Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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मनोरंजन की आवश्यकता और स्तर
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चौबीस घण्टे काम करने की न किसी में सामर्थ्य रहती है न शक्ति। परिस्थिति विशेष में यदा-कदा भले ही आठ घण्टे से अधिक श्रम किया जा सके, परन्तु रोज का क्रम इसी प्रकार का बनाने की चेष्टा की जाय तो अशक्तता, कमजोरी, रोग और दुर्बलता शीघ्र ही आ घेरती है और व्यक्ति पुनः लम्बे समय तक विश्राम के लिये बाध्य हो जाता है। अर्थात् अनवरत खर्च होने वाली शक्ति को उस अवधि में अर्जित करने के लिए प्रकृति द्वारा विवश कर दिया जाता है। शक्ति के अनुसार परिश्रम कर लेने के बाद व्यक्ति को विश्राम की आवश्यकता अनिवार्य रूप से पड़ती है।
विश्राम द्वारा शरीर तो अपनी खर्च हुई शक्ति को अर्जित कर लेता है। लेकिन शरीर के साथ-साथ मन को भी तो सक्रिय रहना पड़ता है। वैसी स्थिति में मानसिक शक्तियाँ भी खर्च होती है। उनके भी पुनरार्जन की आवश्यकता है। वे किस प्रकार अर्जित की जाय। प्रायः सोते समय भी मन निष्क्रिय नहीं रहता। व्यक्ति दिन भर विश्राम करते समय मन उसी धारा में क्रियाशील रहता है। न रहे तो भी मन कितनी ही आकांक्षाएं, इच्छायें और संकल्प विकल्प करता रहता है। क्योंकि हम सोते समय तो शरीर को विश्राम की अवस्था में छोड़ देते हैं, पर मन के सम्बन्ध में चूक जाते हैं और मन उस समय भी व्यस्त रहता है। यही कारण है कि अधिक सोच-विचार करने वाले या चिन्ताओं में मग्न रहने वाले मानसिक दृष्टि से रुग्ण हो जाते हैं।
तो मन को भी विश्राम देने की आवश्यकता पड़ जाती है और उसी विश्राम की कला का नाम है मनोरंजन। जिसे आह्लाद, खुशी या हल्कापन लाना भी कहा जा सकता है। विश्राम काल में शरीर को शिथिल छोड़ना पड़ता है तथा मनोरंजन के समय मन ढीला हो जाता है। यद्यपि बिना मनोरंजन के भी मन को विश्राम में पहुँचाया जा सकता है, पर वह श्रम साध्य है और उच्चस्तरीय योग साधनाओं में रत रहने वाले लोगों के लिये सम्भव है। जन-सामान्य के लिये थके हुये मन को राहत पहुँचाने का काम मनोरंजन द्वारा ही सम्भव होता है और लोग थक जाने के बाद इसी कारण सिनेमा देखने, गीत-संगीत सुनने, हल्का-फुल्का साहित्य पढ़ने में अपना खाली समय लगाकर मन को बहलाते हैं।
व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिये मनोरंजन की आवश्यकता उसी प्रकार बतायी गयी है। जिस प्रकार की शरीर के लिये विश्राम की ओर इस आवश्यकता को शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्पर्क उपयुक्त वातावरण की तरह ही शुद्ध और स्वस्थ रूप में पूरा करने का निर्देश दिया गया है। स्वस्थ मनोरंजन जहाँ व्यक्ति को नयी ताज़गी देता है, जीवन में रस घोलता है और मनोभूमि में नयी शक्ति का संचार करता है वहीं अस्वस्थ और अशुद्ध मनोरंजन उसे नीरस, कुण्ठित और पथभ्रष्ट बनाता है। स्वस्थ शरीर को भी अनुपयुक्त आहार-विहार जिस प्रकार लड़खड़ा देते हैं उसी प्रकार अस्वस्थ मनोरंजन व्यक्ति को पथभ्रष्ट, कुमार्गगामी और दुर्व्यसनी बना देता है। स्वस्थ मनोरंजन जहाँ व्यक्ति में आगे बढ़ने की, कठिनाइयों से संघर्ष करने की और प्रतिकूलताओं से डटकर लोहा लेने की प्रेरणा देता है वही अशुद्ध मनोरंजन व्यक्ति में कायरता, बुज़दिली, दोष-दुष्प्रवृत्तियों से लगाव और शौक-मौज के चस्के उत्पन्न करता है।
मनोरंजन की आवश्यकता उस समय और भी दृढ़ता के साथ अनुभव होने लगती है या उसका महत्व समझ में आने लगता है कि जबकि हम प्रत्येक व्यक्ति की इसके लिए लालायित देखते हैं। हर समय चेहरे पर मधुर मुस्कान लिए और खिल-खिलकर हँसने वाले लोगों के सम्पर्क में और की चाह तुरन्त उत्पन्न होती है। ताकि बिजली की सुचालक वस्तुओं की तरह विद्यमान आह्लाद का प्रवाह हमारे भीतर भी आ जाय। साधन-सम्पन्न और धनवान, विभूतिवान व्यक्ति भी अपने महत्वपूर्ण कार्यों को एक समय छोड़कर खुले हृदय से हँसना या प्रफुल्लित होना चाहते हैं। वे लोग भी जिनके लिये पैसा जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण है, पैसा कमाना छोड़कर खुश होना चाहते हैं। क्यों? स्पष्ट है कि मनोरंजन भूख, प्यास और निद्रा की तरह ही एक नैसर्गिक आवश्यकता है।
यह भी सत्य है कि दुनिया के महापुरुषों से लेकर सामान्य जनों तक जिनकी प्रवृत्तियाँ, विचार और कार्यक्षेत्र अलग-अलग रहते हैं और कोई भी चीज एक दूसरे से नहीं मिलती, मनोरंजन के प्रति समान रूप से सजग रहते हैं। परिस्थितियाँ सभी के लिये अलग-अलग होते हुये भी प्रायः सभी व्यक्तियों में हास्य-विनोद और आमोद-प्रमोद की प्रवृत्ति समान रूप से विद्यमान रहती है।
मनोरंजन इतना आवश्यक है कि उसके बिना जीवन चल पाना कठिन ही नहीं, लगभग असम्भव-सा भी है तो भी खेद है कि उसके स्तर की ओर हमारा कोई ध्यान नहीं रहता। गरीबी, अशिक्षा, संकीर्णता या कारण चाहे जो भी हो अधिकांश लोग मनोरंजन की आवश्यकता तो अनुभव करते हैं, पर उसके महत्व को नहीं समझते अथवा उसे हेय-स्तर का बनाये रखने में ही कोई भलाई दिखती है।
मनोरंजन के हेय और उत्कृष्ट के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि जो पशु-प्रवृत्तियाँ भड़कायें वह- हेय और जो मानवीय गुणों के प्रति आस्था जगाये वह- उत्कृष्ट। इस आधार पर उपलब्ध सभी मनोरंजन साधनों का विश्लेषण किया जा सकता है। आजकल उपयोग में लाये जाने वाले मनोरंजन साधनों में फिल्म और पुस्तकें प्रमुख हैं। खेद है कि इस ओर से हमें निराश ही होना पड़ेगा। फिल्में देखकर पशु-प्रवृत्तियों के शिकार हुये लोगों की कितनी घटनाएँ अखबारों में प्रकाशित हुआ करती हैं। साहित्य भी बहुत कुछ फिल्मों से प्रभावित हुआ। मानवीय गुणों के प्रति आस्था जागृत करने वाले उपन्यास, कहानियाँ, कवितायें बहुत कम दिखती हैं और सस्ती रोमांटिक पुस्तकें बड़ी मात्रा में छपकर धड़ल्ले से बिकती हैं।
लोग इन्हें इस कारण देखते हैं कि उन्हें मनोरंजन की आवश्यक खुराक मिलती रहे। परन्तु उसके प्रभाव की बारीक बातों का चयन करने की क्षमता जन-साधारण में नहीं होती। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यस्तता की अपेक्षा खाली समय में मन बड़ी गहराई से प्रभावित होता है। हम जब निश्चित मुद्रा में अवकाश के समय कोई बात सुनते हैं तो देर तक वह स्मरण में बनी रहती है और बड़ी जल्दी में कहीं जा रहे हों तो कोई बात सुनकर भी वह बड़ी जल्दी विस्मृत हो जाती है। व्यस्त लोगों को अपने आस-पास क्या हो रहा है इस बात का ध्यान नहीं रहता। सम्मोहन और कुछ नहीं, खाली मन में डाले गये संकेत ही हैं। विशेष उपचारों और प्रविधियों के कारण उनकी शक्ति बढ़ जाती है यह बात और है। लेकिन मूल सिद्धान्त एक ही है खाली मन में डाले गये संकेत और निर्देश। मनोरंजन भी उसी पद्धति से अपना प्रभाव डालता है वह कथ्य की प्रेरणाएँ बनाकर प्रस्तुत करता है।
मनोरंजन का प्रभाव संस्कारों के रूप में भी पड़ता है और वे तत्काल यदि कोई प्रभाव नहीं दर्शातीं तो कालान्तर में जब संस्कार दृढ़ हो जाते हैं तब अपना घातक असर पैदा करते हैं। अतः मनोरंजन को केवल विश्राम ही नहीं, मन को प्रभावित करने वाली एक कला के रूप में भी देखा जाना चाहिए और जो चीज कुरुचि जगाये, विकृतियों बढ़ाये उनसे दूर रहना चाहिए।
एक स्वस्थ और परिष्कृति रूप यह भी है मनोरंजन का कि वह मन के साथ-साथ शरीर को भी लाभ पहुँचाये। इस दृष्टि से खेल-कूद, बॉलीबॉल, कुश्ती कबड्डी, क्रिकेट, तैरना, दौड़ लगाना आदि क्रीड़ाओं कला-अभ्यासों को भी मनोरंजन में सम्मिलित किया जा सकता है। मनोरंजन का इतना ही अर्थ है कि हम मन के खिंचे हुये तार थोड़े ढीले करें ओर जीवन वीणा को इस योग्य रहने दें कि पुनः उसका जब साज बजाना हो तब वह पहले की तरह ही चुस्त, सक्रिय और सतेज हो सके। हमें मनोरंजन के महत्व और स्तर को समझना चाहिए तथा उसे अस्वास्थ्यकर और हानिप्रद ढंग से प्रयोग में नहीं लेना चाहिये।
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