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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
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बोझी पाथर भार

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पाटलिपुत्र भगवती जाह्नवी की प्रलयंकर बाढ़ से ग्रस्त-समस्त पुरवासी जीवन रक्षा और जीवनोपयोगी सामग्री की सुरक्षा में व्यस्त हैं, किन्तु सुवर्ण श्रेणिक को इस सब की कोई चिन्ता नहीं थी। उनका अपना भवन इतना विशाल था कि उससे दस गुनी जलराशि भी गगनचुम्बी अट्टालिका का स्पर्श न कर पाती। विशाल भवन की प्राचीर में बैठा श्रेणिक परिवार उस समय भी आनन्द ले रहा था जिस समय सारा नगर जीवन और मरण के इस संकट से बुरी तरह जूझ रहा था।

सुवर्ण के तरुण पुत्र योमी “ब्रहज्जातक” पढ़ रहे थे पर उनकी एकाग्रता उस जन कोलाहल में बार-बार भंग हो जाती थी। वे बारम्बार बाहर आते, दूर तक फैली हुई जलराशि की ओर अपनी दृष्टि दौड़ाते विपत्ति ग्रस्त जन-जीवन को देखते, अन्तःकरण कहता-योमी! यदि तुम्हें कभी संकट पड़ता तो क्या तुम सहायता की आकांक्षा और अपेक्षा नहीं करते, आज तुम्हारे पास धन है, सम्पत्ति है, विशाल भवन है, इसलिए तुम सुरक्षित हो, पर विचार करो यदि कहीं यह साधन सुविधाएँ उपलब्ध न हुई होती तो क्या तुम भी इस स्थिति में संकट ग्रस्त न होते? तुम्हें क्या यह उचित नहीं कि विपत्ति में ग्रस्त प्राणियों की रक्षा करते?

आत्मा अभी अपनी बात पूरी भी नहीं करने पाती कि मन बोल उठता-संसार में सभी अपने तई पैदा होते हैं, अपने लिए सुख-साधन आप जुटाते हैं, जब अपनी जरा अपनी मृत्यु को कोई बदल नहीं देता तो अपने सौभाग्य को ही औरों के संकट से क्यों बदला जाये?

आत्मा की पुकार-मन की तृष्णा के आगे दबकर रह जाती। योमी के पैर पीछे मुड़ते फिर वह बाहर आते आज उनके अन्तःकरण में जैसा द्वन्द्व उठा वैसा तो पहले कभी नहीं हुआ। लगता था आत्मा ने मन के विरुद्ध अपनी सारी शक्ति झोंक दी तभी तो सारा दिन, सारी रात, योमी को शान्ति नहीं मिली वे बार-बार पाटलिपुत्र की जल प्लावित वैथियों, भवनों में दृष्टि दौड़ाते। संकटग्रस्त लोगों को देखते तो करुणा से हृदय उमड़ पड़ता। आत्मा कहती-जीवन का सार योमी! परोपकार है! परोपकार!! यों स्वार्थ की जिन्दगी जीकर भी तू कितने दिन सुखोपभोग कर लेगा?

योमी के पैर द्वार तक आते मन कहता-अरे योमी, तू अत्यन्त सम्भ्रान्त नागरिक है, तेरी मान मर्यादा का अपना स्तर है। चाहे तो सम्पत्ति देकर लोगों का कल्याण कर सकता है। दीन−हीन, दरिद्र और दुर्गन्ध ग्रस्त प्राणियों के बीच जाने से लोग क्या कहेंगे?

यह दम्भ कितना दारुण है, यह भी नहीं समझने देता कि परमार्थ, परोपकार में कितनी शान्ति, कितना सन्तोष, विराट् की कैसी सुखद अनुभूति है? सम्मान तो दूर लोग सम्वेदनशील अन्तःकरण के प्रति अपनी श्रद्धा तक समर्पित कर देते हैं, दम्भ के चंगुल में फँसकर ही मानवता कष्ट भोगती और दुःख पाती है-योमी भी उसी के वशीभूत आत्मानुभूति के दिव्य क्षणों से वंचित होता रहा। जीवन यदि दबा है तो ऐसे पाथर भार से।

व्योम में वलाहक पूरी तरह से आच्छादित थे; किन्तु शुक्ल पक्ष के कारण दूर तक की गतिविधियाँ दिखाई देती हैं। समीप ही एक कच्चे भवन की अट्टालिका में जीवन रक्षा करती तरुणी का करुण क्रंदन सुनाई दे रहा है। एक ही बालक शेष रहा है, जिसकी सुरक्षा के लिए वह प्रत्येक संकट से जूझ रही है-किन्तु तभी विशाल जनराशि का आवेग आता है भवन चरमरा कर बैठ गया, एक ही क्षण में, टिमटिमाते हुए दो प्राणदीप बुझ गये।

योमी का अन्तःकरण कराह उठा अबोध शिशु और अबला नारी की मृत्यु का दोषी तू है योमी, तूने समाज की चोरी की, धन संग्रह किया। अपने अपराध पर भी अहंकार, यह घोर पाप है, योमी, तू पापी है, इस मृत्यु के लिए दोषी भी तू ही है, तू चाहता तो उन्हें बचा सकता था, जीवन दान दे सकता था। आत्म प्रताड़ना का और अधिक भार असह्य हो उठा, योमी घर से निकल पड़ा तो फिर वापिस नहीं लौटा, जनसेवा में ही उसने सर्वस्व समर्पित कर दिया।

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Version 2
Type: TEXT
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