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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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असमर्थ व अपंग (kahani)

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First 23 25 Last
एक बार पाँच असमर्थ व अपंग व्यक्ति एक जगह एकत्रित हुए व आपस में चर्चा करने लगे। पर क्या अन्धे ने कहा “यदि मेरी आँखें होतीं तो अच्छा देखता जहाँ जो बुराई देखता उसे अच्छा बनाने का प्रयत्न करता। लंगड़े ने कहा “मेरे पैर होते तो दौड़ कर असहायों को सहायता करता दिन रात सत्कर्मों में ही लगा रहता। निर्धन ने कहा “यदि धन होता तो मैं अपना सारा धन परोपकार व लोक हित में लगाता”। मूर्ख ने कहा “क्या करूं मैं अधिक पढ़ा लिखा नहीं हूँ अन्यथा मैं देश की अशिक्षा को मिटाने में ही अपने आप को लगा देता”। शारीरिक दृष्टि से निर्बल क्षीणकाय व्यक्ति ने कहा “यदि मुझमें शारीरिक बल होता और मैं स्वस्थ रहा होता तो निर्बलों, दुखियों पर कभी अत्याचार न होने देता।

देव राज इन्द्र उनकी बातें सुन रहे थे। उनकी सत्यता की परीक्षा लेने हेतु उन्होंने इन पाँचों को अपनी इच्छानुसार स्थिति में कर दिया। अन्धे को आँखें, लंगड़े को पैर, मूर्ख को विद्या, अशक्त को शक्ति व निर्धन को धन मिल गया। वे पाँचों प्रसन्न हो गये।

परिस्थिति बदलते ही उनके विचार भी बदलने लगे। अन्धा दिन रात सुन्दर वस्तुएँ ही देखने में लगा रहता। वह सोचता जब भगवान् ने देखने को आँखें दी हैं तो इनका भरपूर उपयोग करना चाहिए। सुन्दर वस्तुएँ देख-देख तथा आँखों के द्वारा हो सकने वाले भौतिक सुख में ही वह लगा रहा। धनी व्यक्ति ने अपने धन से ऐश्वर्य की सामग्री जुटाली वह अपने ही सुख में सबका सुख समझ ही अपनी संतुष्टि करता रहा। निर्बल को बल प्राप्त होने पर वह अपनी शारीरिक शक्ति के सहारे दूसरों को आतंकित कर अपनी सुख सुविधा के साधन जुटाने में लगा रहा। विद्वान व्यक्ति अपनी बौद्धिक चातुर्य से समाज को सदाशयता का लाभ उठा कर सुविधामय जीवन व्यतीत करने लगा। बचा लंगड़ा व्यक्ति, वह भी पैर प्राप्त कर दुनियादारी के झंझटों में लगा रहा।

बहुत दिनों बाद इन्द्र आए व उन्होंने जब इन पाँचों की यह दशा देखी तो सबको पूर्व स्थिति में कर दिया। अब पाँचों व्यक्ति पुनः पश्चात्ताप करने लगे। जब उन्हें पुनः कष्टमय स्थिति में पुनः रहना पड़ा तब समझ में आया कि भगवान के दिए हुए अनुदानों, भगवान द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं में ही लिप्त रह हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि हमारा धन, ज्ञान, बल आदि हमारे उपयोग के लिए ही नहीं वरन् समाज के कल्याणार्थ विनियोजित करने में भी हैं।

मनुष्य अपने साधनों को देव अनुदान समझ यदि उनका सद्कार्यों में उपयोग करता रहे तो इन अनुदानों में भी निरन्तर वृद्धि होती रहती है पर यदि इनका उपयोग स्वयं के हित तक ही सीमित रहा तो साधन कम होने लगते हैं। अन्ततः मनुष्य छूँछ का छूँछ ही रहता है।

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