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Magazine - Year 1977 - Version 2

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Language: HINDI
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योग का प्रयोजन और प्रतिफल

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योग का अर्थ है जोड़-मिलना अध्यात्म साधना के क्षेत्र में यह शब्द आत्मा और परमात्मा को मिलाने वाली पुण्य प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे सद्ज्ञान और सत्कर्म का समन्वय भी कह सकते हैं। ठण्डे गरम तार मिलने से विद्युत धारा प्रवाहित होती है। दोनों तारों में रहती तो वह पहले से ही है पर परिचय तभी मिलता है जब दोनों का मिलन हो। संसार में सबसे बड़ा दुःख वियोग है। प्रिय परिजनों से बिछुड़ जाने पर जितना कष्ट होता है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं होता। आत्मा को अपने परम प्रिय परमात्मा से विलग होने पर अहर्निश पग-पग पर कुकर्म घेरते हैं और शोक सन्ताप दुःख देते हैं। अपहरण घटना के बाद सीताजी को भी दुःख सहना पड़ा और राम भी उद्विग्न ही बने रहे।

मोटे शब्दों में भौतिक और अध्यात्म का समन्वय योग कहा जा सकता है। साधनों की कमी नहीं। निर्धन कहलाने वाले व्यक्ति के पास भी शरीर, मन, बुद्धि, प्रतिभा आदि साधन होते हैं। सहयोग, प्रभाव, सम्पर्क भी हर किसी को न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध रहता ही है। धन तथा अन्य साधन भी किसी कदर होते ही हैं। यह सब मिलकर इतना हो जाता है कि इतने का ही यदि ठीक प्रकार उपयोग हो सके, उनको उचित रीति से उचित प्रयोजनों में संलग्न किया जा सके तो कुछ ही समय में आश्चर्यजनक प्रतिफल दृष्टिगोचर हो सकते हैं। पर होता अत्यन्त विचित्र है। यह सभी साधन आदर्शवादी लक्ष्य के अभाव में ऐसे ही अस्त-व्यस्त होते रहते हैं और उस अपव्यय के फलस्वरूप चित्र-विचित्र दुष्परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। अपनी ही क्षमता अपने ही विनाश में संलग्न रहें तो इसे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना ही कहा जाएगा

साधन और सत् प्रयोजन का समन्वय हो सके तो उसे व्यावहारिक जीवन का योग कहा जाएगा इस सुयोग की व्यवस्था जिनने भी बनाई होगी वे स्वल्प साधनों से भी आशातीत प्रगति कर सकने में समर्थ हुए होंगे।

जिन्हें यह सन्मार्ग नहीं मिला। जो साधनों को बाल क्रीड़ा के मनोविनोदों में गँवाते रहे और दुर्जनों की भाँति उन्हें दुष्कर्मों में नष्ट करते रहे ऐसे मनुष्यों की जीवन सम्पदा सुर दुर्लभ होते हुए भी अभिशाप दुर्भाग्य ही सिद्ध होती रहेगी

मनुष्य जीवन का मूल्य, उत्तरदायित्व एवं सदुपयोग न समझ सकने के कारण ही हेय गतिविधियाँ गले बँधती हैं और सर्वनाश का पथ-प्रशस्त होता है। जन्म-जन्मान्तरों से संगृहीत पशु प्रवृत्तियाँ अपने उन्हीं हेय संस्कारों के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिये आकर्षित करती रहती हैं जो निकृष्ट योनियों में भले ही उपयोगी रही हों पर मनुष्य स्तर में पहुँचने के बाद वे सर्वथा अनुपयुक्त पड़ती हैं। बचपन के कपड़े बड़े होने पर निरर्थक हो जाते हैं। बड़ा आदमी बच्चों की तरह तोतली बोली बोले या खिलवाड़ करे तो उससे मात्र उपहास ही होगा। पशु प्रवृत्तियों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए यदि नर बानरों जैसा चिन्तन एवं कर्तव्य अपनाया जाय तो उस रीति-नीति को दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा

योगाभ्यास का आरम्भ चित्त वृत्तियों के निरोध से आरम्भ होता है। पतंजलि योग दर्शन के पाद 1 सूत्र 2 में योग की व्याख्या करते हुए उसे चित्त वृत्तियों को रोकने की प्रक्रिया बताया गया है। आमतौर से इसका अर्थ चित्त निरोध-एकाग्रता का अभ्यास समझा जाता है। यह अभ्यास योग का बहुत छोटा अंश है-इसे योग का भौतिक भाग कह सकते हैं। एकाग्रता अध्यात्म साधकों का ही नहीं ऐसे अनेक संसारी उसमें पारंगत होते हैं जिनका अध्यात्म से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। सरकस के नट-नर्तकों का सारा खेल एकाग्रता की सिद्धि पर ही टिका होता है यदि उनका ध्यान बँटने लगे तो तार पर चलने झूलों पर उछलने, जलती मशालों की शृंखला उछालने जैसे करतब दिखा सकना किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। हिसाब किताब सही रखने वाले मुनीमों में अपने काम में समुचित एकाग्रता रखने की ही विशेषता होती है। वैज्ञानिक, कलाकार, चित्रकार मूर्तिकार, साहित्यकार आदि अपने अपने विषयों में तन्मय हो सकने की विशेषता उत्पन्न करते और सफल होते हैं। बन्दूक का सही निशाना लगाना। एकाग्रता की शक्ति पर ही निर्भर है। ऐसे ही अन्य अनेक काम हैं जिनसे लोग एकाग्रता सम्पादित करते हैं और चमत्कारी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। इसे एक मस्तिष्कीय कौशल कह सकते हैं। इसे एक मस्तिष्कीय कौशल कह सकते हैं। आध्यात्म प्रयोजनों में भी इस विशेषता की आवश्यकता पड़ती है। इतना होते हुए भी मात्र उसी विशेषता के आधार पर किसी को योगी नहीं कहा जा सकता।

चित्त निरोध का अर्थ है मन की अस्त-व्यस्त उछलकूद को नियन्त्रित करके किसी विशेष प्रयोजन में लगे रहने का अभ्यास। यह आवश्यक है और सराहनीय भी, पर इससे योग साधना का प्रयोजन पूरा नहीं होता। आत्मिक प्रगति के लिए मात्र चित्त की नहीं-गहराई में उतर कर चित्त वृत्तियों के निरोध की बात सोची जानी चाहिए। चित्त निरोध और चित्त वृत्तियों के बची का अन्तर प्रत्येक विचारशील के मन मस्तिष्क में स्पष्ट रहना चाहिए।

कितने ही अध्यात्म क्षेत्र में महामानव ऐसे हुए हैं जिनमें एकाग्रता कम और चंचलता अधिक थी। मीरा, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, सूरदास आदि भक्त शिरोमणि स्तर के समझे जाने वाले मूर्धन्य अध्यात्मवादियों को एकाग्रता की नहीं वरन् व्याकुलता की सिद्धि थी। लक्ष्य के प्रति व्याकुलता का भी उतना ही मूल्य है जितना एकाग्रता का। स्वामी विवेकानन्द से किसी ने पूछा कि कि ईश्वर प्राप्ति की सम्भावना किस स्तर की मनोभूमि में होती है? इसका उत्तर देने के लिए उन्होंने बात को फिर कभी के लिए टाल दिया। एक दिन वे उस प्रश्नकर्ता को अपने साथ नदी स्नान के लिए कहा। कठ तक पानी में उतर जाने पर उनने जिज्ञासु की गरदन पकड़ ली और उसे बलपूर्वक पानी में डूबो दिया। जब वह घबराया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। इस विचित्र व्यवहार का कारण पूछने पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि यही तुम्हारे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है जिसमें ईश्वर को प्राप्त करने की मनःस्थिति के बारे में पूछा गया है। डूबते समय तुम्हें अपनी प्राण रक्षा के लिए उत्कट प्रयत्न करने के अतिरिक्त और किसी बात का ध्यान नहीं था। ठीक यही स्थिति साधक की होनी चाहिए उसे ईश्वर की प्राप्ति के लिए इतनी व्याकुलता ही कि अन्य कोई बात सूझ ही न पड़े। इस प्रसंग में उस एकाग्रता का समर्थन है जो व्याकुलता के कारण उत्पन्न हुई हो।

किन चित्त वृत्तियों का अवरोध करना होगा इसका संकेत पतंजलि योग दर्शन के पाद 1 सूत्र 6 में दिया गया है। कहा गया है-प्रमाण विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृतः प्रायः यही पाँच प्रकार की चंचलताएँ मन पर छाई रहती हैं और उसे उच्च उद्देश्यों के विरत करके पशु प्रवृत्तियों में उलझाती हैं। प्रमाण वृत्ति उसे कहते हैं जो इन्द्रिय विषयों के पूर्वाभ्यास से संबंधित विषयों के प्रसंग सामने आने पर उभरती है। विपर्यय कहते हैं प्रतिकूल ज्ञान को वस्तु स्थिति की, जानकारी न होने से चित्त कस्तूरी के हिरन की तरह मृग तृष्णा में मारे-मारे फिरने वाले मृग की तरह उद्विग्न फिरता है। विकल्प का अर्थ है- भय, आशंका, सन्देह, अशुभ सम्भावना आदि कुकल्पनाओं से उत्पन्न कायरता निद्रा का अर्थ है आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, अवसाद, अनुत्साह। स्मृति के संस्मरण है जो निकृष्ट योनियों में रहते समय अभ्यास में आते रहे-स्वभाव के अंग बने रहे। उनकी छाया मनुष्य योनि में भी छाई रहती है और उसके फलस्वरूप कई बार इतने जोर से उभरती है कि विवेक मर्यादाओं के बाँध तोड़ कर वैसा करा लेती है जिसके संबंध में पीछे पश्चाताप करना ही शेष रह जाता है।

जिस युग में-जिस समाज में-जिस वातावरण में हम रहते हैं उसमें अवांछनीय प्रचलनों की कमी नहीं। उनका आकर्षण मन को अपनी और खींचता लुभाता है। पानी स्वभावतः नीचे गिरता है। अधिकांश लोग अवांछनीय गतिविधियों अपना कर अनुपयुक्त जीवन जीते हैं। इसमें वे तात्कालिक लाभ भी पाते हैं, पीछे भले ही उन्हें दुष्परिणाम भुगतने पड़े। इस तत्काल लाभ की बात सहज ही मन को आकर्षित करती है और दबी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ उभर कर उस मार्ग पर घसीट ले जाती हैं जो मनुष्य जैसे विवेकवान प्राणी के लिए अशोभनीय है।

योग साधना का मूल उद्देश्य इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के साथ प्रचण्ड संघर्ष खड़ा कर देना है। जिस महाभारत में कृष्ण और अर्जुन ने सम्मिलित भूमिका निबाही थी वह आत्म परिष्कार में योग साधना के साथ पूरी तरह संबंधित है। कौरव दल इन्हीं कुसंस्कारों का नाम है जो निकृष्ट योनियों से साथ चले आ रहे हैं और वातावरण में घुसी अवांछनीयता के कारण भड़कते हैं। कौरवों ने पाण्डवों की सारी सम्पदा हथिया ली थी। उसे वापिस लेने के लिए युद्ध करना पड़ा। आत्मिक गरिमा पर असुरता आच्छादित हो रही है। उसके इस चंगुल से छुड़ाने के लिए विरोध प्रतिरोध का महाभारत खड़ा करने के अतिरिक्त और कोई उपाय रह नहीं गया था। योगाभ्यास में भी इसी ‘निरोध’ प्रतिरोध का विरोध संघर्ष का उल्लेख है। इसमें आत्मा और परमात्मा का सद्ज्ञान सत्कर्म का-समन्वय करने पर विजय सर्वथा निश्चित हो जाती है।

योग के इस दार्शनिक पक्ष को परिपुष्ट करने के लिए कतिपय वर्षों कृत्यों का अवलम्बन करना पड़ता है। पहलवान बनने के लिए व्यायामशाला में सिखाये जाने वाले दण्ड बैठक आदि कर्मकाण्डों को पूरा करना पड़ता है। साथ ही ब्रह्मचर्य, पौष्टिक आहार, मालिश आदि की विधि व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इस अभ्यासों से अन्तरंग में छपी बलिष्ठता उभरती है और मनुष्य कुछ की समय में पहलवान स्तर का बनता चला जाता है। योगाभ्यास की निर्धारित गतिविधियाँ अपनाने का भी ऐसा ही प्रतिफल होता है।

इन अभ्यासों की उपयोगिता भी है और आवश्यकता भी। शास्त्रकारों में योग साधना का महात्म्य भी बताया है और उसके स्वरूप एवं तत्त्व दर्शन को समझाने का प्रयत्न करते हुये कहा है-

अभ्यासात्कादिवर्णानि यथाशास्त्राणि वोधयेत्। तथा योगं समासाद्य तत्वज्ञानं च लम्यते-घेरण्ड संहिता 1। 5

जैसे क ख ग घ से अक्षरारम्भ का अभ्यास करते हुए शास्त्रज्ञ, विद्वान् बन जाते हैं, वैसे ही योग का अभ्यास करते-करते तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।

ज्ञान और कर्म के अभय युग्मों के समन्वय की शेष से योग की प्राप्ति कहा जाता है।

योगेन योगों ज्ञातव्यो योगों योगोत्प्रवर्तर्त। योऽप्रमत्तस्तु योगे न सयोगी रमते चिरम्-महायोग विज्ञान

योग साधना से ही योग को जानना चाहिए। साधना से ही योग की प्राप्ति होती है। जो सावधानी के साथ योगसाधना में निरत है, वही चिरकाल तक आनन्द पाता है।

तथेति स होवाच- योगेन योगों ज्ञातव्या योगों योगात् प्रवर्घते। योऽप्रमुत्तस्तु योगेन न रमते चिरम्-सौभाग्य लक्ष्म्युपनिषद् 1

उन्होंने कहा-योगाभ्यास से योग की अभिवृद्धि होती है। योग के द्वारा ही योग को जानना चाहिए। योग में ही दत्त चित्त रहने वाला व्यक्ति चिर शान्ति उपलब्ध करता है।

योग न तो कठिन है, न अशक्य है वह सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। इस मार्ग पर न्यूनाधिक जितना भी चला जा सके उतना लाभ ही है। हानि को तो आशंका है ही नहीं।

जड़ पदार्थों में 1+1 को जोड़ 2 बनता है। प्राणियों की चेतना का सहयोग समन्वय होने से यह तथ्य भिन्न प्रकार से होता है। 1 और 1 को बराबर रख देने से वे 11 बन जाते हैं। दो सच्चे मित्र सहयोगी मिलकर असाधारण काम करते हैं, दो बैलों की जोड़ी से खेती का सारा काम चलता है। गृहस्थ जीवन में पति-पत्नी का सहयोग छोटे से परिवार में स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है। यदि आत्मा और परमात्मा का सद्ज्ञान और सत्कर्म का समन्वय हो सके तो समझना चाहिए इस उच्चस्तरीय योग का परिणाम एक से एक बढ़ी-बढ़ी सिद्धियों और विभूतियों के रूप में सामने उपस्थित होगा।

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