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Magazine - Year 1977 - Version 2

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त्राटक साधना से दिव्य दृष्टि की जागृति

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मानवी विद्युत का अत्यधिक प्रवाह नेत्रों द्वारा ही होता है, अस्तु जिस प्रकार कल्पनात्मक विचार शक्ति को सीमाबद्ध करने के लिए ध्यान योग की साधना की जाती है, उसी प्रकार मानवी विद्युत प्रवाह को दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों की ईक्षण शक्ति को सधाया जाता है। इस प्रक्रिया को त्राटक का नाम दिया गया है।

सरसरे तौर से और चंचलतापूर्वक उथली दृष्टि से हम प्रति क्षण असंख्यों वस्तुएँ देखते रहते हैं। इतने पर भी उनमें से किन्हीं विशेष आकर्षक वस्तुओं की ही मन पर छाप पड़ती है। अन्यथा सब कुछ यो ही आँख के आगे से गुजर जाता है। देखने की क्रिया होते रहने पर भी दृश्य पदार्थों एवं घटनाओं का नगण्य सा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़े, इसका कारण देखते समय मन की चंचलता , उथलापन, उपेक्षा, अन्यमनस्कता आदि कारण ही मुख्य होते हैं। यदि गम्भीरता और स्थिरतापूर्वक किसी पदार्थ या घटना का निरीक्षण किया जाय, तो उसी में से बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य, उभरते हुए दिखाई देंगे।

त्राटक साधना का उद्देश्य अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न करना है कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके और उसके अन्तराल में अति महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने और ग्रहण करने में समर्थ हो सके। वैज्ञानिकों, कलाकारों, तत्त्वदर्शियों में यही विशेषता होती है कि सामान्य समझी जाने वाली घटनाओं को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हैं और उसी में से ऐसे तथ्य ढूँढ़ निकालते हैं जो अद्भुत एवं असाधारण सिद्ध होते हैं।

पेड़ पर से फल टूट कर नीचे ही गिरते रहते हैं। यह दृश्य बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक सभी देखते हैं। इसमें कोई नई बात नहीं। किन्तु आइज़ैक न्यूटन ने पेड़ पर से सेव का फल जमीन पर गिरते देखा तो उसकी सूक्ष्म दृष्टि इसका कारण तलाश करने में लग गई और अन्ततः उसने पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होने का क्रान्तिकारी सिद्धान्त प्रतिपादित करके विज्ञान जगत में एक अनूठी हलचल उत्पन्न कर दी। इस आधार पर आगे चलकर विज्ञान की भावी प्रगति का पथ-प्रशस्त होता चला गया है। कलाकारों और तत्त्वदर्शियों की दृष्टि भी ऐसी ही होती है। महर्षि चरक ने जमीन पर उगती रहने वाली सामान्य जड़ी-बूटियों के ऐसे गुण धर्म खोज निकाले जिनके सहारे आरोग्य विज्ञान की प्रगति में भारी सहायता मिली। मनीषियों ने एक से एक बढ़कर विज्ञान क्षेत्र में रहस्योद्घाटन किये है। इस सूक्ष्म अवलोकन में दिव्य दृष्टि तो काम करती है, पर उसके उत्पादन अभिवर्धन में चर्म चक्षुओं में उत्पन्न होने वाली वेधक दृष्टि की भूमिका भी एक महत्त्वपूर्ण नहीं होती। त्राटक इसी विभूति विशेषता के उत्पादन को ध्यान में रखते हुए किया जाता है।

बुद्धि का महत्त्व सर्वविदित है। पर मानवी विद्युत जिसे प्रतिभा का स्रोत माना जाता है, व्यक्तित्व के निर्माण एवं प्रयत्नों की सफलता में किसी भी प्रकार कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मनुष्य शरीर एक अच्छा-खासा बिजली घर है। उससे लोहे की मशीनें नहीं चलाई जातीं, पर शरीर यन्त्र में जो एक से एक अद्भुत कलपुर्जे लगे है उनके सुसंचालन में यही शक्ति कितना काम करती है, इसे देखते हुए भौतिक विद्युत की क्षमता को तुच्छ ही कहा जा सकता है। मानवी विद्युत का वस्तुओं और प्राणियों पर कितना भारी प्रभाव पड़ता है-उससे वातावरण का निर्माण किस तरह उभरता है और व्यक्तित्व के विकास में कितनी सहायता मिलती है, इस सबको यदि क्रमबद्ध किया जा सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्य शरीर में काम करने वाली बिजली कितनी सूक्ष्म और कितनी महत्त्वपूर्ण है।

यों तो मनुष्य शरीर के रोम रोम में विद्युत प्रवाह काम करता है, पर नेत्र, जननेन्द्रियाँ, वाणी यह तीन द्वार मुख्य है जिनमें होकर वह प्रवाह बाहर निकलता है और परिस्थितियों को प्रभावित करता है। मस्तिष्क का ब्रह्मरंध्र भाव उत्तरी ध्रुव की तरह निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण को खींचकर अपने में धारण करता है। इसके उपरान्त उसके प्रयोग के आधार नेत्र, जिव्हा एवं जननेन्द्रिय छिद्रों में होकर बनते हैं।

जिव्हा की वाक् साधना के लिए जप, पाठ, मौन जैसे कितने ही अभ्यास है। जननेन्द्रिय में सम्बन्धित काम शक्ति को ब्रह्मचर्य से संयमित किया जाता है और कुण्डलिनी जागरण के रूप में उभारा जाता है। इनका उल्लेख यहाँ अभीष्ट नहीं। त्राटक द्वारा नेत्र गोलकों से प्रवाहित होने वाली विद्युत शक्ति को किस प्रकार केन्द्रीभूत एवं तीक्ष्ण बनाया जाता है। यहाँ तो इसी प्रसंग पर चर्चा की जानी है। मनुष्य का अंतरंग नेत्र गोलकों में होकर बाहर झाँकता है। उन्हें अन्तरात्मा की खिड़की कहा गया है। प्रेम, द्वेष एवं उपेक्षा जैसी अंतःस्थिति को आँख मिलाते ही देखा समझा जाता है। काम-कौतुक का सूत्र संचार नेत्रों द्वारा ही होता है। नेत्रों के सौंदर्य एवं प्रभाव की चर्चा करते-करते कवि कलाकार थकते नहीं, एक से एक बड़े उपमा, अलंकार उनके लिए प्रस्तुत करते रहते हैं। दया, क्षमा, करुणा, ममता, पवित्रता, सज्जनता सहृदयता जैसी आत्मिक सद्भावनाओं को अथवा इनके ठीक विपरीत दुष्ट दुर्भावनाओं को किसी के नेत्रों में नेत्र डालकर जितनी सरलतापूर्वक समझा जा सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं।

कहा जा चुका है कि दिव्य चक्षुओं से सम्भव हो सकने वाली सूक्ष्म दृष्टि और चर्म चक्षुओं की एकाग्रता युक्त तीक्ष्णता के समन्वय की साधना को त्राटक कहते हैं। इसका योगाभ्यास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है।

छोटे बच्चों को नजर लग जाने, बीमार पड़ने-नये सुन्दर मकान को नजर लगने से दरार पड़ जाने जैसी किम्वदन्तियाँ अक्सर सुनी जाती है। इनमें प्रायः अन्धविश्वासों का ही पट रहता है फिर भी मानवी विद्युत विज्ञान की दृष्टि से ऐसा हो सकना असम्भव नहीं है। वेधक दृष्टि में हानिकारक और लाभदायक दोनों तत्त्व यह तो सामान्य स्तर के त्राटक उपचार का किया कौतुक हुआ। अध्यात्म क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले इसी प्रयोग की उच्च भूमिका में प्रवेश करके दिव्य दृष्टि विकसित करते हैं और उस अदृश्य को देख पाते हैं जिसे देख सकना चर्म चक्षुओं के लिए सम्भव नहीं हो सकता।

दृष्टि के स्थूल भाग की भी विशेषता है, पर वस्तुतः उसकी वास्तविक शक्ति सूक्ष्म दृष्टि पर निर्भर रहती है। प्रेम, द्वेष, घृणा, उपेक्षा आदि के भाव आँखों की बनावट या पुतली संचालन क्रम में अन्तर नहीं करते। वह स्थिति तो सदा एक सी ही रहती है। अन्तर पड़ता है उस भाव सन्दोह का जो आँखों में सूक्ष्म प्रक्रिया बनकर झाँकता है और सामने वाले को अपने अन्तरंग के सारे भेद बताकर स्थिति से अवगत कर देता है। स्थूल दृष्टि के पीछे सूक्ष्म दृष्टि ही अपना काम कर रही होती है। अस्तु भारतीय योगदर्शन ने त्राटक के माध्यम से सूक्ष्म दृष्टि को एकाग्र एवं प्रभावशाली बनाने का उद्देश्य सामने रखा है जब कि पाश्चात्य शैली में चर्म चक्षु ही सब कुछ है और उन्हीं की दृष्टि से वेधक क्षमता उत्पन्न करके अभीष्ट प्रयोजन सम्पन्न किये जाते हैं।

त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि को ज्योतिर्मय बनाता है। उसके आधार पर सूक्ष्म जगत की झाँकी की जा सकती है। अन्तः क्षेत्र में दबी हुई रत्न राशि को खोजा और पाया जा सकता है। देश, काल, पात्र की स्थूल सीमाओं को लाँघ कर अविज्ञात और अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आँखों के इशारे तो मोटी जानकारी भर दी जा सकती है, पर दिव्य दृष्टि से तो किसी के अन्तः क्षेत्र को गहराई में प्रवेश करके वहाँ ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है जिससे जीवन का स्तर एवं स्वरूप ही बदल जाय। इस प्रकार त्राटक की साधना यदि सही रीति से सही उद्देश्य के लिए की जा सके तो उससे साधक को अन्त चेतना के विकसित होने का असाधारण लाभ मिलता है साथ ही जिस प्राणी या पदार्थ पर इस दिव्य दृष्टि का प्रभाव डाला जाय उसे भी विकासोन्मुख करके लाभान्वित किया जा सकता है।

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