
श्रद्धा अन्तः जीवन की एक प्रबल शक्ति
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अन्तः कारण की सबसे प्रबल एवं सबसे उच्चस्तरीय शक्ति ‘श्रद्धा’ है। श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था रखने को श्रद्धा कहते हैं। यह जब सिद्धान्त एवं व्यवहार में उतरती है। तो उसे निष्ठा कहते हैं। जब वही आत्मा के स्वरूप, जीवन दर्शन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है। तो श्रद्धा कहलाती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए आत्मा कल्याण के लिए इस शक्ति का उभार एवं अवलम्बन आवश्यक है। रामायण में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर की उपमा देते हुए कहा गया है कि इनकी सहायता के बिना अन्तरात्मा में बैठा हुआ परमात्मा किसी को मिल नहीं सकता।
श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय होता है। एकलव्य ने मिट्टी की द्रोण प्रतिमा द्वारा उतनी शिक्षा प्राप्त कर ली थी जितनी पाण्डव जीवन्त द्रोणाचार्य से भी प्राप्त न कर सकें। मीरा , सूर, तुलसी का भगवत् दर्शन उनकी गहन श्रद्धा के आधार पर ही सम्भव हुआ था। ईश्वर , कर्मफल, जीवनोद्देश्य, कर्तव्यपालन आत्मा की गरिमा जैसे तथ्यों पर सघन श्रद्धा रखने वाले लोग ही महामानवों की पंक्ति में बैठ सके है।
साधना में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है। यदि विश्वास न हो तो उपासनात्मक कर्मकाण्डों का उतना ही फल मिलेगा जितना कि उतने समय तक किये गये हलके फुलके शारीरिक परिश्रम का। उसी साधना को करते हुए एक व्यक्ति चमत्कारी फल प्राप्त करता है। पर दूसरे को असफल रहना पड़ता है। इसमें श्रद्धा की मात्रा में न्यूनाधिकता होना ही प्रधान कारण होता है।
अपनी पुस्तक “मैन इन द मोर्डन एज” में कार्ल यार्स्पस ने लिखा है कि “ आज कारखाने का एक श्रमिक या किसी बड़े संस्थान का एक कर्मचारी मशीन का वह पुर्जा होता है, जिसमें अपने विशिष्ट अस्तित्व का कोई भी अर्थ नहीं होता’ तथा जिसे कभी भी वैसे ही दूसरे पुर्जे से बदला जा सकता है”।
मुख्यतः वे विचार-दर्शन जो कि इस बात पर बल देते हैं। कि मानवीय -जीवन का लक्ष्य मात्र पशुवत् पेट एवं प्रजनन के सुखों और संघर्षों में सिमटने रहे आना है, अनास्था को उत्पन्न करते हैं। लेकिन ऐसे विचार दर्शन की काट मात्र ताकि स्तर पर सम्भव नहीं है। जब देखा-पाया यही जाता है। कि कथित विशिष्ट और ‘बड़े’ लोग भी क्षुद्र भोग-लिप्सा अन्धी यश-लिप्सा और उद्धत मिथ्याचार से ही आपादमस्तक सने और सन्तुष्ट हैं, तो लोक-जीवन में आस्था का आधार ढह जाता है। आस्था टिकती है-प्रामाणिकता की नींव पर । प्रामाणिक व्यक्तित्व ही लोक आस्था को दृढ़ एवं दीर्घ जीवी बना सकते हैं।
आधुनिक युग में महात्मा गाँधी इसके प्रत्यक्ष एवं प्रबल प्रमाण हैं। उन्होंने स्वयं अपनी आस्था को हर श्वास में ज्वलन्त जीवन्त रखा। तद्नुरूप आचरण की साधना की । कभी क्षण भर को भी गाँधी जी इस आस्था से विचलित नहीं हुए कि एक सार्वभौम सत्ता है और वही चमत्कार को जन्म दिया। जिसके सामने शास्त्रों अणुबमों की शक्ति भी तुच्छ है।
समर्थ गुरु श्री रामदास ने समाज में जिस आस्था को जन्म दिया, वह शिवाजी के उत्कर्ष का आधार बनी। सन्त-पुरुष वही कहे जाते हैं। जिनमें यह आस्था प्रखर होती है। विलियम जेम्स ने “द वेरायटीज आव् रिलीजस एक्पीरियेन्स “ नामक पुस्तक में लिखा है। कि “विश्व कल्याण हेतु वे सद्गुण नितान्त आवश्यक हैं, जो सन्तों में पाये जाते हैं। “
अतः आज जो आस्थाहीनता की स्थिति उत्पन्न है, उसका एकमेव कारण समाज के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिभाशालियों की स्वयं अपने पर ही आस्था न होता है। यह आत्म पलायन की स्थिति है। जब व्यक्तियों में आम आस्था नहीं होती तो वे हर बात में दूसरों का मुँह जोहने लगते हैं। आत्मा-निष्ठा की कमी वस्तुतः एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।
वह व्यक्ति के अन्तःकरण को स्पर्श करने में असमर्थ ही रहती है। जबकि कला में यही सामर्थ्य मुख्य है। इमसैन ने कहा है-प्रतिभाशाली की प्रत्येक कृति में हम अपने ही विचारों को पाते हैं।” अपनी कृति “फार्मस् आव् मार्डन फिक्शन” में श्री डब्ल्यू0 बी0 ओ0 कोनार लिखते हैं कि “कभी कभी कवि हमें पहली बार उन तथ्यों से अवगत कराता है, जो कि किसी युग की विशेषताएँ होती है।” इस संबंध में कवि पोप की यह उक्ति सर्वाधिक सुन्दर प्रतीत होती है कि “कला हमें स्वयं अपने ही मन का चित्र पुनः पकड़ा देती है।”
इतिहासकार अर्नाल्ड टायनवी ने कहा है-प्रतिभाशाली जीवन में दो विशेषताएँ होती है-वे अपने को पूरी तरह काट लेते हैं, लेकिन लोकहित उनका सदैव ध्येय बना रहता है और इस रूप में वे समाज से सदा जुड़े रहते हैं। इसका कारण क्या है? श्री डब्ल्यू0 डी0 स्टेस ने “रिलीजन एण्ड द मार्डन माइन्ड” नामक पुस्तक में लिखा है कि “ईसा तथा बुद्ध जैसे नैतिक प्रतिभा सम्पन्न महापुरुषों में यह पाया कि मनुष्य सुखी नहीं हो सकता, जब तक उसके चारों और सब सुखी नहीं है। क्योंकि व्यक्ति सम्पूर्ण मानवता से सशक्त है। मानवजाति के सुख में ही उसका सुख है। यही इन महापुरुषों की सबसे बड़ी खोज थी।”
वस्तुतः मनुष्य एक सहकारी प्राणी है। वह सामाजिक प्राणी, मात्र इसलिए नहीं है कि इससे उसकी पाशविक आवश्यकताएँ पूरी होती है। अपितु इसलिए है कि इससे उसकी सृजनात्मक आवश्यकता पूरी होती है। अर्नाल्ड टायनावी ने “सृजनात्मक व्यक्तियों” की अवधारणा प्रस्तुत कर उन्हें ही मानव-समाज का सर्वश्रेष्ठ अंश बताया है। यह सृजन-सहकारिता द्वारा ही सम्भव है।
जन जीवन में आस्थाओं की कमी होने के कारण ही प्रस्तुत समस्याओं की विविध-विधि उलझने खड़ी हो रही है। आदर्शों और मर्यादाओं की उपेक्षा होने से ही व्यक्तिगत जीवन में दृष्टता और समाज में भ्रष्टता पनपती है। आत्म विश्वास गिर जाने पर मनुष्य बाह्य और अन्तः क्षेत्रों में परावलम्बी-परमुखापेक्षी बनता है। आत्म विश्वास बना रहे तो ही साहस एवं उत्साह जीवित रह सकता है। वैयक्तिक प्रगति के लिए उच्चस्तरीय आस्थाओं की आवश्यकता है। समाज भी वही समृद्ध होगा जिसके नागरिकों में सामूहिक कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के निर्वाह की निष्ठा प्रखर बन कर रह रही होगी।
श्रद्धा की गरिमा व्यक्त करते हुए गीता कहती है-
सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषों यो यच्छद्ध स एव सः-गीता 17।3
अर्थात्-व्यक्ति श्रद्धामय है। जिसकी जो श्रद्धा है वह वही है, वहीं बन जाता है।
धर्म एवं अध्यात्म के आदर्शों पर जन-निष्ठा का कितना महत्त्व है इस पर प्रकाश डालते हुए मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि चिकित्सा और शिक्षा के सम्मिलित प्रयत्नों में मानव जाति का जितना हित हुआ है उससे अधिक ही आदर्शवादी निष्ठाओं ने मानवी प्रगति एवं सुख शान्ति में सहायता प्रदान की है।
मनोवैज्ञानिक चार्ल्स युग का अभिमत है कि-विश्व के समस्त मनोचिकित्सक मिल कर भी इतने मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य एवं सुखानुभूति नहीं प्रदान कर सकते, जितना कि किसी सामान्य-से सामान्य धर्म द्वारा उसके अनुयायियों को प्रदान किया जा सकता है।”
‘सिकनेस आफ सिविलाइजेशन’ में विस्तारपूर्वक मानव-सभ्यता का विश्लेषण करते हुये उसके रोगों-विकृतियों का मुख्य कारण आध्यात्मिक खोखलापन ही निरूपित किया है।
आत्म विश्वास-आत्म निष्ठा-मनुष्य जीवन की अत्यन्त उच्चस्तरीय विभूतियों में से एक है। उसके सहारे मनुष्य आदर्शों के प्रति अपनी श्रद्धा को सुदृढ़ बनाये रह सकता है। प्रलोभन और भंग उसे विचलित नहीं कर पाते। ऐसी दशा में व्यक्तित्व के विकास में आने वाले अन्य सभी अवरोध घटते मिटते रहते हैं। उनके कारण उनका मार्ग रुका नहीं रहता। श्रद्धा की शक्ति को मानवी गरिमा का उत्कृष्ट अलंकार कहा जाना चाहिए।
इमसैन कहते थे। श्रद्धा से बढ़कर कोई शक्ति नहीं। विश्वास से बढ़ कर और कोई साधन नहीं। डब्ल्यू0 बी0 कोनार लिखते हैं-युग की विशेष प्रेरणाएँ प्रायः श्रद्धावान् भावविभोर अन्तःकरणों से ही फूटती हैं’। कवि पोप की उक्ति है कि कला का आश्रय लेकर व्यक्ति अपने ‘दिव्य’ को प्रकट करता है और वातावरण की दिव्यता से भर देता है। प्रख्यात लेखिका हैरियट स्टोकी की एक पुस्तक ने समूचे अमेरिका को झकझोर दिया और उसके प्रभाव से उस देश से दास-प्रथा सदा के लिए उठ गई। उस समय के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लेखिका को सीनेट के समक्ष खड़ा करके कहा था-यही वह महिला है, जिसको लेखनी ने जन-मानस में वर्गभेद की विरोधी ज्वाला जलाई और मानवों सम्वेदनाओं को अपना पुरुषार्थ प्रकट करने का अवसर दिया।’
आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के प्रति साधन श्रद्धा- आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा और करुणा उदारता, सेवा, प्रेम, परमार्थ की भाव भक्ति का समन्वय जिस भी अन्तःकरण में होगा उसमें सन्तोष और उल्लास भरा रहेगा। ऐसा व्यक्ति सदा आनन्दित रखता है। आनन्दमय कोश की उपलब्धियाँ उपार्जित करने के लिए श्रद्धा तत्त्व को अन्तःकरण की गहराई में प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता है।