
हलो! मंगल ग्रह, एक सेकेण्ड अभी आया।
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अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार जार्ज एलन नॉट ने एक वैज्ञानिक उपन्यास लिखा है- ‘जर्नीबाय अनवेज’। उपन्यास में एलन नॉट ने एक ऐसे यान की कल्पना की है जिसमें नायक कुछ ही मिनटों में हजारों मील की यात्रा कर लेता है। यान प्रकाश की गति से चलता है और नायक यात्रियों को इच्छित स्थान पर उतार देता है। यह यान न किसी धातु का बना होता है ओर न ही इसमें कोई यन्त्र लगा होता है। बल्कि कुछ वैज्ञानिक अपनी संकल्प शक्ति से सूक्ष्म अणुओं को इस प्रकार जोड़ते हैं कि उसमें बैठकर यात्री भारहीन हो जाता है। यान चालक संकल्प करता है, अमुक जगह पहुँचना है और यान के सूक्ष्म यन्त्र चलने लगते हैं। चलने लगता है यह कहना भी गलत होगा क्योंकि कुछ ही पल में, इतनी शीघ्र कि लगता है तत्काल गन्तव्य स्थान पर खड़ा दिखाई देता है।
वहाँ जाकर मैंने देखा, चारों ओर आग लगी हुई है। जॉन एक तम्बू में फँसा हुआ है और उसके ऊपर लोहे का वजनी ट्रक गिरा पड़ा है जिसके नीचे वह दबा हुआ है। मैंने तुरन्त उस ट्रक को जॉन के ऊपर से हटाया और तम्बू के बाहर ले जाकर उसे खड़ा कर दिया।
इसके बाद मुझे अपना शरीर पूर्ववत् हो गया लगा। आँखें खोली तो प्रतीत हुआ कि जैसे तन्द्रा टूट गयी हो। पास ही मेरी पत्नी बैठी मेरी नब्ज़ टटोल रही थी। मैंने पूछा-क्या हुआ? तो वह बोली मुझे ऐसा लगा जैसे आप एबनॉर्मल हैं। मैंने उसे अपना अनुभव सुनाया तो वह बोली आपने कोई दुःस्वप्न देखा होगा। परन्तु मुझे न जाने क्यों अपनी पत्नी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। छः महीने बाद जब जॉन छुट्टी पर लौटा तो उसने युद्ध के अनुभव सुनाते समय एक अग्निकाण्ड में फँस जाने और वहाँ से चमत्कारी ढंग से निकल जाने की घटना सुनायी।
इस घटना के सम्बन्ध में वर्नहाट का विश्वास है कि दूरबोध द्वारा उक्त दुर्घटना की सूचना पाकर उनका सूक्ष्म शरीर ही जॉन को बचाने के लिए गया था। तो क्या सूक्ष्म शरीर से हर कहीं तत्क्षण पहुँच सकता है। अध्यात्म विज्ञान इसका उत्तर ‘हाँ’ में देता है और विज्ञान का ध्यान भी इस तथ्य की ओर आकर्षित होने लगा है? ऐसा कई घटनाओं के विवरण संकलित किये जा चुके हैं जिनमें सूक्ष्म की शक्ति ही क्रियाशील दिखाई दी है।
सूक्ष्म देह स्थूल देह से अलग हो सकती है यह तो कई व्यक्तियों के अनुभव में आ चुका है। पिछले दिनों अमेरिका की विश्वविख्यात अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर का अनुभव प्रकाशित हुआ था। उसमें बताया गया था कि टेलर का कोई गम्भीर आपरेशन किया जाना था, टेलर को आपरेशन टेबल पर लिटाया गया और बेहोश किया गया। आपरेशन काफी समय तक चला और जब पूरा हो गया तो डॉक्टरों का अकस्मात् ध्यान गया कि टेलर की काया निष्प्राण हो चुकी है। उसकी साँस भी बन्द हो गयी थी नाड़ी डूबती जा रही थी, हृदय भी बहुत धीरे-धीरे धड़क रहा था। काफी प्रयत्नों के बाद वह स्वस्थ हो सकी और जब वह स्वस्थ हुई तो उसने कहा- ‘मैंने अपना आपरेशन अपनी आंखों से देखा है।’
टेलर तो बेहोश थी। भला अपना आपरेशन आप कैसे देख सकती थी? डॉक्टरों ने पूछा तो उसने बताया कि-‘‘तब मैं अपने शरीर को भी उसी प्रकार देख सकती थी जैसे कि किसी दूसरे का देख सकती हूँ। सिर, चेहरा, मुँह, नाम आदि सब कुछ। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं अपने शरीर के बाहर निकल आयी हूँ और अपने शरीर को उस प्रकार देख रही हूँ जैसे वह किसी दूसरे का शरीर हो, उस समय में अपने आपको बहुत हल्का-फुल्का अनुभव कर रही थी।’’
एलिजाबेथ टेलर कहीं उस समय स्वप्नों के सागर में तो नहीं खो गयी थी यह जाँचने के लिए डाक्टरों ने पूछा, अच्छा आपरेशन के दौरान क्या-क्या हुआ यह बताइये। टेलर ने आपरेशन की प्रत्येक प्रक्रिया बता दी, यही नहीं डाक्टरों ने कौन-सी वस्तुएं आपरेशन के कौन से उपकरण किसी क्रम से इस्तेमाल किये यह भी बता दिया। एलिजाबेथ ने यह भी बताया कि अमुक उपकरण यथास्थान उपलब्ध न होने के कारण प्रमुख सर्जन किस प्रकार झल्ला उठे थे और उन्होंने कौन-कौन से शब्द कहे थे।
इन अनुभूतियों को सुनकर एलिजाबेथ की बातों पर किसी को सन्देह न रहा। भारतीय अध्यात्म-दर्शन से परिचित व्यक्तियों के लिए यह घटना नितान्त सहज हो सकती है क्योंकि यहाँ स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म और कारण शरीर का अस्तित्व भी सदा से स्वीकारा जाता रहा है परन्तु पश्चिम के लिए यह घटना चौंका देने वाली हो सकती है। ऐसी बात नहीं है कि पश्चिम में शरीर से परे आत्मा के अस्तित्व को कभी स्वीकारा ही नहीं गया हो। वहाँ भी जिन सन्त महात्माओं ने अध्यात्म विज्ञान की खोज की उन्होंने सूक्ष्म के अस्तित्व को स्वीकारा परन्तु आधुनिक पदार्थ विज्ञान ने उन बातों को अन्धविश्वास का फतवा देकर बुद्धिजीवियों के दिमाग से उन आस्थाओं को पोंछ-सा ही दिया।
इसके बावजूद भी इस तरह की घटनायें घटती रही हैं। जिनके कारण पदार्थ विज्ञानियों को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि मनुष्य की चेतना स्थूल शरीर से बँधी हुई नहीं है। वह इच्छानुसार कहीं भी आ जा सकती है। प्रसिद्ध मनश्चिकित्सा विज्ञानी डॉ0 थैमला मोस ने सिद्ध कर दिखाया है कि-‘कोई भी व्यक्ति अपनी चेतना को अपने शरीर से बाहर निकाल सकता है और पल भर में हजारों मील दूर जा सकता है।
एक दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए डॉ0 मोस ने लिखा है-‘‘ब्रिटिश कोलम्बिया विधानसभा का अधिवेशन विक्टोरिया सिर्ए में चल रहा था। उस समय एक विधायक चार्ल्सवुड बहुत बीमार थे, डाक्टरों को उनके बचने की उम्मीद नहीं थी परन्तु उनकी उत्कट इच्छा थी कि वे अधिवेशन में भाग लें। डाक्टरों ने उन्हें बिस्तर से उठने के लिए भी मना कर दिया था और वे अपनी स्थिति से विवश बिस्तर पर लेटे थे। परन्तु सदन में सदस्यों ने देखा कि चार्ल्स विधान सभा में उपस्थित है। अधिवेशन की समाप्ति पर सदस्यों का जो चुपचाप फोटो लिया गया, उसमें चार्ल्सवुड भी विधान सभा की कार्यवाही में भाग लेने वाले सदस्यों के साथ उपस्थित थे।”
विश्वविख्यात दार्शनिक, चिन्तक और मनोवैज्ञानिक डॉ0 कार्लजुंग ने तो स्वयं एक बार सूक्ष्म शरीर के शरीर से बाहर आने का अनुभव किया था। उन्होंने ‘मेमोरीज’ ड्रीम्स एण्ड रिफ्लेक्शंस’ नामक पुस्तक में इस घटना का उस वर्ष जुंग को दिल का दौरा पड़ा। दौरा बहुत खतरनाक था और डॉक्टरों के अनुसार जुंग का मौत से आमना-सामना हो रहा था। जुंग ने उस समय के अनुभव को इन शब्दों में लिखा है-‘जब मुझे दवा दी जा रही थी और प्राण रक्षा के लिए इन्जेक्शन लगाये जा रहे थे तब मुझे कई विचित्र अनुभव हुए। कहना मुश्किल है मैं उस समय अचेत था अथवा स्वप्न देख रहा था। पर मुझे यह स्पष्ट अनुभव हो रहा था कि मैं अन्तरिक्ष में लटका हुआ हूँ और धुनी हुई रुई के गोलों की तरह हल्का-फुल्का हूँ। मैं उस समय जहाँ था वहाँ से हजार मील दूर पर स्थित चेरुशलय शहर को इस प्रकार देख रहा था कि जैसे मैं विमान में बैठकर आकाश से नीचे झाँक रहा हूँ। इसके बाद मैं एक पूजागृह में प्रविष्ट हुआ। वहाँ मैंने अनुभव किया कि मैं इतिहास का कोई खण्ड हूँ और कहीं भी आने जाने के लिए स्वतन्त्र हूँ। तभी मेरे ऊपर कोई छाया-सी मण्डराती दिखाई, दी, उस छाया ने मुझसे कहा कि तुम्हें अपने भौतिक शरीर में प्रवेश कर जाना चाहिए। जैसे ही मैंने उस छाया के आदेश का पालन किया मैंने अनुभव किया कि मैं अब स्वतन्त्र नहीं हूँ। परन्तु इस अनुभूति ने मुझे जो अन्तर्दृष्टि प्रदान की उसने मेरे सभी सन्देह समाप्त कर दिये तथा मैंने जान लिया कि जीवन की समाप्ति पर क्या होता है।”
भौतिक विज्ञान पदार्थ का विश्लेषण करते-करते इस बिन्दु तक तो पहुँच ही गया है कि जिन्हें हम पदार्थ कहते हैं वह वस्तुतः कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं है बल्कि किसी भी पदार्थ का छोटे से छोटा कण भी असंख्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों का संघटक है। इन घटकों को अणु कहा जाता है। इससे आगे शोध करने पर वैज्ञानिकों ने चेतना के दर्शन आरम्भ किये हैं।
वैज्ञानिकों ने इस शरीर को ‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ नाम दिया है। इस शरीर के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि यह केवल उत्तेजित विद्युत अणुओं से बने प्रारम्भिक जीवाणुओं के समूह का योग भर नहीं है वरन् एक व्यवस्थित तथा स्वचालित घटक है जो अपना स्वयं का चुम्बकीय क्षेत्र निःसृजित करता है।
अध्यात्म विज्ञान ने चेतना को स्थूल की पकड़ से सर्वथा परे बताया है उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है। फिर भी प्राणियों का शरीर निर्मित करने वाले घटकों का जितना विवेचन, विश्लेषण अभी तक हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि आज नहीं तो कल विज्ञान भी इस तथ्य को अनुभव कर सकेगा कि चेतना को स्थूल यन्त्रों से नहीं, विकसित चेतना के माध्यम से ही अनुभव किया जा सकेगा।
‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने उसके तत्वों का भी विश्लेषण किया। बायोप्लाज्मा की संरचना और कार्यविधि का अध्ययन करने के लिए सोवियत वैज्ञानिकों ने कई प्रयोग किये और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बायोप्लाज्मा का मूल स्थान मस्तिष्क है और यह तत्व मस्तिष्क में ही सर्वाधिक सघन अवस्था में पाया जाता है तथा सुषुम्ना नाड़ी और स्नायविक कोशाओं में सर्वाधिक सक्रिय रहता है।
अध्यात्मविद् मानते हैं कि मानवीय चेतना का मूल स्थान मस्तिष्क में ही है। शास्त्रकार ने तो इस शरीर की तुलना एक ऐसे वृक्ष से की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखायें नीचे की ओर हैं। जिस प्राण ऊर्जा के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने अनुभव किया वह आत्मचेतना नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर के स्तर की ही शक्ति है जिसे मनुष्य शरीर की विद्युतीय ऊर्जा भी कहा जाता है यह ऊर्जा प्रत्येक जीवधारी के शरीर में विद्यमान रहती है।
थेल विश्वविद्यालय में न्यूरो अकादमी के प्रोफेसर डॉ0 हेराल्डवर ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक जीवित प्राणी चाहे वह क्रीड़ा ही क्यों न हो ‘इलेक्ट्रोडायन मिक’ क्षेत्र से आवृत्त रहता है।
बाद में इसी विश्वविद्यालय के एक अन्य वैज्ञानिक डॉ0 लियोनार्ड राबित्ज ने इस खोज को आगे बढ़ाया और कहा इस क्षेत्र को मस्तिष्क के द्वारा प्रभावित किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म ने इन शक्तियों के विकास हेतु ध्यान धारणा का मार्ग बताया है।
अब यह लगभग निश्चित हो चला है कि विज्ञान भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा और सफल हो रहा है जिस सफलता की योग और दर्शन बहुत पहले प्राप्त कर चुका है। पुराणों और धर्मग्रन्थों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्हें चमत्कारी घटनायें कहा जाता है।
सूक्ष्म की सत्ता और सामर्थ्य को देखते हुए यह भी असम्भव नहीं लगता कि प्राचीनकाल में ऋषि, महर्षि, देवता, असुर आदि संकल्प बल से या सूक्ष्म के माध्यम से सुदूर ग्रह-नक्षत्रों की यात्रा पलक झपकते ही सम्पन्न कर लेते हों। कौन जाने अगले कुछ ही वर्षों में विज्ञान ही ग्रह-नक्षत्रों पर खर्चीले तथा भारी यन्त्रों से लदे यान की अपेक्षा सूक्ष्म के माध्यम से वहाँ पहुँचने की विधि खोज निकाल ले। प्रसिद्ध इलेक्ट्रॉनिक विशेषज्ञ डॉ0 निकोलसन ने तो यहाँ तक कहा है कि अगले सौ पचास वर्षों में इलेक्ट्रॉनिकी इतनी विकसित हो जायगी कि किसी भी वैज्ञानिक को किसी भी ग्रह पर भेजा जा सकेगा। करोड़ों मील दूर स्थित ग्रह पर बैठा कोई वैज्ञानिक किसी गुत्थी के बारे में पूछेगा तो उसे कहा जा सकेगा कि एक सेकेंड रुकिये अभी पहुँच रहा हूँ। और यह सब सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही सम्भव हो सकेगा।