
जन्म-जन्मान्तर के अभिन्न मित्र-सत्संस्कार
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‘साइकिकल रिसर्च सोसायटी’ तथा परामनोविज्ञान की अन्य शोध-संस्थाओं ने अपनी खोजों से पुनर्जन्म-प्रतिपादक अनेक अद्यतन-आधार जुटाये हैं। इससे जहाँ जीवन के बारे में भारतीय तत्वदर्शियों की मान्यताएँ खरी सिद्ध हुई हैं, वहीं पुनर्जन्म कौर कर्मफल सम्बन्धी प्रतिपादन भी नये सिरे से प्रमाणित हुआ है? तथा संस्कारी का सातत्य और क्रमबद्धता सामने आयी है।
पुनर्जन्म का अभिप्राय यह नहीं कि फिर नये सिरे से जीवन-विकास में जुटना होगा। यदि हर बार व्यक्ति वैसी ही आन्तरिक स्थिति में पैदा हो। मन, बुद्धि, अन्तःकरण के नये सिरे से विकास हेतु प्रयास शुरू करना पड़े। मृत्यु के पूर्व तक अपने गुणों और अपनी क्षमताओं को चाहे जितना बढ़ा लेने और परिपक्व बना लेने पर भी अगले जीवन में यदि उनकी कोई उपयोगिता न रहे, तब पुनर्जन्म होने पर भी उसका कोई दार्शनिक और नैतिक महत्व नहीं रह जायेगा। पुनर्जन्म का अर्थ भौतिक तत्वों के एक निश्चित क्रम-संघात का पुनरावर्तन हो और स्मृति-कोषों का कोई अंश-विशेष ही उसका एकमात्र सातत्य-सूत्र हो, तब पुनर्जन्म की प्रक्रिया की मानव-जीवन में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रह जायेगी। किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अगले जीवन में चेतना का वह स्तर जन्मतः उपलब्ध होता है, जो वर्तमान जीवन में विकसित कर लिया गया हो। इस प्रकार प्रगति का तार टूटता नहीं और मानवीय चेतना सतत् विकसित होती चलती है।
भौतिक दृष्टि से पुनर्जन्म एक पुनरावर्तन जैसा ही प्रतीत होने पर भी, वह वस्तुतः जीवन-यात्रा का अगला चरण है। विकास का अगला क्रम है। पुनर्जन्म सतत् गतिशीलता का अगला आयाम है। शरीर की दृष्टि से तो उस नये जीवन में भी शैशव, यौवन, जरा, मृत्यु का क्रम पूर्ववत् ही रहता है। देह-धर्म तो उसी क्रम से चलता है। किन्तु मन, बुद्धि, अन्तःकरण में समायी चेतना जिस स्तर तक विकसित हो जाती है, वहाँ से पीछे नहीं लौटती प्रयत्न और साधन के अनुरूप आगे ही बढ़ती है।
पाप हो या पुण्य, उसका फल उसकी मात्रा व गुण के आधार पर ही मिलता है। न तो कोई भी कर्म बिना किसी प्रतिक्रिया-परिणाम के रहता और न ही किसी भी कर्म का परिणाम अनन्त होता है। जहाँ कर्मफल भोगना-अनिवार्य है, वहीं यह भी निश्चित है कि पाप हो या पुण्य, अपनी गुरुता या लघुता के अनुसार उसके परिणामों का भी अन्त होता है। तब अपनी अन्तश्चेतना में संचित-संकलित स्मृतियों, गुण-धर्म, संस्कारों और सामर्थ्य के साथ आत्मा पुनः नये शरीर में अवतरित होती है। विगत जीवन में अर्जित-उपलब्ध शिक्षाएँ-दिशाएँ नये जीवन की प्रवृत्ति-प्रेरणाएँ बनती हैं और विकास पथ पर आगे बढ़ने के आधार प्रस्तुत करती हैं। इसीलिए मनुष्य-योनि को कर्मयोनि कहा गया है। प्रत्येक मनुष्य जहाँ अपनी अन्तःप्रकृति के गुण-धर्म-स्वभाव से प्रेरित होता है, वहीं वह अपने विवेक से इन प्रेरणाओं पर अनुशासन-नियंत्रण भी स्थापित कर सकने में समर्थ है। तपश्चर्या, साधना द्वारा वह अपनी अन्तःप्रकृति का परिष्कार कर सकने, उसे नयी विशेषताओं-विभूतियों से सम्पन्न बना सकने में भी सक्षम है। पुनर्जन्म के शास्त्रीय सिद्धान्तों से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि कोई प्राणी बार-बार इसी जगत में जन्म ले, यह आवश्यक नहीं। अनन्त ब्रह्माण्ड के किसी भी ऐसे लोक में वह जन्म ग्रहण कर सकता है, जहाँ जीवन्त प्राणियों का निवास हो और जो लोक उसकी सूक्ष्म इन्द्रियों तथा चेतना-स्तर के अनुरूप हो।
पुनर्जन्म के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उससे इस जन्म में अर्जित विकसित प्रवृत्तियों का प्रभाव अगले जीवन में भी प्रमाणित होता है। पुराणों में पुनर्जन्म की जो कथाएँ वर्णित हैं, उनमें भी चेतना-स्तर का सातत्य दिग्दर्शित है। संस्कारों का महत्व प्रतिपादित करने वाली ये पुराकथाएँ हमारे मनीषी पूर्वजों ने इसी उद्देश्य से संकलित की हैं, जिससे व्यक्ति कर्मफल की अनिवार्यता के सिद्धान्त को भली-भांति समझकर सत्प्रवृत्तियों का तत्काल सत्परिणाम न दिखने पर भी हतोत्साहित न हो और श्रेयस के पथ पर पुरुषार्थ, कौशल साहस एवं धैर्य के साथ बढ़ता रहे।
पद्मपुराण के अनुसार सोमशर्मा नामक तपस्वी साधक हरिहर-क्षेत्र में साधना-निरत थे। उनके जीवन का अन्तिम समय निकट था, तभी दैत्यों की एक टोली वहाँ पहुँची और भयानक उपद्रव किया। इस प्रकार अन्तकाल में उनके स्मृति-पटल पर दैत्यों की यह छवि अंकित हो गई। सात्विक प्रकृति के साधक वे थे ही। उनका सूक्ष्म शरीर मृत्यु के तत्काल बाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु में प्रविष्ट हुआ। प्रहलाद के रूप में वे प्रकट हुए। जन्मतः ही उनकी अन्तश्चेतना परिष्कृत-उदात्त थी। दैत्य-दुष्प्रवृत्तियों के प्रति उनमें प्रबल विरोध भाव भी था। यही बालक प्रहलाद अपनी तपश्चर्या से भगवान के नृसिंहावतार का कृपाभाजन और दानवराज हिरण्यकशिपु के नाश का कारण बना।
स्कन्दपुराण में बलि की कथा के द्वारा सत्प्रवृत्तियों के क्रमिक अभिवर्धन का सत्परिणाम गिनाया गया है। देव ब्राह्मण निअंक जुआरी था, पर साथ ही उसमें दान की उदार प्रवृत्ति भी विद्यमान थी। एक बार जब जुए में उसने पर्याप्त धन कमा लिया, तो मद्यपान कर एक वेश्या के घर की ओर चला। मार्ग में मूर्छित हो गिर पड़ा। होश आने पर ग्लानि और प्रायश्चित्त-भावना से वह भर उठा। उसने अपने धन का एक अंश शिव-प्रतिमा को समर्पित कर दिया।
उस दिन से शिवत्व के प्रति यह आकर्षण उसमें उभरता ही गया। मृत्यु के उपरान्त उसे अपने अल्प पुण्य कर्मों के फलस्वरूप तीन घड़ी के लिये स्वर्ग का शासन प्राप्त हुआ। तब तक सत्प्रवृत्तियों का महत्व वह समझ चुका था। स्वर्ग के भोगों की ओर उसकी रंचमात्र रुचि नहीं जगी। उल्टे इस पूरी तीन घड़ी तक वह स्वर्ग की बहुमूल्य वस्तुएँ सत्पात्र श्रेष्ठ ऋषियों को लगातार दान करता रहा। इससे उसी पुण्य-प्रवृत्ति और गहरी हुई। अगले जन्म में वह महादानी बलि बना।
आधुनिक अनुसंधानों ने भी संस्कारों के महत्व को भी प्रतिपादित किया है। फ्रांस में गे-दम्पत्ति के यहाँ एक बच्ची पैदा हुई-थिरीज गे। तीन माह की वय में उसने बोलना शुरू किया। परन्तु अपने जीवन में पहला शब्द उसने अपनी मातृ-भाषा फ्रेंच में नहीं, एक ऐसी भाषा में बोला, जो न तो माँ जानती थीं, न पिता। उन लोगों ने वह शब्द डायरी में अपनी बुद्धि से नोट किया-”अहस्यपाह।” वे इस विचित्रता पर हँसते रहे।
तीन वर्ष की होने पर इस लड़की ने माँ-पिता को तब फिर विस्मित किया, जब वह अंग्रेजी शब्द अधिक बोलने लगी। यद्यपि अभिभावकों का आग्रह फ्रेंच पर था। फिर भी उनके घर-परिवार में अंग्रेजी कोई अपरिचित भाषा न होने के कारण, उन लोगों ने इसे बालिका की भाषिक-प्रवृत्ति का झुकाव विशेष माना। वास्तविक विस्मय तो तब शुरू हुआ, जब वह बच्ची किन्हीं मि0 गाँधी के बारे में बोलने-बतलाने लगी। माँ-बाप ने मामले को कुछ अनोखा ही समझा उसकी सूचना अखबारों को दी। ‘साइकिकल रिसर्च सोसायटी’ के अध्येताओं ने इसमें रुचि ली। तब जाकर इस तथ्य की ओर ध्यान गया कि तीन माह की उम्र में बालिका ने जिस शब्द का उच्चारण किया, वह संस्कृत का “अरूपाः” था। गाँधी को बच्ची के माँ-बाप तो नहीं जानते थे, पर फ्रांस के अध्येता जानते थे। उन्होंने बात की, तो पाया कि लड़की गांधी जी के बारे में बहुत-सी बातें विस्तार से बतलाती है। बच्ची का कथन था कि वह गांधी जी के साथ दक्षिण-अफ्रीका के प्रवास-काल में रही है। इस प्रकार पिछले जन्म की स्मृतियाँ तथा संस्कृत और अँग्रेजी का ज्ञान ही उसके साथ था, धन-उपकरण नहीं।
कोरिया के सियोल नगर का एक बालक किन अंग यांग बिना भाषायी शिक्षण के ही धारा प्रवाह अँग्रेजी और जर्मन बोलने लगा। गणित की “डिफरेन्शल एन्ड इन्टेग्रल-केलकुलस” की समस्याएँ बिना गणित का विशेष शिक्षण पाये सुलझाने लगा और श्रेष्ठ दार्शनिक कविताएँ लिखने लगा। अन्ततः उसे अध्ययन के लिये अमरीका में एक उच्च अध्ययन संस्थान में प्रवेश मिल गया। इस बच्चे की ये विशेषताएँ परामनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में पिछले जन्म की अर्जित शक्तियों का एक प्रमाण हो सकती हैं।
परामनोवैज्ञानिक मेयर ने अपनी पुस्तक “ह्यूमन पर्सनालिटी” में अमरीका की पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में असीरियन-सभ्यता के विशेषज्ञ प्राध्यापक हिल प्रेचट द्वारा बेबीलोनिया-साम्राज्य की एक मणि पर खुदे अक्षरों को सहसा पूर्वजन्म की स्मृति से पढ़ लेने का वर्णन किया है। इन प्राध्यापक को उस लिपि व भाषा का ज्ञान नहीं था। अकस्मात् दिवा स्वप्न की तरह उनके दिमाग में वह अर्थ कौंध गया, जो बाद में उस लिपि के विशेषज्ञों द्वारा सही बताया गया। इससे यह अनुमान किया गया कि ये प्राध्यापक पूर्वजन्म में असीरियाई नागरिक थे और उसका संस्कार इतना गहरा था कि इस बार अमरीका में जन्म लेने पर भी वे असीरियाई-सभ्यता के ही अध्ययन की ओर अधिक प्रवृत्त हुए।
इस प्रकार यद्यपि उनके पिछले जन्म की स्थिति ने इस जीवन में उनके विषय के विद्वान प्राध्यापक बनने के साधन जुटाये, तो भी यह दक्षता जन्मजात नहीं थी। जन्म से तो उस दिशा में प्रवृत्ति-विशेष ही साथ थी। अन्तरंग में उमड़ रही उस प्रवृत्ति ने ही सफलता का पथ प्रशस्त किया। वस्तुतः प्रवृत्तियाँ और संस्कार ही जन्म जन्मान्तर के साथी-सहयोगी होते हैं।
मरणोत्तर जीवन की मान्यता और संस्कारों का दूरगामी प्रभाव-परिणाम अध्यात्म-दर्शन का एक बड़ा आधार है। चिन्तन की शैली, आकांक्षा और दिशा का प्रभाव न केवल इस जीवन में विविध हलचलों की केन्द्रीय प्रेरणा के रूप में क्रियाशील रहता है, अपितु अगले जीवन में भी यह प्रभाव बना रहता है। व्यक्तित्व को विकसित एवं परिवर्तित कर सकने की वास्तविक शक्ति इन्हीं संस्कारों की प्रखरता में सन्निहित है। संस्कार किसी ग्रह-नक्षत्र की कृपा से नहीं बनते-बिगड़ते। मनुष्य अपने मनोबल, विवेक और पुरुषार्थ से ही उन्हें निखारता है। अतः सत्संस्कारों को ही जन्म-जन्मान्तर तक साथ देने वाले अभिन्न-मित्र समझकर उनकी संख्या और शक्ति बढ़ाने के लिए सदा सजग रहने में ही बुद्धिमानी है।
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