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Magazine - Year 1977 - Version 2

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हिमालय की छाया-गंगा की गोद में ब्रह्मवर्चस साधना

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साधना की सफलता में स्थान, क्षेत्र व वातावरण की असाधारण महत्त्व हैं विशिष्ट साधनाओं के लिए घर छोड़कर अन्यत्र उपयुक्त स्थान में जाने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि पुराने निवास स्थान का ढर्रा अभ्यस्त रहने से वैसी मनःस्थिति बन नहीं पाती जैसी महत्त्वपूर्ण साधनाओं के लिए विशेष रूप से आवश्यक है। कुटुम्बियों के परिचित लोगों के साथ जुड़े हुए भले-बुरे सम्बन्धों की पकड़ बनी रहती है। कामों का दबाव बना रहता है। राग द्वेष उभरते रहते हैं। दिनचर्या बदलने पर कुटुम्बी तथा साथी विचित्रता अनुभव करते और उसमें विरोध खड़ा करते हैं। आहार और दिनचर्या बदलने में विग्रह उत्पन्न होता है घरों के निवासी साथी जिस प्रकृति के होते हैं वैसा ही वातावरण वहाँ छाया रहता है यह सभी अड़चने है जो महत्त्वपूर्ण साधनाओं की न तो व्यवस्था बनने देती है और न मनःस्थिति ही वैसी रह पाती हैं। दैनिक नित्य कर्म के रूप में सामान्य उपासना तो घर पर भी चलती रह सकती है, पर यदि कुछ विशेष करना हो तो उसके लिए विशेष स्थान, वातावरण, सान्निध्य एवं मार्ग दर्शन भी चाहिए। यह सब प्राप्त करने के लिए उसके लिए उपयुक्त स्थान का प्रबंध करना वह आधार है जिस पर सफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।

यों यह कार्य घर से कुछ दूर एकान्त वाटिका, नदी तट जैसे स्थानों में भी हो सकता है। पर सुविधा हो तो हिमालय एवं गंगा तट की बात सोचनी चाहिए। बाह्य शीतलता के साथ आन्तरिक शान्ति का भी तारतम्य जुड़ा रहता है हिमालय की भूमि ही ऊँची नहीं है उसकी भूमि संस्कारिता भी ऊँची है। अभी भी इस क्षेत्र के निवासी ईमानदारी और सज्जनता की दृष्टि से प्रसिद्ध है। घोर गरीबी और अशिक्षा के रहते हुए भी उनकी प्रामाणिकता का स्तर बना हुआ है। हिमालय यात्रियों में से कभी कदाचित ही किसी को पहाड़ी कुली से बेईमानी बदमाशी की शिकायत हुई हो।

प्राचीन काल में हिमालय क्षेत्र ही स्वर्ग क्षेत्र कहलाता था। इसके अनेकों ऐतिहासिक प्रमाण अखण्ड-ज्योति में लगातार एक लेख माला के रूप में छप चुके है। देव मानवों की यही भूमि थी। थियोसोफिकल वालों की मान्यता है कि अभी भी दिव्य आत्माएँ वहीं निवास करती हैं चमत्कारों और सिद्धियों की खोज करने वाले प्रत्येक शोधकर्ता को हिमालय की कन्दराएँ छाननी पड़ी है। हनुमान्, अश्वत्थामा आदि चिरंजीवी उसी क्षेत्र में निवास करते हैं। इतिहास साक्षी है कि प्रायः सभी ऋषियों की तपश्चर्याएँ इसी क्षेत्र में सम्पन्न हुई है। सात ऋषियों की तपोभूमि हरिद्वार के उस स्थान पर थी जहाँ आजकल सप्त सरोवर हैं उनके आरमों को बचाने के लिए गंगा ने अपनी धारा को सात भागों में बाँटा, यह कथा कई पुराणों में आती है। पाण्डव, धृतराष्ट्र इसी क्षेत्र में तप करते हुए स्वर्ग सिधारे थे। अयोध्या छोड़कर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न इसी भूमि में तप करते हुए दिवंगत हुए थे। गुरु वशिष्ठ की गुफा यही थी। व्यास जी और गणेश जी ने मिलकर 18 पुराण इसी क्षेत्र वसोधरा नामक स्थान में लिखे थे। भागीरथ, परशुराम, विश्वामित्र, दधीचि जैसे परम प्रतापी तपस्वियों की साधना हिमालय में ही सम्पन्न हुई थी।

हिमालय शिव का क्षेत्र हैं उनका निवास यहीं माना जाता है उनकी दोनों धर्म पत्नियाँ इसी भूमि में उपजीं। गंगा, यमुना सहित अनेकों पुण्य नदियों का उद्गम यही है। भारत की आध्यात्मिक विभूतियों की उत्पादक भूमि यदि हिमालय को माना जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। इस मूर्तिमान् देवता की छाया में बैठकर कितनों ने न जाने क्या-क्या पाया है? अभी भी उसकी वह विशेषता अक्षुण्ण हैं जलवायु की दृष्टि से आरोग्य संवर्धक तत्त्वों की विशेषता से भी यह क्षेत्र अपने देश में सर्वोत्तम है। फिर मानसिक शान्ति और आत्मिक प्रगति के लिए जैसा वातावरण चाहिए वैसा यहाँ सदा सर्वदा उपलब्ध रहता है। ब्राह्मी शिलाजीत, अष्ट वर्ग आदि औषधियाँ अन्यत्र भी पाई उगाई जा सकती है पर हिमालय की भूमि पर जो उगता है उसमें अत्यधिक मात्रा में उपयोगी तत्त्व रहते हैं।

हिमालय की छाया-गंगा की गोद और वहाँ का भाव भरा वातावरण-साथ ही यदि शक्तिशाली संरक्षण मार्ग दर्शन मिलता हो तो उसे साधना का सुअवसर एवं साधक का सौभाग्य ही माना जाना चाहिए। ऐसे ही वातावरण में निवास करने का स्वर्गीय दिव्य आनन्द प्राप्त करने के लिए भर्तृहरि बेचैन थे। इसके लिए उन्होंने राजपाट का सारा जंजाल त्याग और योगी का देव जीवन अपना कर उच्चस्तरीय मनोरथ पूरा करने में सफल हुए। जब तक यह स्थिति न आई तब तक वे उसी के मनोरम सपने देखते रहे। भर्तृहरि शतक में उनकी अभिव्यक्ति इस प्रकार है-

गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य ब्रह्माज्ञानाभ्यसनविधिना योगनि द्रोगतस्त। किं तैभव्यिं मम सुदिवसैयैत्र ते निर्विशंकाः कण्डूँते जरइरिणाः श्रृंगमंगे मदीय॥

‘जीवन का वह सौभाग्य-दिवस कब आएगा, जब मैं गंगा तट की हिमाचल-शिला पर पद्मासन लगाकर ब्रह्मानंद में लीन समाधिस्थ बैठूँगा और वहाँ के बूढ़े हिरन मेरे अंगों को अपने सींगों से खुजलायेंगे।

ब्रह्मवर्चस् तपश्चर्या गायत्री की उच्चस्तरीय साधना हैं इसके लिए उपयुक्त स्थान एवं वातावरण की आवश्यकता थी। इसका ध्यान प्रारम्भ से ही रखा गया हैं यह आश्रम गंगा की धारा से 200 गज से भी कम दूरी पर है। सात ऋषियों की तपोभूमि के तप में यह पौराणिक साक्षी के साथ प्रख्यात हैं गंगा के मध्य सात द्वीप है जिन्हें छोटे-छोटे उपवन कहा जा सकता है उनमें ऐसे सघन वृक्ष उगे हुए हैं प्रयत्न यह रहेगा कि साधक ब्रह्मवर्चस आश्रम में निवास तो करे पर साधना के लिए निर्जन द्वीपों में चले जाया करें जिनमें कभी सप्त ऋषि तप करते थे और वे स्थान अभी जन प्रवेश से वंचित रहने के कारण अपनी मौलिक विशेषता अभी भी बनाये हुए हैं गंगा तट के शहरों का गन्दा, पानी गंगा में ही बहायी जाता है पर ब्रह्मवर्चस तक वैसा कहीं नहीं हुआ है। इससे पूर्व ऋषिकेश, देवप्रयाग, उत्तर काशी आदि जो कस्बे है उनका गन्दा पानी भी गंगा में नहीं गिरा है। इस विशेषता के कारण यहाँ की जल धारा अभी भी अपनी मौलिक विशेषता पूर्ववत् बनाये हुए है।

गंगा तट पर साधना का ही अपना महत्त्व है फिर चारों ओर गंगा घिरी होने के बीचों बीच जन शून्य द्वीपों में बैठ कर साधना करने का तो प्रतिफल और भी अधिक विलक्षण होगा। नित्य गंगा स्नान-मात्र गंगा जल पान टहलना-बैठना गंगा माता की ही गोद में-इन विशेषताओं के कारण ब्रह्म वर्चस साधना के लिए उपयुक्त वातावरण की ही व्यवस्था हुई है। इसे दैवी अनुग्रह एवं सहयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। आत्मनिर्माण के लिए परम सात्विक धन भी भाव भरी श्रद्धा के लिए अपने को सार्थक बनाने के लिए मचलता चला आ रहा है भले ही उसकी मात्रा कितनी ही स्वल्प क्यों न हो। साधना की दृष्टि से गंगा सान्निध्य का महत्त्व शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है-

यत्र गंगा महाभागा स देशस्तत्तपोवनम्। सिद्धक्षेत्रन्तु तज्ज्ञेय गंगातीरं समाश्रितम-कूर्म पुराण

जहाँ पर यह महाभाग गंगा है वह देश उसको तपोवन होता है। उसको सिद्ध क्षेत्र जानना चाहिए।

स्नातानाँ तत्र पयसि गाँगे ये नियतात्मनाम्। तुष्टिर्भवति या पुँसाँ न सा क्रतुशतैरपि-पद्य पुराण

गंगा के जल में स्नान किये हुए नियत आत्मा वाले पुरुषों को जो तुष्टि होती है वह सौ बसन्त ऋतुओं से भी नहीं होती है।

मुनयः सिद्धगन्धर्वा ये चान्ये सुरसत्तमाः। गंगातीरे तपस्तप्त्वा र्स्वगलोकेऽच्युताभवन्।11

पारजातसमाः पुष्पवृक्षाः कल्पद्रुमोपमाः। गंगातीरे तपस्तप्त्वा तत्रैर्श्वयं लभन्तिहि ।12।

तपोभिर्बहुर्भ्यिज्ञैर्प्रतैर्नानाविधैस्तथा। पुरुदानैर्गतिर्या च गंगा संसेवताँ च सा ॥13 -पद्य पुराण

मुनिगण-सिद्ध लोग-गंधर्व वृन्द और जो अन्य ड़ड़ड़ड़ में परम श्रेष्ठ है वे गंगा के तट पर तपस्या करके स्वर्ग लोक में स्थायी रूप से निवास प्राप्त कर अच्युत होते हुए ही वहाँ रहते हैं।11। गंगा के तट पर तपश्चर्या करके वहाँ पर परम ऐश्वर्य का लाभ लिया करते हैं क्योंकि वहाँ पर जो पुष्पों वाले वृक्ष है वे पारिजात ड़ड़ड़ड़ के समान है और समस्त मनोकामना पूर्ण कर ड़ड़ड़ड़ वाले कल्प वृक्षों के तुल्य होते हैं।12॥ बहुत प्रकार ड़ड़ड़ड़ यज्ञ और नाना प्रकार के व्रतों से तथा अधिक ड़ड़ड़ड़ से जो मनुष्य को गति प्राप्त होती है वही गति भागीरथी गंगा के जल में स्नानादि से प्राप्त होती है। अतः इस गंगा का भली-भाँति सेवन करना चाहिए।13।

नास्ति विष्णुसमं ध्येयं तपो नानशनात्परम्। नास्त्यारोग्यसमं धन्यं नास्ति गंगासभा सरित्-अग्नि पुराण

भगवान के समान कोई आश्रय नहीं उपवास के मान तप नहीं आरोग्य के समान सुख नहीं और गंगा समान कोई जल तीर्थ नहीं है।

येषाँ मध्ये याति गंगा ते देशाः पावना वराः। गतिगंगा तु भूतानाँ गतिमन्वेषताँ सदा।

गंगा तारयते चाभौ वंशौ नित्यं हि सेविता॥ गंगातीर्थसमुद्भूतमृद्धारी सोऽधहाऽर्कवत्॥

दर्षनात्स्पर्षनात्पानात्तगंगेतिकीर्तनाँत् पुनाति पुण्यपुरुषाँछततषोऽथ सहस्रशः-अग्नि पुराण

जिन क्षेत्रों में होकर गंगा जाती है वे पवित्र है। गंगा सद्गति देने वाली हैं जो उसका नित्य सेवन करते हैं वे अपने वंश सहित तर जाते हैं।

गंगा तट की मिट्टी धारण करना। गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल पान, गंगा नाम का जप करने से असंख्य मनुष्य पवित्र और पुण्यवान हुए है।

‘गंगोत्री महात्म्य में गंगा सान्निध्य का गुणगान इस प्रकार किया गया है।

अर्त्तनामार्तिनाशायः मोक्ष सिद्धयै तदर्थिनाम्। सर्वेषाँ सर्वसिद्धयै च गंगैव शरणं कलौ॥

दुःखियों के दुःख नाश के लिए, मुमुक्षुओं की मोक्ष सिद्धि के लिए और सबको सब प्रकार की सिद्धि के लिए, कलियुग में केवल गंगाजी ही शरण है।

ब्रह्मवैपरमं साक्षा, द्दवरुपेण धावति। पुमर्थकरणार्थ कौ, गंगेति शुभसज्ञया॥

साक्षात् परब्रह्म ही पृथ्वी में ‘गंगा’ इस शुभ नाम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ देने के लिए जल रूप से बह रहे है।

गंगाया दर्शनं पुण्यं गंगाया मवगाहनम्। गंगातीरनिवासश्च, गंगानामजपार्चनम्॥

श्री गंगाजी का दर्शन महापुण्य है, गंगाजी में स्नान, गंगातीर निवास, गंगाजी का नाम जप और उसका पूजन सब ही पुण्यप्रद है।

रागादि चित्तदोषाश्र क्षीयनते तदनन्तरम्। दोषक्षये च भगवद् भक्तिर्ज्ञानं च जायते॥

राग, द्वेष आदि चित्त के सब दोष भी उसके पश्चात् क्षीण हो जाते हैं एवं सब दोष भी नष्ट होने पर निर्मल हुए मन में ईश्वर भक्ति तथा ज्ञान भी उदित होते हैं।

सूक्ष्म ज्ञान गंगा की गायत्री कहा जाता है और उसका मूर्तिमान् स्वरूप तारिणी गंगा हैं दोनों एक ही तत्त्व के यह दो रूप है। शिवजी के मस्तिष्क से निसृत हुई यह ज्ञान गंगा ही भागीरथी बन कर प्रकट हुई है। गायत्री ओर गंगा की जन्म जयन्ती भी एक ही दिन है। जेष्ठ सुदी दशमी ही गंगा और गायत्री दोनों की जन्म तिथि है। दोनों एक रूप ही समझी जा सकती है।

एताँ विद्याँ समाराध्य गंगा त्रैलोक्य पावनी। तेन साजान्व्ही पुण्या शान्ति दा सर्वदेहिनाम्। गायऋया संयुता तस्या प्रभावमतुल ध्रुषम्।

यह ब्रह्म विद्या ही त्रैलोक्य पावन गंगा बनकर प्रकट हुई। वह प्राणियों को पवित्रता एवं शान्ति प्रदान करती है। गायत्री युक्त होने पर उसका प्रभाव और भी अतुल हो जाता है।

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