Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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महर्षि पद की पात्रता
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यज्ञ की धूमशिखाओं से आकाश आच्छादित हो रहा था। महाराज रथवीति दार्म्य की राजधानी में वेद मन्त्रों की पुनीत ध्वनि गूँजने लगी थी। वे अपनी राजमहिषी और मनोरमा कन्या के साथ यज्ञवेदी के समीप ही आसीन थे।
‘कितनी सुशील और लावण्यमयी है यह कन्या!-अत्रिपुत्र ऋषि अर्चनाना ने यज्ञ कुण्ड में वेदमन्त्रों से आहुति देते हुए मन में विचार किया। धवलोज्वल श्वेत दाढ़ी के साथ तपःतेज से दीप्त मुखमण्डल पर चमकती हुई आभा और भी प्रगाढ़ हुई। तभी उन्होंने अपने पुत्र श्यावाश्य की ओर निहारा। श्यावाश्य ने पच्चीस वर्ष तक आश्रम में ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर अन्तेवासी की दीक्षा प्राप्त की थी। यह दीक्षा उन्हीं छात्रों को मिलती थी जो वेद वेदांगों में विशेष दक्षता प्राप्त कर लेते थे। ऋषि कुमार में यौवन का निखार था नेत्रों में सात्विकता और हृदय में श्रद्धा भक्ति थी।
आकांक्षा हुई कि महाराज से राजकन्या का हाथ अपने पुत्र के लिए माँग ले। यज्ञ पूर्णाहुति के बाद समय पाकर अर्चनाना ने रथवीति और राजमहिषी से कहा- ‘मैं आपकी कन्या को अपनी पुत्रवधू बनाने के लिए याचक रूप में प्रस्तुत हूँ महाराज!’
‘यह तो आपकी बहुत बड़ी कृपा है, मेरी कन्या के लिए इससे बढ़ कर सौभाग्य और क्या होगा कि वह महर्षि अत्रि के आश्रम में वास करेगी?’-महाराज रथवीति ने अर्चनाना के प्रति श्रद्धा व्यक्त की।
महर्षि अर्चनाना अपनी आकांक्षापूर्ति का आश्वासन प्राप्त हुआ जान सन्तोष का भाव पूरी तरह अनुभव भी नहीं कर पाये थे कि राजमहिषी ने कहा-”लेकिन हमारा कल राजर्षियों का कुल है महात्मन्! हमारी कुलमर्यादा है कि हम अपनी कन्या मन्त्रदर्शी ऋषि को ही सौंप सकते हैं। क्या ऋषि कुमार मंत्रद्रष्टा हैं?”
आशा और सन्तोष की दीप्त हो रही भाव शिखा जैसे किसी ने झपट कर बुझा दी हो, वैसा लगा अर्चनाना को। वे श्यावाश्व को लेकर आश्रम आ गये। खिन्न भी थे और उदास भी। जीवन में पहली बार योग्यता के अभाव में निराश होना पड़ा था। राजधानी में क्या घटा था, यह उन्होंने अपने पुत्र को भी नहीं बताया था परन्तु श्यावाश्व से पिता की मनःस्थिति छुपी न रह सकी। ऋषि कुमार ने पिता की व्यथा को उगलवा ही लिया। और निश्चयात्मक स्वर में कहा-’पिताजी! मैं अपनी कुल योग्यता सिद्ध करने के लिए ऋषि पद प्राप्त करूंगा, राजकन्या उतनी महत्व की वस्तु नहीं है जितने महत्व का विषय ऋषिपद है। बताइये इसके लिए क्या करूँ।
‘मन्त्रदर्शन की साधना वत्स।’-अर्चनाना ने कहा।
‘उसका क्या स्वरूप है? तात्।
‘ब्रह्मचर्य पूर्वक भिक्षाटन, प्रव्रज्या, शिक्षण और चिन्तन मनन’-अर्चनाना ने समझाया और श्यावाश्व अपने पिता की चरण धूलि लेकर निकल पड़े। स्नातक ब्रह्मचारी तो वह थे ही, आश्रम का निर्वाह भी भिक्षाटन से ही होता था, ऋषि कुमार का चिन्तन मनन भी निरन्तर ही चलता रहता था। मन्त्रदर्शन की साधना में नया अंग था केवल प्रव्रज्या और लोकशिक्षण का।
दीर्घकाल तक श्यावाश्व ने नगर, ग्राम, वन और प्रान्तर का भ्रमण किया। लोक जीवन को निकट से देखा, समाज देवता की आराधना की, जनमानस को दिशा प्रेरणा और शिक्षण देते हुए। महाराज विदेदश्व, तरन्त, राजमहिषी, शशीयसी, पुरुभीड़ आदि नरेशों ने ऋषिकुमार का यथेष्ट स्वागत सत्कार किया। उन्हें कितनी ही गायें और अपार धन राशि दक्षिणा में दी। परन्तु ऋषिकुमार भिक्षा में प्राप्त राशि का निर्वाह भाग रख कर शेष सब आश्रम पहुँचा देते। और निरन्तर भ्रमण, अनवरत पर्यटन, अविराम परिव्रज्या करते रहे।
पुत्र विछोह से व्याकुल अर्चनाना एक बार श्यावाश्व को देखने आये। श्यावाश्व से उन्होंने आश्रम चलने और वहाँ कुछ दिन निवास करने के लिए कहा तो श्यावाश्व ने कहा-तात मैंने अभी मन्त्रदर्शन नहीं किया है और आश्रम में आ जाऊँगा तो मेरे व्रत में व्यतिक्रम आ जायेगा।
यह कह कर श्यावाश्व उस स्थल से भी चल पड़े। अन्ततः साधना परिपक्व होने पर रुद्र पुत्र मरुद्धाषों ने श्यावाश्व को दर्शन दिये और उनकी कृपा से श्यावाश्व ने मन्त्रदर्शी ऋषि का पद प्राप्त किया। मरुद्धाषों ने श्यावाश्व को रुक्ममाला दी।
श्यावाश्व ने आश्रम की ओर प्रस्थान किया। गले में रुक्ममाला और मुखमण्डल पर प्रदीप्त ब्रह्मतेज देख कर अर्चनाना ने पुत्र को सीने से लगा लिया, तुम्हारे पुण्य से हमारा कुल उज्ज्वल हो गया वत्स। अब तक हमारे कुल में कोई भी ब्रह्मचारी ऋषिपद को प्राप्त नहीं कर सका था।
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