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Magazine - Year 1977 - Version 2

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खेचरी मुद्रा की प्रतिक्रिया और उपलब्धि

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जिव्हा का उलट कर तालु से लगाना और अनुभव करना कि इसके ऊपर सहस्रार अमृत कलश से रिस-रिस कर टपकने वाले सोमरस का जिव्हग्र भाग से पान किया जा रहा है-यही खेचरी मुद्रा है। तालु में मधुमक्खियों के छत्ते जैसे कोष्ठक होते हैं। सहस्रार को , सहस्र दल कमल की उपमा दी गई है। तालु सहस्र धारा है। उसके कोष्ठक शरीर शास्त्र की दृष्टि से उच्चारण एवं भोजन चबाने निगलने आदि के कार्यों में सहायता करते हैं। योगशास्त्र की दृष्टि से उनसे दिव्य स्राव निसृत होते हैं। ब्रह्म चेतना मानवी सम्पर्क में आते समय सर्वप्रथम ब्रह्मलोक में-ब्रह्मरंध्र में अवतरित होती है। इसके बाद वहाँ मनुष्य की स्थिति, आवश्यकता एवं आकांक्षा के अनुरूप काया के विभिन्न अवयवों में चली जाती है। शेष अंश अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है।

जिव्हा को तालु से स्पर्श कराने के कई उद्देश्य है। मुख गह्वर में रहने वाली रसेन्द्रिय, रयिशक्ति सम्पन्न-ऋण विद्युत सदृश होती है। उसे मुखर कुण्डलिनी कहते हैं सर्पिणी की तुलना भी उस पर सही रीति से लागू होती है। अनगढ़ कुसंस्कारी प्रसुप्त स्थिति में वह स्वाद के नाम पर कुछ भी-कितना ही-बिना विवेक के खाती है। पेट को दुर्बल और रक्त को विषाक्त करती है। फलतः दुर्बलता और अस्वस्थता की चक्की में पिसते हुए आधा अधूरा कष्ट पूर्ण जीवन जी सकना सम्भव होता है। शेष तो अकाल मृत्यु की तरह-आत्म हत्या की तरह ही नष्ट होता है। यह सर्पिणी के काटने सदृश ही दुखदायी है। इसी प्रकार जिव्हा द्वारा कटु वचन, हेय परामर्श, छल प्रपंच आदि द्वारा अपने को गर्हित अधःपतित और दूसरों को कुमार्ग अपनाने के लिए उत्तेजित किया जाता है। यह भी सर्पिणी का ही काम है। द्रौपदी की जीभ ने महाभारत की पृष्ठभूमि बनाई थी, यह सर्वविदित है। यह अनगढ़ प्रसुप्त-स्थिति हुई। यदि यह जिव्हा कुण्डलिनी जागृत हो सके-सुसंस्कृत बन सके तो आहार संयम के लिए जागरूक रहती है। बोलते समय प्रिय और हित का अमृत घोलती है। फलतः सम्भाषणकर्ता को श्रेय एवं सम्मान की अजस्र उपलब्धियाँ होती है। सुसंस्कृत जिव्हा के अनुदानों में कितनों को न जाने किन-किन वरदानों से लाद दिया है। प्रामाणिक और सुसंस्कृत वक्रता के आधार पर ही तो लोग अनेक क्षेत्रों में नेतृत्व करते और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचे दिखाई पड़ते हैं। ऐसी ही अभ्य विशेषताओं के कारण जिव्हा को मुखर कुण्डलिनी कहा गया है और मुख को ऊर्ध्व मूलाधार बताया गया है। निम्न मूलाधार में कामबीज का और ऊर्ध्व मूलाधार मुख में-ज्ञान बीज का निर्झर झरता है। जननेन्द्रियों की और मुख की आकृति को समतुल्य बताना-कहने सुनने में तो भौंड़ा लगता है, पर योगशास्त्र की दृष्टि से दोनों की वस्तुस्थिति में बहुत कुछ समाता है। इन्द्रियों में कामुकता और स्वादेन्द्रिय यह दो ही प्रधान मानी गई है। संयम साधना में जिव्हा का संयम होने पर कामेन्द्रिय का संयम सहज ही सध जाने की बात नितान्त तथ्यपूर्ण है। इसमें दोनों के बीच की घनिष्ठता प्रत्यक्ष है। काम क्रीडा में भी यह दोनों ही गह्वर अपने अपने ढंग से उत्तेजित रहते और अपना अपना पक्ष पूरा करते हैं।

जिव्हा में ऋण विद्युत की प्रधानता है। मस्तिष्क धन विद्युत का केन्द्र है। तालु मस्तिष्क की ही निचली परत है। जिव्हा को भावना पूर्ण तालु से लगाने पर आत्मरति जैसा उद्देश्य पूरा होता है। जिव्हा और तालु की हलकी भावना पूर्ण रगड़ से एक विशेष प्रकार के आध्यात्मिक स्पन्दन आरम्भ होते हैं। उनसे उत्पन्न उत्तेजना से ब्रह्मानंद की अनुभूति का लाभ मिलता है। यह सूक्ष्म होने के कारण कायिक विषयानन्द से अत्यन्त उच्चकोटि का कहा गया है। इस अनुभूति को योगीजन अमृत निर्झर का रसास्वादन कहते हैं।

खेचरी मुद्रा की साधना ब्रह्मलोक से-ब्रह्मरंध्र से- सामीप्य साधती है और उस केन्द्र के अनुदानों को उसी प्रकार चूसती है जैसे छोटे बालक का मुख माता का स्तन चूसता है। यह भावना एवं कल्पना सूक्ष्म शरीर में एक विशेष प्रकार की सुखद एवं उत्साहवर्धक गुदगुदी उत्पन्न करती है। उसका रसास्वादन देर तक करते रहने को जी करता है। यह तो हुआ भावनात्मक पथ जिससे अन्तःचेतना के अमृत से सम्पर्क बनता है और अन्तर्मुखी होकर अंतर्जगत में एक से एक बढ़ी चढ़ी दिव्य सम्वेदनाओं की अनुभूति का द्वारा खुलता है। पर बात इतने तक ही सीमित नहीं है। जिव्हा की ‘ऋण’ विद्युत ब्रह्म लोक से-ब्रह्मरंध्र से अन्यान्य अनुदानों की सम्पदा के ‘धन’ भण्डार को अपने चुम्बकत्व से खींचती, घसीटती है और उसकी मात्रा बढ़ाते-बढ़ाते अपने अन्तः भण्डार को दिव्य विभूतियों से भरती चली जाती है। इन्हीं उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए खेचरी मुद्रा के द्वारा उत्पन्न लाभों का सुविस्तृत वर्णन योग ग्रन्थों में लिखा और अनुभवियों द्वारा बताया मिलता है।

तालु और जिव्हा के हलके स्पर्श स्थिर नहीं, वरन् हलकी रगड़ जैसे होते रहते हैं। इसमें घड़ी के पेण्डुलम जैसी गति बनती है। गाय को दुहते समय भी इसी से मिलती जुलती क्रिया पद्धति कार्यान्वित होती है। रति कर्म की प्रक्रिया भी इसी प्रकार की है। रगड़ से ऊर्जा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को प्रभावित करती है। उन्हें बल देती-उत्पन्न होना सर्वविदित है। यह ऊर्जा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को प्रभावित करती है। उन्हें बल देती-सक्रिय करती और समर्थ बनाती है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों के अनावरण में इससे सहायता मिलती है। षट्चक्रों को जागृत करने में भी खेचरी मुद्रा से उत्पन्न ऊर्जा की एक बड़ी भूमिका रहती है। इन्हीं सब कारणों को देखते हुए कुण्डलिनी जागरण में खेचरी मुद्रा को महत्त्व दिया गया है। क्रिया साधारण सी होते हुए भी प्रतिक्रिया की दृष्टि से उसका बहुत ऊँचा स्थान ज्ञान के विकास विस्तार में उससे असाधारण सहायता मिलती है।

परमात्मा का आत्मा के साथ निरन्तर पेण्डुलम गति से ही मिलन संपर्क चलता रहता है। इस स्पर्श की अनुभूति (1) आनन्द और (2) उल्लास के रूप में होती रहती है। सामान्य स्थिति में तो इसकी प्रतीति नहीं होती पर खेचरी मुद्रा के माध्यम से उसे अनुभव किया जा सकता है। भगवान की मनुष्य को दो प्रेरणाएँ है जो उपलब्ध हैं, उसकी गरिमा को समझते हुए-संसार के सुखद पक्ष का मूल्यांकन करते हुए-सन्तुष्ट प्रसन्न और आनन्दित रहता यह है आनन्द का स्वरूप उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की दिशा में साहस भरे कदम उठाने से लिए अदम्य उत्साह का-भावभरी उमंगों को उठना यह है उल्लास। भगवान इन्हीं दो प्रेरणाओं को निरन्तर पेण्डुलम गति से प्रदान करते रहते हैं। मानव जीवन जैसी सृष्टि की अनुपम उपलब्धि को पाकर यदि अन्तःकरण आनन्दित रहे और छोटे मोटे अभावों की और अधिक ध्यान न देकर चारों और बिखरी हुई सदाशयता का अनुभव करते हुए सन्तुष्ट सन्तुलित रहे तो समझना चाहिए आनन्द की उपलब्धि हो रही है हर्षातिरेक में उछलने कूदने या बढ़ चढ़कर शेखीखोरी की बातें करने का नाम आनन्द नहीं है। उस स्थिति में दृष्टिकोण परिपक्व हो जाता है और परिष्कृत, इसलिए जिन अभावों और असफलताओं में दूसरे लोग उद्विग्न उत्तेजित हो उठते हैं, उन्हें वह विनोद कौतुक भर समझते हुए अपनी मनःस्थिति को सुसंतुलित बनाये रहता है। जिनकी मनोभूमि ऐसी हो उसे आनन्द की प्राप्ति हो गई ऐसा कहा जा सकता है।

आनन्दित, सन्तुष्ट या प्रसन्न होने में एक दोष यह है कि अपूर्णता से पूर्णता की और चलने के लिए जिस कठोर कर्मठता की जरूरत पड़ती है उसे प्रायः भुला दिया जाता है। ऐसी भूल करने वाले अध्यात्मवादी प्रायः निकम्मे, अकर्मण्य, आलसी, प्रमादी और बुराइयों, बुरी परिस्थितियों से समझौता कर लेने वाले भाग्यवादी पलायनवादी बन बैठते हैं। उससे उनकी अपनी समग्र प्रगति का द्वार तो वन्द हो ही जाता है, साथ ही समाज के लिए प्रखर कर्त्तव्य पालन के लिए जा महान् उत्तरदायित्व मनुष्य के कन्धों पर होते हैं। वे भी अवरुद्ध हो जाने से लोकमंगल के लिए मानवी योगदान में भी भारी क्षति पहुँचती है। मनुष्य का अवतरण जिन महान् कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का प्रचण्ड प्रयत्नशीलता के साथ निर्वाह करने के लिए हुआ। यदि उनमें शिथिलता आ गई तो समझना चाहिए कि जीवित ही मृतक बन जाने जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। यदि आनन्द या सन्तोष की प्राप्ति किसी अध्यात्मवादी में इस प्रकार की अकर्मण्यता उत्पन्न कर दे तो समझना चाहिए कि बिलकुल उलटा हो गया और अर्थ का अनर्थ बन गया।

खेचरी मुद्रा की साधना से उपलब्ध होने वाला दूसरा दिव्य अनुदान उल्लास माना गया है। यह उभरता उल्लास इस प्रकार की अवांछनीय मन स्थिति बनने की गुँजाइश नहीं छोड़ता। भगवान निरन्तर आनन्द के साथ-साथ उल्लास भी प्रदान करते हैं और उच्चस्तरीय प्रयत्नों एवं उमंग उत्पन्न करते हैं। उल्लास जब अपनी प्रौढ़ावस्था में होता है तो वह इतना प्रखर होता है कि प्रस्तुत कठिनाइयों, अभावों, अवरोधों की चिन्ता न करते हुए ईश्वरीय सन्देश के अनुरूप अपनी रीति नीति निर्धारण करने के लिए मचल उठता है। किसी के रोके नहीं रुकता। लोभ और मोह के भव बन्धन यों सहज नहीं टूटते और कुसंस्कार तथा स्वार्थ सम्बन्धी शुभचिन्तक ऐसी भावनाओं को क्रियान्वित होने में पग पग पर विरोध उत्पन्न करते हैं, पर जिसे उल्लास प्राप्त है वह आत्मकल्याण और ईश्वरीय निर्देशों के पालन की दिशा में ही अग्रसर होता है। कठिनाइयाँ क्यों आती है और रोकथाम कौन कौन करते हैं इसकी चिन्ता नहीं करता। फलस्वरूप जहाँ चाह वहाँ राह वाली बात बन ही जाती है। जिसे उल्लास की उपलब्धि मिल गई उसे महापुरुषों जैसे महान् कर्त्तव्य पालन करते रहने के अनवरत अवसर निर्बाध गति से मिलते ही रहते हैं।

आनन्द और उल्लास भरी मनःस्थिति उत्पन्न करने में खेचरी मुद्रा को जो योगदान मिलता है उसके फलस्वरूप साधक को हर स्थिति में हँसते हँसाते रहने और हलकी फुलकी जिन्दगी जीने का अभ्यास करना पड़ता ह। कर्मठता की जागरूकता से सामान्य जीवन क्रम में पग पग पर सफलताएँ मिलती और सफलताएँ उत्पन्न होती है। इन लाभों को भी सामान्य नहीं समझना चाहिए। ब्रह्मलोक के अन्य दिव्य अनुदान पाकर तो मानवी सत्ता ऋषिकल्प देवतुल्य बनने के लिए अग्रसर होती है। खेचरी मुद्रा का वह विशिष्ट लाभ भी आनन्द उल्लास की उपलब्धि की तरह है साधक के लिए हर दृष्टि से श्रेयस्कर सिद्ध होता है।

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