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Magazine - Year 1977 - Version 2

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साधना की सफलता में आसन की उपयोगिता

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राजयोग की अष्टांग साधना में ‘यम’ नियम के उपरान्त आसन को स्थान दिया गया है। यहाँ आसन का तात्पर्य मात्र बैठने की विधि से नहीं वरन् उस स्थान एवं वातावरण से है। जहाँ उपासना की जाय। आसन के नाम पर सिद्धासन, सर्वांगासन, पद्मासन आदि पंरो को मोड़ने-तोड़ने के विधि विशेष को शोभित नहीं किया जाना चाहिए, वरन् उस समूचे वातावरण का संकेत सन्निहित समझा जाना चाहिए। जहाँ कि उपासना की जा रहीं है या की जानी है।

स्थान एवं वातावरण का प्रभाव व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों में रहते हुए चित्त में उद्विग्नता बनी रहेगी और आत्मिक उत्कर्ष के वे प्रयोग संघ न सकेंगे जिनमें शान्त चित्त होने की-मानसिक स्थिरता की शर्त जुड़ी हुई है। साधना में मन न लगने, जी ऊबने , चित्त के चंचल रहने की शिकायत साधकों को प्रायः बनी ही रहती है। इसका कारण मन का अनगढ़ होना और निग्रह में संकल्प-शक्ति का प्रयोग न किया जाना भी होता है। किन्तु बहुत करके वातावरण का प्रभाव भी छाया रहता है। उसके कारण भी मन उचटता रहता है। साधना जिस श्रद्धा, अभिरुचि एवं विश्वासपूर्वक की जानी चाहिए, हो नहीं पाती। स्पष्ट है कि जिसमें गहरी श्रद्धा का मनोबल युक्त संकल्प का समावेश न होगा वह आत्मोत्कर्ष के लिए किया जाने वाला साधन मात्र छुट-पुट कर्मकाण्डों के सहारे सम्पन्न न हो सकेगा। अस्तु आसन की वातावरण की उपयोगिता समझी जानी चाहिए और उसके लिए अच्छे स्थान की अच्छे वातावरण की -ही नहीं अच्छे मार्गदर्शन एवं समुचित संरक्षण की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।

किसके लिए कहाँ, क्या, कितना सम्भव है? यह निर्णय करना हर व्यक्ति का अपन काम है। उसे अपेक्षा-कृत अधिक उपयुक्त तलाश करनी चाहिए। घर में यदि बहुत घिचपिच हो तो समीप में कोई सुविधाजनक सज्जनता के वातावरण वाला शान्त स्थान तलाश किया जा सकता है। घर में एक हवादार कोठरी कोलाहल रहित कोने में मिल सकें तो उत्तम है। खुली छत का भी उपयोग हो सकता है। कुछ भी न बन पड़े तो इतनी व्यवस्था तो बनानी ही चाहिए कि जितने समय तक उपासना की जाती है उतने समय तक लोगों का आवागमन न रहें। उपासना में कई व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं, पर वे सभी रहने आत्म तल्लीन ही चाहिए। एक की हलचलें दूसरों का ध्यान न उचटावें, तभी साथ बैठने की सार्थकता है।

विराध साधना के लिए शान्तिकुञ्ज का ब्रह्मवर्चस् इसी दृष्टि से बनाया गया है। यह वही स्थान है जहाँ सातों ऋषि तप करते थे और गंगा ने पृथ्वी पर अवतरित होते समय उनकी तपश्चर्या में विघ्न डालने की अपेक्षा अपने को ही सात धाराओं में विभक्त कर लेना उचित समझा था। हरिद्वार को हिमालय का प्रवेश द्वारा कहा गया है। इसे शिव लोक की संज्ञा भी दी गई थी दक्ष प्रजापति के घर में सती यहीं जन्मीं और यज्ञ कुण्ड में दग्ध हुई थीं। पार्वती ने तप करके शिव वरण जैसे कठिन संकल्प को यहीं पूरा किया था। वे सभी ऐतिहासिक स्थान इधर ही हैं। वे सभी स्थान हरिद्वार के अति समीप हैं, कुछ ही मील की परिधि में हैं। जहाँ राम, लक्ष्मण, भरत , शत्रुघ्न ने गुरु वशिष्ठ का संरक्षण एवं सामीप्य पाने और पवित्रं वातावरण का लाभ लेने की दृष्टि से अपनी-अपनी कुटिया बनाई थी और अन्तिम जीवन यहीं समाप्त किया था।

यह ऐतिहासिक चर्चा हुई। वर्तमान में भी साधना के उपयुक्त सभी विशेषताएँ और अनुकूलताएँ जुटाने का यहीं वे सभी आधार एकत्रित किये गये हैं, जिनके कारण किन्हीं स्थानों को तीर्थ कहलाने का सौभाग्य मिलता है। गंगा की गोद और हिमालय की छाया होने से सप्त ऋषियों की तपोभूमि होने से स्थान की सनातन गरिमा तो है ही । अब भी यहाँ अखण्ड दीप, नित्य यज्ञ, नियमित जप, ब्रह्म सन्दोह, आरण्यक वातावरण की परम्परा का नवीन संस्करण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। पारिवारिक स्नेह-सौजन्य से अधिक गहरा और भाव भरा वात्सल्य, दुलार देने का मातृत्व यहाँ जीवन्त है। व्यक्ति विशेष के लिए उपयुक्त परामर्श दे सकने वाले तपश्चर्या, ज्ञान-सम्पदा और अनुभवों के धनी मार्गदर्शक भी यहाँ अभी तो मौजूद हैं ही, उसका संरक्षण एक ऐसा तथ्य हैं जिससे साधना की सफलता सम्भव होनी ही चाहिए।

स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि इसके प्रत्यक्ष संचालक तो कठपुतली की तरह ही अपनी प्रत्यक्ष हलचलें करते हैं, परोक्ष में इसके पीछे एक अत्यन्त प्रचण्ड आत्म -शक्ति काम करती है। शान्तिकुञ्ज एवं ब्रह्मवर्चस् पर सीधा अधिकार उसी का है। परोक्ष रूप में यहाँ की गतिविधियों का उत्तरदायित्व उसी ने उठाया हुआ है। वही दिव्य सत्ता अपने अनुदान प्रदान करती और साधकों को वह आत्मबल उपहार रूप से देती है जिसके सहारे आत्मोत्कर्ष जैसे महान् उद्देश्य की पूर्ति में सुविधा, सरलता एवं सफलता सम्भव हो सके। इन सब तथ्यों का समावेश होने के कारण इन आरण्यकों को दिव्यलोक, दिव्य-वातावरण दिव्य-संरक्षण से सुसम्पन्न माना जाता है। जिन्हें जितने समय विशेष साधना करती हो उन्हें यहाँ आकर उसे सम्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। यों भूमि तो सर्वत्र ही भगवान की है। और सभी जगह भगवान की उपस्थिति है। फिर भी यदि आसन का-वातावरण का महत्त्व सोचा जाय तो अमुक समय तक यहाँ रहने का और साधना करने का प्रयत्न किया जा सकता है। इस क्षेत्र में अपने ही जैसे साथी संगी तपस्वी बने रहने से एक दूसरों को प्रेरणा भी मिलती है। कन्याओं का निवास प्रत्यक्ष कुमारिका देवियों की चलती-फिरती प्रतिमाओं का दर्शन कराता है। अपने समीप में भी यथा सम्भव कुछ ऐसी ही उपयुक्तता तलाश की जा सकती है।

अव आसन की वह परिभाषा आरम्भ की जाती है। जिसको बैठने से सम्बन्ध है। आसन पैरों का ही नहीं समस्त शरीर का होता है। कमर सीधी-आंखें अधोमिलित, शान्त चित्त, स्थिर शरीर यह स्थिति रहनी चाहिए। मात्र ध्यान करना हो तो दोनों हाथ गोदी में रहने चाहिए अन्यथा जप में दाहिने बांये हाथों को इधर -उधर भटकाते नहीं रहना चाहिए वरन् एक निर्धारित क्रम से ही उन्हें व्यवस्थित रखना चाहिए। समस्त शरीर को सुस्थिर रखने की व्यवस्था आसन मुद्रा कहलाती है।

पैरों को किस प्रकार मोड़कर बैठा जाय। इसका भी साधना में महत्त्व है। इस बैठक का भी शरीर पर और मन पर प्रभाव पड़ता है। और उसके सहारे साधना की सफलता में सरलता उत्पन्न होती है। यहाँ इतना और स्मरण रखने योग्य है कि उत्तानपाद शीर्षासन, मत्स्यासन , मयुरासन आदि चौरासी या न्यूनाधिक संख्या में गिनाये जाने वाले आसन एक प्रकार के शारीरिक व्यायाम हैं। आरोग्य रक्षा की दृष्टि से विशेष व्यायामों जैसा ही उनका महत्त्व है। उन्हें आध्यात्मिक साधनाओं के साथ सम्मिलित नहीं किया जा सकता । चित्र-विचित्र ढंग से शरीर के अवयवों को मोड़ने मरोड़ने से शरीरगत लाभ तो हो सकते हैं, पर मन की एकाग्रता पर तो उनके कारण उत्पन्न हुए तनाव से बाधा ही पड़ेगी।

साधना के लिए बैठने में शरीर को सुविधा की स्थिति में रखे रहने वाली मुद्रा होनी चाहिए। इसके लिए सुखासन सर्व-सुलभ है। साधारण रीति से पालथी मार बैठने का नाम- उसकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए -सुखासन उपयुक्त ही रखा गया है। इसे किसी भी साधना में किसी संकोच के प्रयुक्त किया जा सकता है। शास्त्रकार आसन का उद्देश्य और स्वरूप समझाते हुए कहते हैं। -

येन केन प्रकारेण सुखं धैर्य च जायते। यत्सुखासनमित्युक्तमशक्तस्तत्समाश्रयेत्॥ 12 जावालदर्शनोपनिषद् 3। 12

जिस प्रकार बैठने से शरीर को सुविधा हो , शान्ति में अड़चन न पड़े उसे सुखासन कहते हैं। निर्बल साधकों को ऐसे ही आसन का आश्रय लेना चाहिए।

हठस्यं प्रथमाड़ंत्वादासंन पूर्वमुच्यते। कुर्यात्तदानं स्थैर्धमारोग्यं चाँगलाधवम्॥ हठ.योग.प्रदीपिका 17

हठ योग का प्रथम अंग आसन है। आसन की स्थिरता से शरीर निरोग और जोड़ों में हलकापन रहता है।

सुखेनैव भवेद्यास्मिन्नजस्त्रं बह्मचिन्तनम्। आसनं तद्विजानीयादन्यत् सुखविनाशनम्॥ (तेजबिन्दू0)

योग साधना के लिए सिद्धासन (विधि आगे लिखी जायेगी) श्रेष्ठ होने पर भी जिस आसन से सुखपूर्वक निरन्तर ब्रह्म का चिन्तन हो सके वही आसन योगी को उपादेय है।

मार्ग दर्शक के परामर्श एवं निर्देश के अनुसार विशेष साधनाओं के लिए आसनों का भी प्रयोग हो सकता है। पर ऐसे आसनों की संख्या अधिक नहीं है। उन्हें 2-4 की सीमा के अंतर्गत ही रखा गया है।-

चतुरशीत्यासनानि सन्ति नाना विधानिच। तेभ्यश्चतुष्कमादा मयोक्तानि ब्रवीभ्यहम्॥ सिद्धासनं ततः पद्यासंन चोग्रं च स्वस्तिकम्॥ (शिव संहिता 3।100)

नाना आसनों में चौरासी मुख्य हैं। उनमें भी चार विशेष उल्लेखनीय हैं-(1) सिद्धासन (2) पद्मासन (3)उग्रासन (4) स्वस्तिकासन।

सिद्धं पद्मं तथा सिंह भदंचेति चतुष्टयम्। श्रेंष्ठंतत्रापि च सुखे तिष्ठेन्सिद्धासने सदा॥ हठयोग प्रदीपिका 1॥36॥

अर्थात्-सिद्धासन-पद्मासन सिंहासन तथा भद्रासन-ये चार साधकों के लिए श्रेष्ठ आसन हैं। इन चारों में भी सिद्धासन जागरण प्रयोगों में मूलबन्ध और सिद्धासन का विशेष महत्त्व बताया गया है।

“चतुर शीतिपीठेषु सिद्धमेव सदाम्यसेत्। द्वासप्ताँत सहस्त्राणाँ नाड़ीनाँ मल शोधन।” हठयोग

अर्थः-चौरासी आसनों में से हमेशा सिद्धासन का ही अभ्यास करना चाहिए क्योंकि वह 72000 नाड़ियों के मल को दूर करता है।

चतुरशीतिलक्षाणामेकैफं समुदाहृतम्। ततः शिवेन पीठानाँ षोड़शोनं शंत कृतम्॥9॥

आसनेभ्यः समस्तेभ्यो द्वयमेतदुदाहृतम्। एंक सिद्धासंन प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम्-गेरक्ष

चौरासी लक्ष्य योनियों के कारण आविर्भूत चौरासी लक्ष आसनों का विस्तार मनुष्य समझा न सकेंगे । इसलिए शिव जी ने सर्वसाधारण की सुविधा के लिए 84 आसन मात्र योग शास्त्र में कहे हैं। (1)सिद्धासन (2) पद्मासन

दो मुख्य आसनों में पद्मासन भी सरल है। उसका स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-

वामोरुपरि दक्षिंण च चरंण संस्थाप्य वाँन तथा, दक्षोरुपरि मश्चिमेन विधिन धृत्वा कराभ्याँ दृढ़म्। अंगुष्ठौ हृदये निधाय चिबूकं नासाग्रमालोकये-देतव्द्याधिविनाशकारि यमिनाँ पद्यासन प्रोच्यते॥ हठयोग प्रदीपिका 1।44

बाई जाँघ के ऊपर दाहिने रखो और दाहिनी जाँघ पर बांये पैर रखें। पीछे की और दोनों हाथों से दोनों पैरों के अँगूठे पकड़कर और ठोड़ी को कण्ठ से सटाकर नाक के अग्रभाग को देखें यह पद्मासन है। इससे व्याधियाँ नष्ट होती हैं।

पद्मासन की सामान्य प्रचलित रीति में पैरों पर पैर चढ़ाकर हाथ सुविधानुसार घुटनों पर अथवा गोद में रखकर बैठन का क्रम है। पीछे से हाथ ले जाकर अँगूठे पकड़ने पर उसे पद्मासन कहा जाता है।

कुण्डलिनी जागरण प्रयोग में सिद्धासन को प्रमुखता दी जाती है। यह लगातार तो नहीं हो सकता पर जितनी देर शक्तिचालनी मुद्रा एवं सुर्य वेधन प्राणायाम जैसे प्रयोग किये जाते हैं। उतनी देर उसे लगाना लाभदायक है। सिद्धासन का महत्त्व शास्त्रकार इस प्रकार बताते हैं-

किमन्यैर्बहुभिः पीठैः सिद्वे सिद्वासने सति। प्राणनिले सावधान बद्धे केवलकुँभके॥

उत्पद्यते निरायासात्स्वयमेवोन्मनो कला। तथैकस्मिन्नेव दृढे सिद्धे सिद्वासने सति। बंधत्रयमनायासात्स्वयमेवोपजायते॥ हठयोग प्रदीपका 1/43,44

अर्थात्-सिद्धासन के सिद्ध होने पर अन्य अनेक उपासनाओं के अभ्यास की क्या आवश्यकता? प्राणवायु को सावधानीपूर्वक संयमित रखकर ‘केवल कुम्भक’ प्राणायाम का अभ्यास करते हुए सिद्धासन में दृढ़ रहकर साधना करने से उन्मनी कला स्वयमेव सिद्ध होती है और तीनों ड़ड़ड़ड़ भी इस अभ्यास से स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं।

एतत्सिद्वासनं ज्ञंयं सिद्वानाँ सिद्विदायकम्॥ येनाभ्यास वशात् शीघ्र योगनिष्पत्तिमाप्नुयात्। सिद्वासनं सदा सेव्यं पवनाभ्यासिना परम्॥ शिव संहिता 3/102/103

यह सिद्धासन सिद्धि दायक है। इसके अभ्यास से अगुनिष्पति शीघ्र होती है। इसीलिए प्राणवायु के अभ्यासी साधकों को यह सिद्धासन सदा करना चाहिए।

सिद्धासन का मूल प्रयोजन मूलाधार चक्र को प्रभावित एवं उत्तेजित करना है। उसमें पैर की एड़ी का भाव मूलाधार क्षेत्र पर डालना है। इस प्रकार उत्पन्न की गई उत्तेजना कुण्डलिनी कन्द को जागृत करने में शेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। सिद्धान्त का रूप इस प्रकार बताया गया है।

निस्थानकमडि ध्रमूलधरितं कृत्वा दृढ विन्यसेत्। ड़ड़ड़ड़ पादमथैकमेव हृदये धृत्वा सम विग्रहम॥

ड़ड़ड़ड़ सयंमितेन्द्रियोचलदृशा पश्यन् भुवोरंतरं॥ ड़ड़ड़ड़ न्यारण्यकपाट भेद जनकं सिद्वासनं प्रोच्यते॥ गेरक्ष सहिता।

योनि स्थान को वाँय पद के मूल देश में दवा और चरण मेढू देश में आबरु करके एवं हृदय में ठोड़ी जमाते हुए देह को सरल रख दोनों भौहों के मध्य में दृष्टि स्थान पूर्वक यानी शिव नेत्र होकर निश्चल ड़ड़ड़ड़ से बैठने का नाम सिद्धासन है।

सिद्धासन का स्वरूप अधिक अच्छी तरह समझने के लिए उसे इस प्रकार जानने और अभ्यास में लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

सिद्धासन-कमर सीधी। ध्यान मुद्रा। बायाँ पैर इस प्रकार मोड़े कि उसकी एड़ी का ऊपरी भाग ‘सीवन’ मलमूत्र छिद्रों के मध्यवर्ती भाग के नीचे आ जाय। स्थिति ऐसी रहनी चाहिए कि सीधे बैठने पर एड़ी का दबाव ‘सीवन’ के भीतर चल रही मूत्र नलिकाओं पर पड़े।

दांये पैर को बांये पैर के ऊपर रखकर पालथी जैसी स्थिति बनाई जाय। ऐसा करने से दाहिने पैर की एड़ी नाभि से लगभग चार अंगुल नीचे उसी को सीध में जमी दिखाई देगी।

इस प्रकार दोनों एड़ियाँ शरीर की मध्य रेखा पर रहती है। तथा उनके बीच मूलाधार क्षेत्र आ जाता है।

इस प्रकार बैठने से पैरों पर दबाव पड़ता है और अधिक देर इस तरह बैठ सकने में कठिनाई होती है। अतएव आवश्यकतानुसार पैरों को बदलते रहा जा सकता है। जिस प्रकार आरम्भ में बायाँ पैर नीचे और दाहिना ऊपर रखा गया था उसी प्रकार बदलने पर दाहिना नीचे चला जाएगा और बायाँ ऊपर आ जायेगा।

सिद्धासन का अभ्यास आरम्भ में पाँच मिनट से करना चाहिए और जितना अभ्यास हो सके। उठने पर पैरों को कष्ट अनुभव न हो उतनी देर चलाया जा सकता है। प्रायः 15 मिनट से आधा घन्टे तक यह अभ्यास आसानी में बढ़ सकता है। इसका प्रयोग सामान्यतः जप में नहीं सूर्यभेदन प्राणायाम जैसी विशेष साधनाओं में ही करना चाहिए। सामान्य गायत्री जप ध्यान आदि में तो सामान्य पालथी मार कर बैठना ही पर्याप्त होता है। तनाव उत्पन्न करने वाले साधनों से सामान्य साधन में ध्यान बँटता है।

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