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Magazine - Year 1979 - March 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रकृति के आँगन में ब्रह्म विद्या के पाठ

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First 12 14 Last
ज्ञानप्राप्ति के लिए चिरकाल तक तप अनुष्ठान करने के बाद भी जब दत्तात्रेय को अपनी उपलब्धियों से सन्तोष न हुआ तो ब्रह्मा के पास पहुँचे। विधिवत् अर्चन वंदन करने बाद दत्तात्रेय ने कहा-”भगवन्! मैं उपयुक्त गुरु की खोज करने लिए अब तक कई स्थानों पर भटकता रहा, अनेक गुरुओं, संत-महात्माओं के पास पहुँचा परन्तु मुझे कीं भी ऐसा नहीं लगा कि जिसकी मुझे आवश्यकता थी वह मुझे प्राप्त हो गया है। कृपा कर ज्ञान प्राप्ति का मार्ग बताइये।”

“जिससे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है वह सद्गुरु तो प्रत्येक व्यक्ति के अन्तः करण में ही विद्यमान है,” ब्रह्मा ने कहा-वत्स, आवश्यकता केवल उसी गुरु को खोजने की है-जिस व्यक्ति का अन्तःकरण कषाय कल्मषों से मुक्त हो गया है, तपश्चर्या और साधना द्वारा जिसने अपने मल विकारों को नष्ट कर लिया है तथा अन्तःकरण को पवित्र निष्कलुष बना दिया है वह व्यक्ति अपने चारों ओर विस्तीर्ण प्रकृति देखकर ही धर्म और अध्यात्म का तत्व ज्ञान सीख सकता है।”

प्रजापति ब्रह्मा से यह सूत्र प्राप्त कर दत्तात्रेय पृथ्वी पर लौट आये और उन्होंने प्रकृति में घटने वाली छोटी से छोटी घटनाओं को देखकर-उनका निरीक्षण कर ब्रह्मविद्या का अध्ययन किया और जीवन मुक्त हो गये। प्रकृति की खुली हुई पुस्तक पढ़कर अपने आस पास घटने वाली सामान्य घटनाओं का निरीक्षण करके दत्तात्रेय ने जब अध्यात्म ज्ञान की सिद्धि करली तो वे उन्मुक्त -विचरण करते हुये जन-जन को आध्यात्मिकता का संदेश सुनाने लगे। राजा से रंक तक और भोगी से योगी तक हर कोई उनकी अमृतवाणी श्रवण कर आत्मिक आह्लाद का अनुभव करने लगता।

एक बार राजा यदु ने दत्तात्रेय से पूछा महात्मन्! संसार के अधिकाँश लोक काम और लोभ के वश होकर कष्ट पा रहे हैं। आपने यह जीवन्मुक्त अवस्था कैसे प्राप्त की। कृपा कर आप मुझे यह बताइये कि आपको आत्मा में ही परमानंद का अनुभव कैसे होता है तथा आपने यह अपने किस गुरु के चरणों में बैठ कर प्राप्त की है।

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय जी ने उत्तर दिया-”मैंने अपने अन्तःकरण से अनेक गुरुओं द्वारा मूक उपदेश प्राप्त किया है।”

राजा यदु की जिज्ञासा और बढ़ी तथा उन्होंने पूछ ही लिया-अनेक गुरु? किस प्रकार? क्या नाम हैं उन गुरुओं के?

एक साथ किये गये इन अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हुए दत्तात्रेय ने कहा-राजन्! प्राप्ति के लिए अकेले गुरु से ही काम नहीं चलता उसके लिए अन्तःकरण में स्थित सद् गुरु की शरण भी जाना पड़ता है तो कौन गुरु है और क्या शिक्षा दे रहा है इसका विवेचन करता व समझाता है। इस सद्गुरु ने मुझे 24 गुरुओं से शिक्षा ग्रहण करायी। उन गुरुओं में पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, भौंरा, हाथी, मधुमक्खी, हरिण, मछली, पिंगलावेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बाग बनाने वाला, सर्प और भृंगी कीट है”

ब्रह्मन्! यह सब तो जड़ अथवा निर्बुद्धि हैं इन्होंने आपको क्या उपदेश दिया’-राजा यदु ने यह पूछा तो दत्तात्रेय ने बताया जड़ और निर्बुद्धि होते हुए भी प्रकृति तो उस लीलामय की चेतना लीला ही है। यदि हम अपने अन्तःकरण को निर्मल और परिष्कृत बना सके तो इस प्रकृति से ही बहुत कुछ सीख सकते हैं। जैसे पृथ्वी से मैंने धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और उत्पात करते रहते हैं, पर वह न तो किसी से बदला लेती है तथा न रोती चिल्लाती है। प्राणी जाने-अनजाने एक दूसरे का अपकार कर ही डालते हैं। धीर पुरुष को चाहिए दूसरे की विवशता को समझकर वह न तो अपना धीरज खोये और न ही किसी पर क्रोध करे।

“वायु से मैंने यह शिक्षा ली है कि जैसे अनेक स्थानों में जाने पर भी वह कीं आसक्त नहीं होता और किसी का भी गुण दोष नहीं अपनाता वैसे ही साधक भी किसी का न तो दोष ग्रहण करे और न किसी से आसक्ति तथा द्वेष ही करे।”

जितने भी चल अचल पदार्थ हैं उनका आश्रय स्थान एक ही है आकाश! आकाश को देखकर मैंने यह जाना कि इस विश्व ब्रह्माण्ड में जितने भी चर अचर जीव है और थिर-अस्थिर पदार्थ हैं उनमें विद्यमान आत्मा ब्रह्मरूप से सर्वत्र व्याप्त है।

जल स्वभाव से ही स्वच्छ, मधुर और पवित्र हैं। जल को देखकर ही मैंने यह प्रेरणा प्राप्त की कि साधक को भी अपना स्वभाव स्वच्छ, शुद्ध, मधुर और पवित्र रखना चाहिए। अग्नि तेजस्वी और ‘ज्योतिर्मय होती है और उसके तेज को कोई दबा नहीं सकता’ उसके पास संग्रह परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं है और वह सब कुछ भस्म कर डालती है। भले बुरे सभी पदार्थों को भस्म कर डालने पर भी वह किसी वस्तु के दोषों से लिप्त नहीं होती इसी तरह साधक को भी तेजस्वी, इंद्रियों से अपराजित और विषयों से निर्लिप्त रहना चाहिए।

चंद्रमा की गति तो नहीं जानी जा सकती परन्तु काल के प्रभाव से उसकी गति घटती बढ़ती रहती है। वस्तुतः वह न तो घटता है और न बढ़ता है। वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु और मृत्यु से लेकर पुनः जन्म तक जितनी भी अवस्थायें बदलती हैं वे सब शरीर की ही अवस्थायें हैं। आत्मा का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। सूर्य अपनी किरणों में से पृथ्वी का जल खींचता है और समय पर उसे बरसाता है वैसे ही योगी पुरुष भी समय और विषयों को ग्रहण और त्याग करते हैं किन्तु सूर्य की भाँति उनमें आसक्त नहीं होते।

अजगर से मैंने यह सीखा कि साधक को हर स्थिति में संतुष्ट रहना चाहिए। समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण न तो बढ़ता है और न ही ग्रीष्म ऋतु में जब नदियाँ सूखने लगती हैं तो घटता ही है। उस समुद्र से मैं ने यह सीखा कि साधक को सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति पर न तो प्रफुल्लित होना चाहिए तथा न ही उनके नष्ट हो जाने से भिन्न होना चाहिए।

पतंगा दीपक के रूप पर मोहित होकर उसकी शिखा में कूदता है और जल कर मर जाता है। वैसे ही अपनी इंद्रियों का वश में न रखने वाला पुरुष नाशवान पदार्थों में फँसा रहता है उसकी सारी चित्त वृत्तियाँ उनके उपभोग के लिए ही लालायित रहती है। वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतंगे के समान ही नष्ट हो जाता है।

भौंरा छोटे बड़ अनेक पुष्पों से उनका सार मात्र ग्रहण करता है वैसे ही हे राजन् बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह छोटे बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार मात्र ग्रहण करे। हाथी से मैंने यह सीखा कि साधक काठ की बनी पुतली से भी मोह न करे। हाथी काठ की हथिनी को देखकर ही शिकारियों क्षरा खोदे गये गढ्ढे में जा गिरता है तथा उस कारण मृत्यु को प्राप्त होता है। इसी प्रकार काष्ठ मूत में भी साधक की आसक्ति उसके पतन का कारण बन जाती है।

मधु निकालने वाली मक्खी से राजन्! मैंने यह शिक्षा ली कि जिस प्रकार वह प्रयत्नपूर्वक रस का संचय करती हैं इसी प्रकार लोभी व्यक्ति भी धन का संचय करते हैं। लोभी मधुमक्खी का संचित रस अन्य लोग ही ले उड़ते है। उसी प्रकार लोभी मनुष्य का संचित धन भी कोई दूसरा ही भोगता हैं। हरिण वाद्क यंत्रों के कारण श्रवणेंद्रिय के विषयों में आसक्त होकर अपने प्राण गंवाता है उसी प्रकार साधक को श्रवणेन्द्रिय के विषय को आसक्ति पतन की ओर धकेलती है। मछली काँटे में फंसे हुए मास के टुकड़े में अपने प्राण गँवा देती है वैसे ही स्वाद का लोभी मनुष्य भी अपनी जिह्वा के वश होकर मारा जाता है।

प्राचीन काल में विदेह नगरी में पिंगला नाम की एक वेश्या रहती थी। उसके मन में धन की बहुत कामना थी इसलिए वह सदा ही यह सोचा करती थी कि कोई धनी पुरुष आकर उसे अपना धन दे जायेगा एक दिन वह आधी रात तक इसी तरह प्रतीक्षा में खड़ी रही अत्यधिक देर हो जाने से उसका मुँह, सूख गया और चित्त व्याकुल हो गया, पर उस रात को उसे निराश ही रहना पड़ा इस निराशा के कारण उसे वैराग्य हो गया। इससे मैंने यह सीखा कि दूसरों से आशा कर उन पर निर्भर करना ही सबसे बड़ा दुख है। दूसरों से आशा न कर अपने प्रयत्नों पर ही निर्भर करना सबसे बड़ा सुख है। उस रात जब पिंगला ने दूसरों से आशा करना छोड़ दिया तो वह सुख की नींद सो सकी।

एक बार किसी कुमार कन्या के घर; उसे वरण करने के लिए कई वर और उनके परिजन पहुँचे। संयोग से उन दिन घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इस लिए कन्या ने स्वयं ही उनका आतिथ्य सत्कार किया और उन्हें भोजन कराने के लिए घर के भीतर एकाँत में धान कूटने लगी। धान कूटते समय उसकी कलाई की चूड़ियाँ बज रही थीं। इससे उसे बड़ी लज्जा हुई। उसने एक-एक करके सारी चूड़ियाँ उतार दीं, केवल एक ही रखी। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि साधक के चित्त में जब बहुत सी वृत्तियाँ हों तो वहाँ भी इसी प्रकार का कोलाहल उत्पन्न होता रहता हैं। इसलिए साधक को अपने चित्त में एक ही ध्येय का अवलम्बन करना चाहिए।

एक बाण बनाने वाला अपने कार्य में इतना तन्मय हो गया था कि उसके पास से ही राजा की सवारी दलबल, में साथ निकल गयी, पर उसे इस बात का पता ही नहीं चला, क्योंकि देह अपने काम में पूरी तरह तन्मय था। उससे मैंने यह शिक्षा ली कि साधक भी अपने ज्ञातव्य के चिंतन में तन्मय रहें तो उसे संसार में होने वाली उथल-पुथल अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती।

कोई पक्षी अपनी चोंच में माँस का टुकड़ा लिए बैठा था। उसे छीनने के लिए दूसरे पक्षियों ने उसे अपनी चोंचों से मारना शुरू कर दिया। जब उस पक्षी ने चोंच में दबाये हुए टुकड़े को फेंक दिया तो वह कष्ट से मुक्त हो गया। अनावश्यक संग्रह ही दूसरों के मन में ईर्ष्या के कारण कष्ट पहुँचता है। उस पक्षी से मैंने यह शिक्षा ली कि अनावश्यक संग्रह नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार साँप से मैंने यह शिक्षा ली कि संन्यासी को मठ या मण्डली बनाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।

मकड़ी बिना किसी सहायक के अपने ही मुँह के तारों द्वारा जाला बना लेती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे ही निगल जाती है। मकड़ी के इस कार्य से मैंने सर्वशक्तिमान भगवान की विश्व रचना के कार्य को समझने का प्रयत्न किया है। भगवान बिना किसी सहायक के अपनी ही माया से इस ब्रह्माण्ड को रचते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और अपने आप को ही लीन करके अंत में अकेले ही शेष रह जाते है।

भृंगी किसी कीट को पकड़ कर अपने रहने के स्थान में बंद कर देता है और कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते तद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार साधक को भी केवल परमात्मा का ही चिंतन करके परमात्मा रूप हो जाना चाहिए। विवेक और वैराग्य की शिक्षा देने के कारण यह मेरा शरीर भी एक गुरु है। यद्यपि यह शरीर अनित्य है। तो भी इससे परम पुरुषार्थ का लाभ हो सकता है। मैंने इस प्रकार प्रकृति के चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की तथा जीवन-मुक्त होने का मार्ग पाया।

भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध में दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं का सविस्तार वर्णन आया है और इस आख्यान का प्रतिपाद्य-मर्म-रहस्य यही है कि व्यक्ति यदि सीखना चाहे तो उसके लिए आवश्यकता केवल तीव्र लगन और आकुल जिज्ञासा भर की है। ये सभी साधन सुविधायें उपयोगी है और आवश्यक भी, परज्ञान प्राप्ति में आधार भूत दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति में ज्ञान प्राप्त करने के लिए कितनी उत्कंठा है, कितनी लगन है और कितनी साध है।

भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-ज्ञान प्राप्त करने के लिए अकेले गुरु से ही काम नहीं चलता बल्कि उसके लिए स्वयं भी सोचने समझने और चतुर्दिक होती रहने वाली छोटी-छोटी घटनाओं से भी बहुत कुछ समझना आवश्यक है। साधक यदि अपनी दृष्टि को सूक्ष्म और ग्राह्म बनाये तो उसके चारों और ब्रह्मा विद्या का महाविद्यालय खुला पड़ा है, प्रकृति ने अपनी प्रिय संतान के लिए अपने ही आँगन में ब्रह्मविद्या का भाग्योदय मंदिर खोल रखा है। कोई उसमें नम्र याजक पूजक की तरह जाये तो सही।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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March 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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