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Magazine - Year 1977 - Version 2

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आत्म बोध और तत्त्व बोध की दैनिक साधना

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‘आत्म बोध’ और तत्त्व बोध’ सद्ज्ञान की यह दो धाराएँ हिमालय से निकलने वाली पतित पावनी गंगा और तरण तारिणी यमुना की तरह है। आत्म-बोध का अर्थ है अपने उद्गम, स्वरूप, उत्तरदायित्व एवं लक्ष्य को समझना, तद्नुरूप दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण करना। तत्त्व बोध का अर्थ है शरीर उसके उपयोग एवं अन्त के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति से परिचित होना। साँसारिक पदार्थों एवं सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए सम्बन्धों में घुसी हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना तथा इनके सम्बन्ध में बरती जाने वाली नीति का नये सिरे से मूल्यांकन आत्म-बोध ओर उसके काम आने वाले पदार्थों एवं प्राणियों के साथ उचित तालमेल बिठाने को तत्त्वबोध कहते हैं। यदि इतना भर ठीक तरह जान लिया जाय तो समझना चाहिए कि ज्ञान साधना का उद्देश्य पूरा हो गया।

“हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत” का सूत्र आत्म-बोध और तत्त्वबोध की दोनों साधनाओं का प्रयोजन पूरा करता है। प्रातःकाल नींद खुलते ही हर रोज यह भावना जागृत करनी चाहिए कि आज हमारा नवीनतम जन्म हुआ है और वह सोते समय तक एक रोज के लिए ही है। इसे हर दृष्टि से श्रेष्ठतम और आदर्श रीति-नीति अपनाते हुए जिया जाय। इसके लिए शैया त्याग से लेकर रात को सोते समय तक का कार्यक्रम बनाना चाहिए। दिनचर्या ऐसी हो जिसमें आलस्य के लिए तनिक भी गुँजाइश न हो। पूरी तरह व्यस्तता रहे। आजीविका-उपार्जन नित्य कर्म, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह, लोक कल्याण के लिए अधिकतम योगदान, उपासना, स्वाध्याय, आदि के क्रिया कलापों का समुचित समन्वय करते हुए इस प्रकार निर्धारण करना चाहिए जिसमें आलस्य प्रमाद के लिए कोई गुँजाइश न रहे। विश्राम के लिए रात्रि का समय ही पर्याप्त है। जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत डाली जानी चाहिए। समय का एक क्षण भी बर्बाद न जाने पावे और उसका उपयोग निरर्थक कामों में नहीं वरन् जीवन को सार्थक बनाने वाले निर्वाह की उचित आवश्यकता पूरी करने वाले कार्यों की ही प्रमुखता रहे। मनोरंजन के लिए-थकान दूर करने के लिए-बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा उचित अवकाश देने के लिए गुँजाइश रखी जा सकती है। किन्तु गपशप, मटरगश्ती, यारबाजी में, आलस्य ऊँघने में बेकार समय न गँवाना पड़े इसकी समुचित सतर्कता बरतनी चाहिए। समय ही जीवन है श्रम ही सम्पत्ति है-इस मंत्र को पूरी तरह ध्यान में रखा जाय। निर्धारित समय विभाजन को अनिवार्य अड़चन आ पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा यथा सम्भव पूरा करने का ही प्रयत्न करना चाहिए।

जो काम किया जाय उसमें पूरा-पूरा मनोयोग लगाया जाय। हाथ में लिए काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इस कुशलता के साथ संपन्न किया जाय कि उसका स्तर ऊँचा बना रहे। आधे-अधूरे मन से उपेक्षापूर्वक, बेगार भुगतने की तरह लापरवाही के साथ जो भी काम किये जायेंगे वे फूहड़, भौंड़े, अस्त-व्यस्त और अनगढ़ होंगे। ऐसे काम कर्ता के गयेगुजरेपन के प्रमाण है। काम का स्तर अच्छा रहना इस बात पर निर्भर है कि उसे पूरी मनोयोग के साथ पूरी जिम्मेदारी के लिए-अपनी कुशलता और सतर्कता का समुचित समावेश करते हुए सम्पन्न किया जाय। जिस कार्य को उत्साहपूर्वक तन्मयता के साथ किया जाएगा उसमें समय भी कम लगेगा और चित्त प्रसन्न रहेगा। अन्यथा बेगार भुगतने पर थोड़े से काम में बेहद थकान चढ़ेगी और थोड़े से काम में ढेरों समय लग जाएगा आलस्य और प्रमाद हमारे सबसे बड़े शत्रु है। आलस्य शरीर को अपाहिज की तरह बना देता है और. विक्षिप्त जैसे आचरण वह करता है जिस पर प्रमाद चढ़ा रहता है। ऐसे आदमी पग-पग पर असफल होते हैं और अपनी कर्म हीनता के कारण उपेक्षित रहते और तिरस्कृत बनते हैं।

प्रातः उठते ही हमें अपनी सुसंतुलित दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए। साथ ही इस बात का ध्यान रखा जाय कि उन्हें करते समय आदर्शवादी दृष्टिकोण का समन्वय बना रहे। तृष्णा, लिप्सा, स्वार्थ परता, धूर्तता, अनैतिकता का दृष्टिकोण लेकर किये जाने वाले कार्य भले ही उपयोगी ही क्यों न लगते हों उनमें ऐसी त्रुटियाँ बनी रहेगी, जिनसे समाज का अहित होना और अपना स्तर गिरता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे। सामान्य कार्यों को भी यदि लोक हित और आत्म-कल्याण के आदर्शवादी सिद्धान्तों का समावेश करते हुए किया जाय तो वे कर्म-योग की श्रेणी में गिने जायेंगे और प्रत्यक्ष परमार्थ न लगते हुए भी लगभग वैसे ही उद्देश्य की पूर्ति करेंगे। दैनिक कार्यों में यह ध्यान रखा जाय कि जिन पर भी उनका प्रभाव पड़े-सम्बन्ध रहे-वे दुष्टता और दुर्बुद्धि का आक्षेप न लगा सके। अपने हर कृत्य में, ईमानदारी, सचाई, कर्तव्य परायणता और सद्भावना का समावेश होना चाहिए। इस दृष्टि को अपनाते हुए जो कुछ किया जाएगा वह नैतिक भी होगा और लोकोपयोगी भी। जिनके सोचने का ढंग ऊँचा है, वे समाज के लिए अहित कर काम कभी चुनेंगे ही नहीं, भले ही उन्हें भूखा क्यों न मरना पड़े। लोकोपयोगी कार्य करते हुए उचित पारिश्रमिक लेकर यदि भलमनसाहत का जीवनयापन किया जा सके तो उसे क्रिया-कलाप को, कर्मयोग की ही संज्ञा दी जाएगी

दिन भर के उत्तम काम उत्कृष्ट दृष्टिकोण रखते हुए सम्पन्न किये जाते रहें जिन्हें उस दिनचर्या को उस दिन को सार्थक बनाने वाली कहा जा सकता है। बीच-बीच में जब भी कुसंस्कारों की प्रबलता से आलस्य प्रमाद अथवा अनैतिक दृष्टिकोण का समावेश होने लगे तो उसे तत्काल रोका जाय। जिस तरह मुँह पर मक्खी बैठते ही तत्काल उसे उड़ाने का प्रयत्न किया जाता है। उसी प्रकार अवांछनीयता का अपने क्रियाकृत्य एवं चिन्तन में तनिक भी समावेश न होने पाये, इस पर तीखे नजर रखी जाय। जब कुछ ऐसा होता दिखाई पड़े तो उसे रोकने के लिए अपने आपको सजग किया जाय। अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों से हर घड़ी जूझते रहने के लिए जागरूक प्रहरी की हमें भूमिका निबाहनी चाहिए। चोर घर में घुसने न पाये, घुसने का दुस्साहस करे तो मार भगाया जाय इसी में सतर्कता की सराहना है। इस संदर्भ में हमें निरन्तर जागरूक रहना चाहिए। दिन भर यह ध्यान रखा जाय कि आज का दिन हमें श्रेष्ठतम आदर्शवादी रीति-नीति अपनाते हुए- पुण्य परमार्थ से भरा-पूरा बनाना है। उसमें शरीर निर्वाह एवं परिवार पालन के लिए जितना अनिवार्य रूप से आवश्यक है उतना ही संलग्न रहना है। प्रातःकाल इसी आधार पर दिन भर का कार्यक्रम बनाया जाय और उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहा जाय तो निःसन्देह संकल्प के अनुरूप वह दिन ऐसा ही व्यतीत होगा जिस पर गर्व एवं सन्तोष व्यक्त किया जा सके।

रात्रि को सोते समय यह मानकर निद्रा की गोद में जाना चाहिए कि यह जीवन के एक अध्याय का सन्तोषजनक अन्त हुआ। अब मृत्यु जैसी शान्ति को गले से लगाना है। रात्रि निद्रा को दैनिक मृत्यु माना जाय। इससे अति महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ मिलता है। हम मृत्यु को एक प्रकार से भूले रहते हैं। अस्तु जीवन का मूल्य और स्वरूप समझ पाना ही हमारे लिए सम्भव नहीं हो पाता। आमतौर से जब तक वस्तु हाथ में रहती है तब तक उसका न तो महत्त्व समझ में आता है और न उपयोग। जब वह छिन जाती है तब पता चलता है कि वह उपलब्धि कितना बड़ा सौभाग्य थी। उसका समय रहते कितना अच्छा सदुपयोग हो सकता था।

प्रगति पथ पर धीरे-धीरे बढ़ते हुए मनुष्य जन्म तक पहुँच सकना सम्भव हुआ है। यह उपहार ईश्वर का सर्वोपरि अनुग्रह है। इसमें जो सुविधाएँ हैं वे किसी भी अन्य योनि में नहीं है। बहुमूल्य अनुदानों का सदुपयोग कर सकने की दूरदर्शिता जिनमें हो उन्हें और भी श्रेष्ठ अवसर मिलने की अपेक्षा करनी चाहिए। यह हमारी अग्नि परीक्षा है कि प्रदत्त मनुष्य जन्म को हम किन प्रयोजनों के लिए किस प्रकार उपयोग में लाते हैं। पेट और प्रजनन में तो सृष्टि के निकृष्ट प्राणी भी संलग्न हैं। मानवी गरिमा की सफलता इसमें है कि इस जन्म को आत्मकल्याण और लोककल्याण के उच्च प्रयोजनों में ईश्वर की इच्छा के अनुरूप लगाये रखा जाय। जो इसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं उन्हें महात्मा-देवात्मा के उच्च पद प्राप्त करते हुए अन्ततः परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। जो पशु-प्रवृत्तियों में ही उलझे रह जाते हैं, उनके हाथ से यह भी छिन जाता है। पात्रता सम्पादन के लिए उन्हें फिर निम्न योनियों में भटकना पड़ता है। यह बहुमूल्य तथ्य विदित रहने पर भी अविदित जैसे बने रहते हैं। वह जानकारी व्यर्थ है जो क्रिया को प्रभावित न कर सके।

रात्रि को सोते समय, दैनिक निद्रा को चिर-निद्रा-मृत्यु के समतुल्य मान कर चलना चाहिए। शैया पर जाते ही कल्पना करनी चाहिए कि ‘हर दिन नया जन्म- हर रात नई मौत’ जीवन सूत्र के अनुसार अब भरण काल आ गया। एक दिन का जीवन अब समाप्त हो चला। निद्रा रूपी मृत्यु अपने अंचल में प्राण को ढक लेने के लिए निकट आ गई।

इस अवसर के लिए कल्पना यह होनी चाहिए कि शरीर में से जीव निकल कर ऊँचे प्रकाश में उड़ने लगा। मृत शरीर शैया पर पड़ा है। उसके जलने, गलाने, गाड़ने का अन्त्येष्टि होने जा रही है। अपनी जीव सत्ता पृथक है और शरीर कलेवर का अस्तित्व उसके प्रयोग में आते रहने पर भी उससे सर्वथा भिन्न है। शरीर और आत्मा की भिन्नता यों कहने-सुनने में सदैव आती रहती है, पर उसकी अनुभूति कभी भी नहीं होती। किसी मृत को श्मशान में पहुँचाते समय उसके अग्नि-संस्कार के समय शरीर आत्मा की भिन्नता-जीवन की नश्वरता एक हल्की झाँकी की तरह अन्तःकरण में उभरती है किन्तु कुछ ही क्षण में बिजली की कौंध की तरह विस्मृति में विलीन हो जाती है। अपनी स्वयं की मृत्यु का भावना दृश्य यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाय उससे आत्म-ज्ञान का वह प्रकाश उदय हो सकता है जो आध्यात्मिकता का मूलभूत आधार है। मृत्यु को निद्रा के रूप में अपनी नित्य सहचरी होने की बात सोचते हुए शयन किया जाय और उसके फलितार्थों पर विचार करते रहा जाय तो इसकी प्रतिक्रिया आत्मोत्कर्ष का पथ प्रशस्त कर सकती है।

नित्य सोते समय अपनी मृत्यु की अनुभूति करने की भावना यदि गहरी हो तो उसके साथ ही कई प्रश्न उभरते हैं। मनुष्य जीवन ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ अनुदान होने और उसके अमानत की तरह विश्व उद्यान को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए दिये जाने की बात अधिक स्पष्ट रूप से समझ में आती है। शरीर की ही साज-सज्जा में लगे रहने, आत्म-कल्याण का तथ्य भुजा देने की मूर्खता को छोड़ने के लिए व्याकुलता उत्पन्न होती है। शरीर उपकरण मात्र है, वह आत्मा के उच्च क्रियाकलाप पूरे करने भर के लिए मिला है। इन्द्रियों की वासना ओर मनोगत तृष्णा अहंता जैसे क्षुद्र कार्यों में यह अलभ्य अवसर नष्ट हो जाय और आत्मिक लक्ष्य पूरा ही न हो सके तो यह एक भयानक दुर्घटना ही कही जाएगी इस प्रकार सोच सकना तभी सम्भव होता है जब मृत्यु को शिर पर खड़ी देखा जाय। इसके बिना आत्म विस्मृति की खुमारी ही छाई रहती है और मौज मजा करते हुए दिन गुजारने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ता लक्ष्य भ्रष्ट जीव के लिए लोभ और मोह की पूर्ति करते रहना ही परम प्रिय बना रहता है।

सोते समय मृत्यु को सहचरी की तरह साथ लेकर सोया जाय तो वह सद्गुरु की तरह जीवन का मूल्य, स्वरूप एवं सदुपयोग इतनी अच्छी तरह समझाती है, जितना कोई अन्य ज्ञानी विज्ञानी भी नहीं समझा सकता। उन घड़ियों में बैरागी की, अनासक्त कर्मयोगी की भावनाएँ मन में भरी रहनी चाहिए। बैरागी, संन्यासी उसे कहते हैं जो सम्बद्ध पदार्थों और प्राणियों पर से स्वामित्व की भावना हटा लेता है। मालिकी छोड़कर माली का पद स्वीकार करता है। इस चिन्तन से विवेक दृष्टि उपलब्ध होती है। कर्तव्य पालन ही अपनी आकांक्षा बन कर रह जाता है। स्वामित्व भगवान का -सेवा धर्म अपना” इतना सोच लिया जाय तो समूचा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तृष्णा- अहंता के कारण जो अकर्म करने पड़ते हैं और अनावश्यक चिन्ताओं के बोझ शिर पर लदे रहते हैं, उन सबसे सहज ही छुटकारा मिल जाता है।

जीवन का आनन्द उसे मिलता है जो उसे खिलाड़ियों द्वारा खेले जाने वाले खेल की तरह जीता है। नाटक के पात्रों को तरह-तरह के अभिनय करने पड़ते हैं, वे उनसे अत्यधिक प्रभावित नहीं होते। विवेकशीलता इसी में है कि अपना प्रत्येक कर्त्तव्य पूरी ईमानदारी और तत्परतापूर्वक सम्पन्न करते रहा जाय और उतने भर को अपने सन्तोष एवं उत्तरदायित्व निर्वाह का केन्द्र बिन्दु मानते रहा जाय। मनोकामनाओं को कर्त्तव्य पालन तक सीमित कर दिया जाय और परिणामों की बात परिस्थितियों पर निर्भर होने को तथ्य स्वीकार कर लिया जाय तो शिर पर चढ़ी रहने वाली भविष्य की अनावश्यक चिन्ताएँ अनायास ही तिरोहित हो जाती है। सफलता और असफलता दोनों का जो समान रूप से स्वागत करने को तैयार हैं, उस सन्तुलित मनःस्थिति के व्यक्ति को तत्त्वदर्शी और विज्ञानी कह सकते हैं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन नाटक का आनन्द ले सकता है। स्वयं प्रसन्न रहना व साथियों को प्रसन्न रखना उसी के लिए सम्भव होता है। वैराग्य, संन्यास, इसी मनःस्थिति का नाम है। अनासक्त कर्मयोगी एवं स्थिति प्रज्ञ-प्रज्ञावान् ऐसे ही लोगों को कहा जाता है। रात्रि को सोते समय अपनी मनःस्थिति ऐसी ही बनाकर सोया जाय तो गहरी नींद आयेगी-चित्त बहुत हलका रहेगा और प्रातःकाल ताजगी के साथ उठना सम्भव हो सकेगा।

भारतीय धर्म वर्णाश्रम धर्म है। उसकी मर्यादा है कि जीवन के अन्तिम अध्याय में संन्यासी होकर मरना चाहिए। अब तो वे परम्पराएँ तिरोहित ही होती जाती है। पर जब तब वे मान्यताएँ जीवित थीं तब यह प्रचलन भी था कि यदि कोई व्यक्ति मरने जा रहा है और संन्यास नहीं ले सका है तो उसे ‘त्वरा संन्यास’ दिलाया जाता था। संन्यास लेने की प्रक्रिया कुछ ही समय में चिह्न पूजा की तरह सम्पन्न कर दी जाती थी। वह कृत्य हम प्रतिदिन सोते समय स्वयं ही कर लिया करें, तो इसे एक उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधना ही कहा जाएगा दिन भर जिस परिवार की सेवा की गई वह ईश्वर का उद्यान था। उसे सुविकसित बनाने के लिए अपना उत्तरदायित्व निबाहा गया, अब मालिक को सौंपकर छुट्टी पर जाया जा रहा है। धन वैभव जो कुछ भी अपने सुपुर्द था वह ईश्वर की सम्पत्ति थी उसे उसी के हवाले करके स्वयं खाली हाथों विदाई ली जा रही है। शरीर और मन यह औजार-वाहन भी ईश्वर के कारखाने से किराये पर मिले थे, उन्हें भी यथा स्थान जमा करके एकाकी अपने घर लौटा जा रहा है। यह भावनाएँ सोते समय की हैं। उनके कल्पना चित्र मनःक्षेत्र पर उतरते हुए शयन करने को नित्य नियम बना लिया जाय तो संन्यासी, एवं वैरागी की वह कुछ समय के लिए उत्पन्न की गई मनःस्थिति अगले चौबीस घण्टों तक आत्म-जागृति का उत्साह बनाये रह सकती है। दूसरे दिन फिर इसी प्रकार उसे सजग-सजीव किया जा सकता है।

प्रातःकाल उठते ही एक दिन के लिए मिला जीवन रूपी सौभाग्य और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात मनःक्षेत्र पर भली प्रकार उभारी जाय। आँख खुलने से लेकर शैया त्याग कर जमीन पर पैर रखने तक के नये जीवन की प्रसन्नता और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की सुव्यवस्था बनाने की बात ही सोचते रहा जाय। उतने ही समय में दिनचर्या का निर्धारण उसके साथ मनोयोग पूर्वक आदर्शवादी चिन्तन का नियोजन किस प्रकार होगा इसकी रूपरेखा बना लेनी चाहिए। यह कार्य प्रातःकालीन ब्रह्म संध्या की तरह है। इसे अवकाश न मिलने की शिकायत किये बिना, कोई भी बिना किसी कठिनाई, विधि-विधान या साधन उपकरण के अत्यन्त सरलतापूर्वक करता रह सकता है। इसे आत्म-बोध की योग साधना कहा जाता है।

साँय सन्ध्या के लिए रात्रि को सोते समय ‘हर रात नई मौत के सूत्र को अंतःक्षेत्र में भावनापूर्वक चित्रित किया जाना चाहिए, सम्वेदना जितनी गहरी होगी प्रतिक्रिया उतनी ही प्रखरता पूर्वक उभरेगी। वस्त्र साधारण पहनते हुए भी-काम काज गृहस्थों जैसा करते हुए भी संन्यासी की अनासक्त कर्मयोगी की मनःस्थिति इस साधना के आधार पर जितनी सरलतापूर्वक बन सकती है, उतनी अन्य किसी प्रकार नहीं। तत्त्व-बोध की यह-साधना भी ऐसी है। जिसके लिए समय न मिलने, न साधन होने, मन न लगने जैसी शिकायत करने का कोई अवसर नहीं है।

सूर्योदय और सूर्यास्त काल को संध्या कहते हैं। उस पुण्य बेला को आत्म-साधना के लिए सुरक्षित रखे जाने का विधान है। इसी विधान की, निद्रा को रात्रि और जागृति को दिन मानते हुए उनकी सन्धि बेला को संध्याकाल कहा जा सकता है। इस प्रकार उठते समय का आत्म-बोध और सोते समय को तत्त्व बोध’ साधना की व्यावहारिक जीवन को प्रभावित करने वाली उच्चस्तरीय साधना कहा जा सकता है। सरलता और प्रभावोत्पादक क्षमता की दृष्टि से उसे अद्वितीय माना जा सकता है ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ का जीवन सूत्र जो जितनी गहराई के साथ हृदयंगम और कार्यान्वित कर सकेगा वह उतनी ही तीव्रतापूर्वक आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रसर होगा, यह निश्चित है।

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