या वन्दन के नित्य कर्म में उसका समावेश प्राणबल जर्मन की आवश्यकता उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए ही किया गया है।

संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। अन् धातु (प्राणने) जीवनी शक्ति चेतना वाचक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतना शक्ति होता है प्राण और जीवन प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।

यह प्राणतत्त्व, जीवन तत्त्व जब न्यून पड़ता है तो व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह समुचित मात्रा में रहता है तो समस्त क्रिया कलाप ठीक तरह चलते हैं। जब वह बढ़ता है तो उस अभिवृद्धि को बलिष्ठता, समर्थन, सतर्कता, तेजस्विता, मनस्विता, प्रतिभा आदि के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते हैं। वे अपना प्राण अपना प्राण असंख्यों में फूँकने और विश्व का मार्ग दर्शन करने में समर्थ होते हैं। मानव शरीर में विद्यमान् प्राण शक्ति से ही अन्तः संचालन-एफरेन्ट-और नाडी संस्थान-नर्वस सिस्टम-अनुप्राणित होता है मस्तिष्क की कल्पना, धारणा, इच्छा, स्मृति, विवेचना, प्रज्ञा आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन अभिवर्धन तथा संचालन होता है। शरीर और मन को दिशा एवं क्षमता प्रदान करने वाली अति उत्कृष्ट एवं अति सूक्ष्म सत्ता को ‘वाइटल फोर्स’- कहा जाता है। श्वास-प्रश्वास क्रिया तो उसका वाहन मात्र है। जिस पर सवार होकर वह महाशक्ति हमारे समस्त अवयवों में प्रवेश करती है और पोषण देती। इसे भौतिक क्षेत्र में गर्मी, रोशनी, बिजली आदि के नाम से जाना जाता है और अंतःक्षेत्र में उसी को प्रखरता कहते हैं। प्राण तत्त्व यही है। जो इस सम्पदा का जितना अधिक अर्जन कर सका, वह उतना ही बड़ा शक्तिशाली सिद्ध होता है।

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