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Magazine - Year 1977 - Version 2

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दुष्कर्मों की निवृत्ति प्रायश्चित्त से ही सम्भव है।

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यह संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान् ने दुनिया बनाई और उसके सुसंचालन के लिए कर्म विधान रच दिया। जो जैसा करता है। वह वैसा भोगता है, सिद्धान्त अकाट्य है। लोग भ्रम में इसलिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। यदि शुभ अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो फिर दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग छूने से हाथ जल जाता है इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता। किन्तु सुकृतों और दुष्कृतों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बाल बुद्धि के लोग आदी हो जाते हैं। पुण्य के सम्बन्ध में निराश और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैं और जो न करना चाहिए उसे करने लगते हैं। यही है वह माया जिसके बन्धनों में जकड़े हुए लोग दिग्भ्रान्त होते, भूलभुलैया में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैं।

आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता है-आज का बोया बीज बहुत समय में वृक्ष बनता है-आज का अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय आज ही कहाँ फल देता है, परिणाम में देर लगने पर बालक निराश हो सकते हैं, पर विचारशील लोग अपनी निष्ठा विचलित नहीं होने देते और आशा, विश्वास के साथ काम करते रहते हैं। असंयम बरतने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता-जिस दिन चोरी की जाय, उसी दिन जेल भुगतनी पड़े ऐसा कहाँ होता है? तो भी समझदारी सुझाती है कि कल नहीं, परसों परिणाम मिलकर ही रहेगा। यही दूरदर्शिता सत्कर्म, दुष्कर्मों के सुनिश्चित परिणाम को ध्यान में रखते हुए अपनाई जानी चाहिए। पर लोग भ्रमग्रस्त होकर कर्मफल के सम्बन्ध में विश्वास छोड़ बैठते हैं। इसी इनकार को वास्तविक नास्तिकता कहना चाहिए।

दुष्कर्मों का प्रतिफल कई रूपों में भुगतना पड़ता है। लोक-निन्दा होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों की आँखों में अप्रामाणिक अविश्वस्त ठहरते हैं। उन्हें किसी का सघन विश्वास एवं सच्चा सहयोग नहीं मिलता। श्रद्धा और सम्मान तो उसी को मिलता है, जिसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध होती है। जन विश्वास एवं सहयोग के आधार पर कोई व्यक्ति प्रगति करता और सफल होता है। संदिग्ध चरित्र व्यक्तियों को इस लाभ से वंचित रहना पड़ता है। और वे मित्र विहीन एकाकी नीरस जीवन जीते हैं। घनिष्ठता का लाभ तो उन्हें स्वजनों से भी नहीं मिलता। वे भी सदा आशंका की ही दृष्टि से देखते हैं और दिखावे का सहयोग दे पाते हैं। आत्म प्रताड़ना का दुरूह दुःख ऐसे ही लोगों को सहना पड़ता है। दूसरों को झुठलाया जा सकता है, वह दुष्कर्मों से स्वयं खिन्न रहती है। आत्म धिक्कार से आत्मबल निरन्तर गिरता जाता है।

समाज तिरस्कार, असहयोग, विरोध, उपेक्षा से प्रत्यक्ष हानि है। जिसके ऊपर घृणा और तिरस्कार बरसता है। उसके अन्तरात्मा को पत्थर बरसने से भी अधिक अन्तः पीड़ा सहनी पड़ती है। धन छिन जाना उतनी बड़ी सहनी पड़ती है। धन छिन जाना उतनी बड़ी हानि नहीं है जितना कि विश्वास, सम्मान और सहयोग चला जाना। दुष्कर्मों का यह सामाजिक दण्ड हर कुमार्गगामी को भुगतना पड़ता है। पाप और पारा छिपता नहीं। वह फुट फुटकर देर सवेर में बाहर निकलता ही है। सत्कर्म छिप सकते हैं, दुष्कर्म नहीं।

हींग की गन्ध कई थैलियों में बन्द करके रखने पर भी फैलती है और दुष्कर्मों की दुर्गन्ध हवा में हम तरह उड़ती है कि किसी के छिपाये नहीं छिपती। समाज दण्ड असहयोग बहिष्कार के रूप में तो बरसता ही है। कई बार वह प्रतिशोध और प्रत्याक्रमण के रूप में भी सामने आता है। लोग अनीति के विरुद्ध उबल पड़ते हैं तो दुरात्मा का कचूमर ही निकाल कर रख देते हैं।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोक थाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी बल र्फोसों आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग अक्सर उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक शारीरिक, मानसिक दण्ड भुगतते हैं। बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता शारीरिक व्याधि और मानसिक व्याधि उन्हें घेरती है और तिल-तिल करके रेतने, काटने जैसा कष्ट देती है। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियन्त्रण में आकुंचन-प्रकुञ्चन निमेष-उन्मेष श्वास-प्रश्वास रक्त-संचार ग्रहण विसर्जन आदि अनेकों स्वसंचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती है। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती है। शरीर तभी तक जीवित है जब तक उसमें चेतना का अस्तित्व है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र संस्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया कलाप का अनुभव करते हैं। यह संस्थान-मनोविकारों से पाप ताप एवं कषाय−कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर भी पड़ते हैं और मानसिक सन्तुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढाँचा लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों की नित नई शोध होती है और उनके लिए अपने दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती है। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे है और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे है, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का कोई उपयुक्त समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती है पर दूसरे ही क्षण रोग अपना रूप बदल कर नई आकृति में फिर सामने आ खड़े होते हैं। ह स्थिति तब तक बनी ही रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। सिरदर्द, आधाशीशी, जुकाम, अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग है। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, आत्म हीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या द्वेष, आक्रमण जैसे आवेग मन संस्थान को ज्वार-भाटों की तरह असन्तुलित बनायें रहते हैं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकांश भाग निरर्थक चला जाता है। एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएँ विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो है। तरह की सनकों से कितने ही लोग सनकते रहते हैं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते हैं। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना तथा अपने साथियों का कितना अहित करते हैं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ ही रही है। मनोविकार ग्रसित, अर्धविक्षिप्त लोगों की गणना की जाय तो आधी से अधिक जनसंख्या इसी चपेट से आई हुई दिखाई पड़ेगी शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति बहुत ही स्वल्प संख्या में मिलेंगे। जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त-पूर्णनिरोग कहा जा सके, ऐसे लोगों को ढूँढ़ निकालना इन दिनों अतीव कठिन है।

‘एटम एण्ड सोल’ ग्रंथ की सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती जे0 सी0 ट्रस्ट, एक क्रान्तिकारी धार्मिक सन्त के रूप में प्रख्यात रही है। उनने न केवल आत्मसत्ता का प्रतिपादन किया है, वरन् यह भी बताया है कि दुष्कर्मों की परतें किस प्रकार आत्मा को पतित और अविकसित स्थिति में डाले रहने का कारण बनती है। उनने शारीरिक और मानसिक रोगों के उपचार की अपनी निजी पद्धति को विकसित किया और लाभ पहुँचाया। अपने जीवन काल में उन्होंने असंख्यों को रुग्णता से मुक्ति दिलाई और ऐसे रोगी अच्छे किये जिन्हें असाध्य घोषित कर दिया गया था उनके उपचार में पापों का प्रकटीकरण और उनका प्रायश्चित ही प्रमुख विधान था। मन की दुराव, ग्रंथियाँ खोल देने पर मनुष्य अपने आपको बहुत हलका अनुभव करता है और न केवल मानसिक भार से वरन् रोगों के कष्ट से भी छुटकारा प्राप्त कर लेता है।

रंगाई से पूर्व धुलाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला कुचैला है तो उस पर रंग ठीक तरह न चढ़ेगा। इस प्रयास में परिश्रम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरान्त उसकी रंगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करते हैं। दीवार बीच में हो उसके पीछे बैठा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।

उपासना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्म शोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर शोधन के लिए नेति-धोति वस्ति, न्यौली, वज्रोली, कपाल भाँति क्रियाएँ करने का विधान करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका, चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई कर ली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारा जाय और पिछले जमा हुए कूड़े-करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के काया कल्प विधान में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन आदि कृत्यों द्वारा पहले मल शोधन किया जाता है तब उपचार आरम्भ होता है। आत्म-साधना के सम्बन्ध में भी आत्म शोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

प्रायश्चित विधानों ड़ड़ड़ड़ड में भरे पड़े है। ड़ड़ड़ड़ड के बगीचे से बिना पूछे ड़ड़ड़ड़ड उतने राजा के पास जाकर ड़ड़ड़ड़ड दण्ड व्यवस्था कराई और उसे ड़ड़ड़ड़ड रखने वाली आँखों को ही नष्ट कर लिया था इस पर वे सूरदास बने। सती ने शिव जी का आदेश न माना और वे बिना बुलाये पिता गृह चली गई। भूल में समझ में आने पर उनने आत्म हत्या कर ली। धृतराष्ट्र और गान्धारी ने अपनी यह भूल स्वीकार की कि उनने अपने पुत्रों को अनीति से रोकने में आवश्यक कड़ाई नहीं बरती और महाभारत का महाविनाश उत्पन्न हो गया। दोनों ने प्रायश्चित तप करने की ठानी और वे मरण पर्यन्त वनवास में रहकर तपश्चर्या करते रहे। कुन्ती ने भी अपनी भूले स्वीकार की और वे भी धृतराष्ट्र गान्धारी की सेवा करने तथा अपना तप करने के लिए उन्हीं के साथ बन चली गई। भूलें मात्र कौरवों की ही नहीं उसमें जुआ खेलने और पत्नी को दाँव पर लगाने जैसे अनेक दोष पाण्डवों के भी थे, अस्तु उन्हें भी हिमालय में शीत से गल कर प्राण त्यागने का प्रायश्चित विधान अपनाना पड़ा।

भीष्म शरशय्या पर पड़े थे। मृत्यु सामने थी। उनने प्रयत्न किया कि मृत्यु टल जाय और वे उसी कष्टकर स्थिति को देर तक सहन करें ताकि अनीति समर्थन के पाप का प्रायश्चित सम्भव हो सके। बाल्मीकि पहले डाकू थे पीछे ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चले। इस परिवर्तन बेला में उनने पापों का प्रायश्चित करने के लिए तप साधना को आवश्यक समझा। वर्णन है कि वे अविचल साधना को आवश्यक समझ। वर्णन है कि वे अविचल साधना में बैठ गये। उनके शरीर पर दीमक ने धर बना लिया। ब्रह्म जी ने आकर दीमक छुड़ाई और पाप मुक्ति का वरदान दिया। इसी घटना के आधार पर उनका नाम बाल्मीकि पड़ा बाल्मीकि संस्कृत में दीमक को कहते हैं। ऐसी ही कथा सुकन्या की है। उसने महर्षि च्यवन के तप संलग्न शरीर पर जमी हुई मिट्टी को मात्र टीला समझा और उसमें से चमकती आँखों को कोई अद्भुत वस्तु। जानने की दृष्टि से आँख वाले छेदों में लकड़ी डाली तो आंखें फूट गई और रक्त बहने लगा। सुकन्या को जब इस अनर्थ का पता लगा कि उसकी भूल से कितनी बड़ी दुर्घटना हो गई इसका अनुमान लगाया तो निश्चय लिया कि वह उनकी सेवा आजीवन करेगी और अपनी आँखों का ही नहीं पूरे शरीर का लाभ उन्हें देगी। आग्रहपूर्वक सुकन्या च्यवन ऋषि की पत्नी बनी और उसके इस प्रायश्चित तप से न केवल च्यवन को आरोग्य प्राप्त हुआ वरन् सुकन्या का यश भी अमर हो गया।

अंगुलिमाल ने चोरी, डाके से मुँह मोड़कर बुद्ध की शरणागति प्राप्त की। साथ ही प्रायश्चित रूप दुष्कृत्यों से कमाया धन धर्मप्रचार के लिए समर्पित कर दिया। अम्बपाली भी इसी राह पर चली। भक्ति मार्ग पर चलने का निश्चय करने के साथ ही उसने न केवल वेश्यावृत्ति छोड़ी वरन् उस आधार पर कमाई हुई विपुल सम्पदा भी बौद्ध विहारों के लिए दान कर दी। ऐसा ही प्रसंग पिंगला वेश्या का है। उसने भी भक्ति मार्ग अपनाने के साथ साथ जीवन परिवर्तन की वास्तविकता सिद्ध करने के रूप में प्रायश्चित किया था और अपना उपार्जन सत्कर्म में लगाया था सम्राट अशोक ने भी यही किया था। उन्हें ‘चण्ड’ कहा जाता था। चण्ड अर्थात् क्रोधी। उनने अपने यौवन काल में अनेकों क्रूर-कर्म किये थे। जब मुड़े बदले तो उन्होंने साधु की तरह निर्वाह रीति अपनाई और अपनी समस्त राज्य सम्पदा बौद्ध-धर्म के प्रचार कार्य में लगा दी। इस प्रकार के सर्वमेध की प्रेरणा उन्हें सम्राट हर्षवर्धन के चरित्र से मिली थी। कुमारिल भट्ट ने प्रायश्चित्त स्वरूप ही अपने शरीर को अग्नि धूम्र में नष्ट किया था।

मोटे तौर से चोरी, व्यभिचार, छल, क्रूरता आदि को ही पाप समझा जाता है और जिनने वैसा कुछ नहीं किया है वे अपने आपको निर्दोष निष्पाप मानते हैं। यहाँ यह समझने योग्य है कि अपराधों की श्रेणी में गिने जाने वाले दुष्कर्म तो सामाजिक पाप है। आत्मिक पाप उससे भिन्न है जिन्हें लोग अनुभव तक नहीं करते। जीवन सम्पदा ईश्वर प्रदत्त विशुद्ध अमानत है जिसे इस विश्व उद्यान को सुरम्य, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए दिया गया है। यदि उस पुण्य प्रयोजन की उपेक्षा की गई है और पेट प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों में ही उसे बर्बाद कर दिया गया है तो यह प्रत्यक्ष परब्रह्म परमात्मा की अवज्ञा है। उसे रुष्ट करने वाली ब्रह्म हत्या है। इसी प्रकार यह भी समझा जाना चाहिए कि मात्र मनुष्य योनि ही एक ऐसी है जिसमें आत्म कल्याण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। अपूर्णता को पूर्णता में बदल सकना- बन्धन से मुक्त हो सकना-नरक से निकल कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकना मनुष्य योनि में बन पड़ने वाले पुरुषोत्तम, अणु से विभु, आत्मा से परमात्म बन सकने का अवसर एक असाधारण, अनुपम सुअवसर है। इस सौभाग्य को उन प्रयोजनों में लगाया जाना ही बुद्धिमत्ता है जिनके सहारे आत्मोद्धार सम्भव होता है। यदि इस दिशा से विमुख रहा जाय-वासना तृष्णा की लोभ, मोह की क्षुद्र प्रवृत्तियों में उलझे रहकर हेय जीवन बिताया जाय तो समझना चाहिए कि यह एक प्रकार से आत्मघात ही हुआ। इसे तात्त्विक आत्म हत्या भी कहा जा सकता है।

ब्रह्म-हत्या और आत्म-हत्या के पातकों को सर्वोपरि बताया गया है। चोरी, ठगी आदि सामाजिक पापों से उनका वजन बहुत भारी है। तद्नुरूप दण्ड भी अन्य सब पातकों से इनका अधिक है। जिनने अपराध वर्ग में गिने जाने वाले दुष्कर्म नहीं किये है उन्हें अपने को निर्दोष नहीं मान बैठना चाहिए, वरन् यह देखना चाहिए कि जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करके वे आत्म कल्याण और ईश्वर सन्तोष का आधार बना रहे है या नहीं। यदि नहीं तो, फिर निर्दोष कहाँ रहे? आत्म हनन और ब्रह्म हनन के अपराधों से छुटकारा पाने के लिए प्रत्येक आत्मिक प्रगति के इच्छुक को अपनी दिशा धारा में आमूलचूल परिवर्तन करना होता है। उच्चस्तरीय प्रायश्चित इसी आधार पर सम्भव हो सकता है।

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