Magazine - Year 1978 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्राप्तः को भवता गुणः
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कुछ लोग विभूतियाँ पाकर फलों से आच्छादित डाल के समान विनम्र होते हैं जो कुछ लोगों के वैभव ही उन्मत्त और मदान्ध बना देता है। बात उन दिनों की है जब बोधिसत्व वानराधिपति के रूप में उत्तराखण्ड के एक रम्य वन क्षेत्र में रह रहे थे और उत्तरांचल के सम्राट थे भूरिया। सिंहासन पर आसीन होने के बाद से अब तक प्रजा के शोषण, उत्पीड़न, युद्ध और काम पिपासा की तृप्ति के अतिरिक्त उन्होंने सृष्टि में कहीं सत्य, न्याय, विवेक, करुणा भी होती है, इसे जाना तक नहीं। समीपवर्ती सेवक वर्ग और अन्तःपुर तक उनसे थर-थर काँपता था। इस प्रकार भूरिगा उपर्युक्त दो वर्गों में से दूसरी कोटि के व्यक्ति थे।
शीतकाल प्रारम्भ हो चुका था। एक दिन भूरिगा मध्याह्न में हेमा नदी की धवल लहरों की अपनी रमणियों सहित जल-क्रीड़ा में व्यस्त थे। तभी जल प्रवाह के साथ बहता हुआ एक ऐसा न्यग्रोध फल आया, जिसकी मादक सुगन्ध ने सबको स्तम्भित कर दिया। कामिनियों ने फल को पकड़ा तो उनकी स्थिति बीन की मधुर ध्वनि सुनकर सम्मोहित हुए सर्प जैसी हो गई। भूरिग ने स्वयं आगे बढ़कर फल झपट लिया और तट पर आकर ही उसका रसास्वादन करने लगा। फल न केवल गन्ध से अपितु स्वाद में भी अप्रितम था। वैसे फल चखने के लिए सम्राट् बुरी तरह आतुर हो उठा।
देर तक जल में पड़े फल की गन्ध दूषित हो जाती है जबकि इस फल की गन्ध यह बताती थी कि वह कुछ ही दूर से बहकर आ रहा है। यह विचार आते ही भूरिग ने सैन्य दल को प्रस्थान का आदेश देकर स्वयं भी उस वृक्ष को ढूँढ़ निकालने की उत्कण्ठा में चल पड़े। उनकी दृष्टि से यह फल चिर यौवन प्रदान करने वाला था। कामुक की आकांक्षा उससे अतिरिक्त और क्या हो सकती है।
कुछ ही देर की यात्रा के बाद वृक्ष का ठिकाना मिल गया। हेम कल्प पर्वत की उपत्यिका में खड़े इस वृक्ष में पीत वर्ण के सुन्दर फल गुँथे हुए थे। यह फल वैसे ही बड़ा मनोरम लगता था, उस पर उसकी सुगन्ध से तो सम्पूर्ण वातावरण में ही मादकता फूटी पड़ रही थी। इससे भी बड़ा विस्मय यह था कि सारा वृक्ष वानरों से भी उसी तरह लदा था। कपि समुदाय को अपनी तृष्णा पूर्ति में बाधक देखकर भूरिग क्रोध में जल गए, यह तृष्णा है ही ऐसी पिशाचिनी कि अपनों की ही शत्रु बना देती है फिर वह तो प्राणी ही और जाति के थे। सम्राट के मुँह से आज्ञा होने की देर थी सैन्य दल ने पत्थरों, बर्छो और तीरों की मार की झड़ी लगा दी। वानर दल बुरी तरह क्षत-विक्षत हो चला।
एक ओर नदी, दूसरी ओर से सेना द्वारा बन्द किया आवागमन। वानराधीश ने तीसरी ओर पर्वतीय शिखर की ओर देखा तो वहाँ से छलाँग लगाकर पार जाना मृत्यु के मुख में जाने के समान लगा। इधर बन्धु-बान्धवों का विनाश देखकर उनकी आँखें छलक उठी। शरीर की समस्त शक्ति झोंक कर कपीश ने पर्वत शिखर को पा लिया, पर उनकी देह का समस्त अस्थि समुदाय चरमरा गया। उन्होंने बत की लम्बी शाखाएँ तोड़ी उन्हें अपने पैरों से मजबूती से पकड़ा और दूसरी छलाँग लगाकर पुनः वृक्ष की डाली को जा पकड़ा। डाल हाथ में आते ही अपने वानर समुदाय को उन्होंने आज्ञा दी- सब लोग इस तरह बनाये बेंत के पुल को पकड़कर पर्वत शिखर की ओर कूद कर भागें और अपने प्राणों की रक्षा करें। वानरों ने ऐसा ही किया।
बेतों का बोझ, वानरों के पसीने से लथपथ होती देह उधर नृप भूरिग के सैनिकों द्वारा निरन्तर शस्त्र प्रहार से उनकी देह क्षत-विक्षत हो गई, किन्तु अपनी सम्पूर्ण प्रजा से बचकर निकल जाने तक उन्होंने मरणासन्न होकर भी डाल नहीं छोड़ी तो फिर नहीं ही छोड़ी।
प्रजा संकट से पार हो गई। वानराधिपति की चेतना विलुप्त हो चली, आहत शरीर वे भूमि पर आ गिरे। अब तक नृप भूरिग अत्यधिक कौतूहल पूर्ण दृष्टि से सारा दृश्य देख रहे थे। अब वे वानरों के नृप के समीप जाकर बोले :-
परिभूयात्मनः सौख्यं परव्यसनपापतत्।
इत्यात्मनि समारोप्य प्राप्तः को भवतागुणः॥
हे वानर! अपने सुख की अवहेलना कर स्वजातियों पर आई विपत्ति अपने ऊपर लेकर तुमने कौन सा लाभ प्राप्त कर लिया।
वानराधीश ने उत्तर दिया :-
एभिर्मदाज्ञा प्रतिपत्ति दक्षै रारोपितो-मययधिपत्वभारः।
पुत्रेष्विवैतेष्व व बद्धहार्दस्तं बोढुमेवाह्मभिप्रपत्रः।
हे राजन! इन वानरों ने मुझे अपना अधिपति बनाया। यह दायित्व मुझ पर डाला और मेरी आज्ञापालन में तत्पर रहे। इस प्रकार ये मेरे पुत्रवत् हुए। उस पुत्रवत् स्नेह के कारण ही मैंने ऐसा आचरण किया। यानी अपने कर्तव्य का पालन कर पिता के समान इनकी रक्षा की।
राजा भूरिग सम्राट था, शासक था। तर्क निपुण तो वह था ही। उसने मूर्छित से हो चले महाकपि से तर्क किया-
अधिपार्थममात्यादि न तदर्थ महीपतिः।
इति कस्मात्स्वभृत्यामात्मानं त्यक्तवान् भवान्॥
हे वानरराज! अमात्य एवं सभी अधीन लोग अधिपति के लिए हैं न कि अधिपति इन अधीनस्थों के लिए। तब भला अपने अधीन अनुचरों के लिए आपने स्वयं को ही क्यों न्यौछावर कर दिया?
वानर योनि धारी बोधिसत्व ने हंसकर कहा-
अकारि येषां चिरमाधिपत्यं।
तेषां मयार्तिर्विनिवर्तितेति।
ऐश्वर्यलब्धस्य सुख क्रमस्य।
सम्प्राप्तमानृण्यमिदं मयाद्य।
हे राजन! मैं चिरकाल तक जिनका अधिपति रहा, उनके सुख की वृद्धि और दुःख की समाप्ति का दायित्व भी अधिपति होने के नाते मुझ पर ही तो है। इसलिए मैं उनके दुःख दूर करने के लिए अपने को न्यौछावर करने को उद्यत हुआ।
ये वानर सदा मेरे अधीन रहे। मेरा आदेश प्राणपण से पालन करते रहे। सदा मेरा मुँह जोहते रहे। मुझ पर भक्ति रखते रहे। इस प्रकार आदर, सत्कार, भक्ति और आज्ञा पालन द्वारा ये सदा मुझे सुख देते रहे। उस सुख का मुझ पर ऋण था। जिन्होंने इतना सुख दिया, सम्मान दिया, उनके प्रति अपने ऋण से मैं आज ही तो मुक्त हो सका हूँ।
‘‘युग्मं बलं जानपदामात्यान्।
पौराननाथांछामणान् द्धिजातीन।
सर्वान् सुखेन प्रयतेत योक्तुं।
हितानुकूलेन पिते व राजा।
हे राजन्! नृप अपनी प्रजा का, सैनिकों का, पशुओं का देश के सभी नागरिकों का पिता होता है। वह श्रेष्ठ लोगों, साधु, श्रमणों, अनाथों, असहायों एवं सर्वसाधारण को ऐसा सुख पहुँचाये, जो उनका कल्याण करने वाला हो, अकल्याणकारक नहीं। यह पिता जैसे अधिपति का कर्त्तव्य है। सन्तान जैसी प्रजा के ऊपर सदा करुणा, स्नेह एवं मंगल का भाव रखने वाला अधिपति ही श्री सम्पन्न होता है।
वानराधिपति के ऐसे भावनापूर्ण तर्कसंगत उदाराशय उत्तर से नृप भूरिग की प्रसुप्त सम्वेदना जागृत हो उठी। उन्हें अधिपति के रूप में अपने गुरुतर दायित्वों का बोध हुआ। प्रजा के प्रति उन्हें करुणा, वात्सल्य की नयी दृष्टि मिली। उत्सर्ग का लाभ उन्हें समझ में आ गया। बोधिसत्व महाकपि प्रफुल्ल चित्त से यह क्षत-विक्षत शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गये।
----***----