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Magazine - Year 1979 - March 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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निरंकुश भोगवाद अपराधी प्रवृत्तियों को बढ़ाता है।

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First 8 10 Last
अपराधों के बारे में जो सरकारी आंकड़े उपलब्ध है, वे इस तथ्य का प्रमाण हैं कि अपने देश में अपराधों लगातार बढ़ रहे है। पुलिस के प्रतिवेदनों के ही अनुसार बम्बई, दिल्ली, बैंगलौर कलकत्ता, मद्रास, कानपुर, अहमदाबाद और हैदराबाद में 1976 की तुलना में 1977 में अपराध अधिक हुए। सर्वाधिक अपराध मुंबई में दर्ज किये गये-शेष शहरों में उपर्युक्त क्रम से ही अपराधों की संख्या कम दर्ज है। बम्बई में जनवरी, फरवरी और मार्च 1977 इन तीन महीनों में ही आठ हजार दो सौ साठ अपराध पुलिस के रोजनामचे में अंकित किये गये। इससे कहीं अधिक अपराध ऐसे भी होते हैं, तो नागरिकों की उदासीनता, पीड़ित पक्ष के मन में पुलिस के आतंक या आक्रामक पक्ष का पुलिस पर प्रभाव-दबाव अथवा किसी प्रलोभन के अभाव में पुलिस की अनिच्छा आदि कारणों से दर्ज नहीं किये जाते।

शासकीय आँकड़ों के ही अनुसार सन् 77 के आखिरी महीनों में देश में हत्याओं की संख्या बढ़ी, ग्रामीण क्षेत्रों में डाकुओं की संख्या बढ़ी। रेल -यात्रा और राजमार्गों पर बसों से यात्रा अधिक असुरक्षित हो गई। गुंडागर्दी और बाल अपराध भी बढ़े तथा शासन के विरुद्ध रोष-प्रदर्शन की आड़ में अराजक तत्वों की उपद्रवी गतिविधियाँ भी बढ़ी, जोकि वस्तुतः राजनैतिक कम, आपराधिक अधिक हैं।

दंगे को प्रायः साम्प्रदायिक रूप दिया जाता है। किन्तु उनकी तह में जाने पर भी यही स्पष्ट होता है कि प्रायः किसी शहर-कस्बे के कुछ गुँडे, उद्दंड किस्म के मनचले आवारा नौजवान सर्वथा निजी कारणों से अपनी उन्मत्त गतिविधियों के द्वारा दंगों की शुरुआत करते हैं।

राजस्थान को अब तक अन्य राज्यों की तुलना में शान्त राज्य माना जाता था, किन्तु 1977 के वर्ष में वहाँ भी अपराधों में रिकार्ड तोड़ वृद्धि हुई। 77 के वर्ष में वहाँ भी अपराधों में रिकार्ड तोड़ वृद्धि हुई। 77 के वर्ष में जयपुर में 57 हत्यायें तथा साढ़े आठ हजार से अधिक अन्य अपराध अंकित किये गये। उदयपुर में 5 हजार दो सौ अपराधों के अतिरिक्त 43 हत्या के मामले दर्ज हुए। कोटा में भी अपराधों की संख्या लगभग उदयपुर जैसी ही रही और हत्यायें 45 दर्ज की गई। जबकि गंगानगर में हत्याओं की संख्या जयपुर के बराबर अर्थात् 57 रही।

पाश्चात्य चिन्तन शैली के अभ्यस्त कई समाज शास्त्रियों के अनुसार हत्याओं और अपराधों में यह वृद्धि स्वाभाविक है, क्योंकि भारतीय समाज आज संक्रमण काल से गुजर रहा है और औद्योगिक क्रान्ति के दबाव से नये सामाजिक तनाव पैदा हो रहे हैं। आर्थिक दबाव यानी गरीबी तथा शहरीकरण जनित गुमनामी यानी अपरिचय की सुविधा इसके मुख्य कारण बताये जाते हैं। सामाजिक जागरूकता की वृद्धि गरीबों में धनिकों के प्रति क्षोभ उत्पन्न करती है तथा शहर में एक दूसरे के कुलशील, ठौर-ठिकाने का अता-पता न होने से अपराध कर गुमनाम हो जाना आसान हो जाता है-ऐसा इन समाजशास्त्रियों द्वारा विश्लेषित किया जाता है।

यदि विपन्नता और सम्पन्नता की भीषण विषमता से उत्पन्न तनाव अपराधों का मुख्य कारण रहा होता तो अमरीका में, इस तनाव का अभाव है, तब वहाँ गम्भीर अपराध नहीं होने चाहिए। किन्तु वास्तविकता इससे विपरीत है। अमरीका में प्रति आधा घंटे में एक हत्या हो जाती है। दूसरी और यदि गुमनामी या अपरिचय की सुविधा स्वाभाविक रूप में अपराध वृति को उभारने वाली हुआ करती, तो तीर्थ-यात्री भी अपरिचित स्थानों पर जाकर भीड़-भक्कड़ में अपराध किया करते। जबकि वे लोग तो तीर्थयात्रा के दौरान सामान्य से अधिक ही उत्कृष्ट आचरण का प्रयास करते हैं।

स्पष्ट है कि अपराधों की जड़ साधनों की प्रचुरता या अभाव अथवा अवसरों की उपलब्धि से सम्बन्धित नहीं है। अपितु वह मानवीय चिन्तन से सम्बन्धित हैं। सामाजिक परिवेश अपराधों के लिए उत्तरदायी तो है, किन्तु सामाजिक परिवेश का अर्थ समाज का भौतिक ढ़ाँचा या समाज में साधनों- उपकरणों का औसत नहीं है। अपितु समाज में किन गुणों, मूल्यों और आदर्शों की प्रतिष्ठा है, इससे सामाजिक परिवेश बनता है।

जब तक सामाजिक परिवेश मानसिक उद्वेगों को बढ़ाने वाला रहेगा, समाज में उद्धत आचरण और अपराध-कर्म बढ़ते रहेंगे। वातावरण में ही व्यक्तियों का अंतरंग और बहिरंग ढ़ाँचा ढालने की क्षमता होती है। यदि वर्तमान ढांचे अस्वस्थ, असुंदर और अशिव रूपों का निर्माण करने वाले प्रतीत होते हैं तो उनका स्वरूप परिवर्तित करने की ही आवश्यकता है।

छोटी श्रेणी के पशु मात्र शरीर- स्वार्थ की पूर्ति के लिए हत्यायें करते हैं। किन्तु मनुष्य तो ऐसी भी हत्यायें और अपराध करते देखें जाते हैं, जिनसे न तो उनके शरीर का कोई लाभ पहुँचता है नहीं मन को। यह चिन्तन और भावनाओं की विकृति नहीं तो और क्या है?

अपराधी प्रवृत्ति भय, आशंका, अविश्वास, घृणा और लोभ की अधिकता से बढ़ती है। इन पर रोक लगाने का काम अन्तःकरण की वे आस्थाएँ ही कर सकती हैं जिन्हें आस्तिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता, सद्भावशीलता, संस्कारसम्पन्नता के रूप में जाना जाता है। सरकारी रोकथाम से बात अधिक बनती नहीं।

सरकारी रोकथाम के आधार है कानून और औजार है पुलिस। विकृत वातावरण में ये दोनों ही उद्देश्य पूर्ति में विफल-अक्षम सिद्ध हो जाते हैं। यह शिकायत आये दिन की जाती है कि पुलिस-प्रशासन में ईमानदार, निष्ठावान लोगों की कमी है। परन्तु सोचने की बात यह है कि पुलिस आसमान से नहीं टपकती। पुलिस के लोग और जनता एक ही ढाँचे की उत्पत्ति हैं। पुलिसमैंन अपराधी तथा पीड़ित-तीनों ही साथ-साथ गाँव को धूलभरी पगडंडियों में, हरे भरे खेत खलिहानों के बीच, बाढ़ और सूखे की मार सहते हुए बढ़ते हैं या फिर कस्बों-शहरोँ के मुहल्लों में साथ-साथ खेलते-घूमते बड़े होते है। यदि उस वातावरण में ही करुणा, संवेदना कोमलता की भावनाएँ उभारने वाले तत्व पर्याप्त मात्रा में रहें, तो अपराध की प्रवृत्तियाँ कभी भी बढ़ नहीं सकती।

जहाँ तक कानूनों की बात है, हर बुरे काम के विरुद्ध कानून है। अपराधियों के लिये जेल, पुलिस न्यायालय की पूरी व्यवस्था है। जाँच पड़ताल के लिये गुप्तचरों का सरकारी तंत्र है। इन सब पर भारी खर्च भी होता है। किन्तु अपराध दिनदहाड़े जारी हैं और बढ़ रहे है। पचास प्रतिशत अपराध तो अंकित ही नहीं किये, कराये जाते। जो दर्ज होते है, उनमें भी दस प्रतिशत पकड़ में नहीं आते। जितने लोग पकड़े जाते हैं उनमें से तीन-चौथाई तिकड़म-तरकीब, धन-आतंक, प्रभाव दबाव से छूट जाते हैं। दंड-प्रक्रिया दुरूह है ही। एक साधनहीन को न्याय पाना कठिन हो जाता है। निस्सन्देह पुलिस, न्यायालय, कारागार सभी की अत्यधिक आवश्यकता है। किन्तु अपराधों की रोकथाम इतने भर से नहीं हो सकती। ये प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियाँ तो अनीति-अत्याचार की वृद्धि पर कुछ सीमा तक ही रोक लगा सकती है। मुख्य आवश्यकता उन दुष्प्रवृत्तियों की प्रेरणा के आधारों को ही समाप्त करने की हैं। जो इन अपराधों तथा न्यायव्यवस्था में होने वाली चालाकियों के लिये उत्तरदायी हैं। जब तक अधिसंख्य जनता का मन दुष्प्रवृत्तियों को पकड़े रहेगा, तब तक अपराधों की बाढ़ सामाजिक बंधनों-मर्यादाओं को इसी प्रकार तोड़ती रहेगी।

सर्वसाधारण अपराधियों और पुलिस को कोसकर अपने कर्त्तव्यमुक्त तथा सज्जन मान बैठते है। इस भयानक भ्रान्ति का करण भी चिंतन की विकृति ही है। अपराध, अन्याय और अनीति का मौनदर्शक बना रहकर वह उसमें सहभागी हो रहा है, यह बात उसे समझ में नहीं आती। इसका कारण भी चिन्तन की विकृति ही तो है। आये दिन सड़क से युवतियाँ-महिलाएं दो-चार गुँडे अपहरण कर ले जाते हैं और सैकड़ों लोग ‘तमाशा’ देखते रहते हैं। दिनदहाड़े मार-पीट, खून खराबा मचाया जाता है और हजारों की भीड़ सहमी-सिमटी सब ताकती रहती है। यह सब अन्तः क्षेत्र में घुसी कायरता के अतिरिक्त और क्या है?

कायरता और आक्रामकता जुड़वा बहिनें हैं। भीतर से कायर व्यक्ति ही कमजोरों के प्रति आक्रामक होता है। इसी प्रकार स्वार्थान्धता और निष्ठुरता में घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वार्थान्ध सदैव निष्ठुर होता है। असंस्कृत व्यक्ति करुणाहीन होता है तथा जिसे नीति में आन्तरिक निष्ठा नहीं है, वह अपराधी होगा ही।

वस्तुतः अपराधों का क्रम न्यायसंहिता की परिधि की पहुँच से बहुत से बहुत पहले प्रारम्भ होता है। जिन कार्या के लिये दंड-संहिता में कोई व्यवस्थाएँ नहीं हैं वे ही अपराधों के उद्गम-केन्द्र हैं। आलस्य-प्रमाद, असंयम, अशिष्टता, उद्धत आचरण, द्वेष, दुर्भाव, कुदृष्टि-कुभाव, कटु भाषण, अस्त-व्यस्तता, नशा-पानी, अस्वच्छता, अनुशासनहीनता, जैसी अवांछनियताएं सरकारी अंकुश से भले मुक्त हैं, पर वस्तुतः अपराधों की कारण-भूत उत्तेजनाएँ इन्हीं से पनपती-फैलती हैं। यही अवांछनियताएं बढ़कर विध्वंसक अपराधों-विभीषिकाओं का रूप ले लेती हैं। नैतिक और नागरिक मर्यादाओं का निरन्तर उल्लंघन तथा मानवीय संवेदनशीलता का निताँत अभाव ही अपराधों का वास्तविक आधार और प्रेरणा केन्द्र है क्योंकि ये ही आदमी को धीरे-धीरे खोखला, हीन और संकीर्ण बनाती हैं जिसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति अपराध करने और सहने के रूप में सामने आती है। जिन्हें स्तरहीनता, परपीड़न और मर्यादाहीनता में कोई संकोच नहीं होता, वे अनास्थावादी लोग ही अपराधी बनते, गुंडागर्दी अपनाते, आतंक उत्पन्न करते तथा चोरी-ठगी पर उतारू रहते हैं। यही अभ्यास उन्हें हत्या, बलात्कार जैसे नृशंस क्रूरकर्म में भी निर्लज्ज बनाये रहता है।

अतः अपराधों की बाढ़ से बचने के लिये अनैतिकता के आरम्भिक विकास पर दृष्टि डालनी चाहिए और उसे ही रोकने की व्यवस्था करनी चाहिए। भोग की निरंकुश भूख और मन की मनमानी उछल कूद को ही जिस समाज में स्वाभाविक मान लिया गया, वहाँ हिंसा, क्रूरता तथा अपराध अवश्यंभावी हैं।

अतः आवश्यकता आस्थाओं के परिष्कार की, अन्तःकरण के उत्कर्ष की है। अन्तःकरण को सुसंस्कारित बनाने, अध्यात्म की प्राण-प्रतिष्ठा का महत्व समझाने की है। कहने वाले प्रायः कहते है कि अध्यात्म से क्या होगा? उससे धन तो मिल नहीं जायेगा। उन्हें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि अध्यात्म से धन नहीं, मानसिक वर्चस आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष, वास्तविक आनन्द मिलेगा, जो धन से भी अधिक महत्वपूर्ण तो है ही। साथ ही जो धन के संरक्षण-सदुपयोग के लिये भी आवश्यक है। अराजकता-असामाजिकता की चपेट से धन भी बचा नहीं रह पाता। सुख-शान्ति तो भला उस स्थिति में कभी मिलती ही नहीं।

मनुष्य मूलतः अपराधी, अविश्वासी, असहयोगी और असंवेदनशील नहीं होता। इसके विपरीत, मनुष्य-स्वभाव में संवेदन, सहकारिता, सदाशयता भी कूटकूटकर भरी हुई है। ऐसी स्थिति में अपराधों की वृद्धि का कारण विकृत चिन्तन और दूषित दृष्टिकोण के अतिरिक्त और क्या है? स्पष्ट है कि मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की ओर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो आज की दुःस्थिति बदलने की नहीं।

भोगवादी दृष्टिकोण वाले समाज में साँस्कृतिक गतिविधियों का अर्थ भी नाच-गाने, कामोत्तेजना और सस्ते मनोरंजन तक सिमट कर रह गया है। किन्तु वास्तविक साँस्कृतिक गतिविधि वह है तो व्यक्ति को साँस्कृतिक-चेतना से सम्पन्न, सुसंस्कारित बनाए। उसमें सिद्धान्तों, विचारों की समझ पैदा करे और सही दृष्टि दे। जब तक व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने की ओर ध्यान नहीं दिया जायेगा, उसकी भौतिक वृत्तियों को ही प्रधानता देकर उभारा-उछाला जाता रहेगा, तब तक समाज में पशुप्रवृत्तियों का प्राधान्य भी बना ही रहेगा।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि अपराधियों को दंड देने और अपराधों की धड़-पकड़ पर जितना ध्यान दिया और खर्च किया जाये, साँस्कृतिक चेतना के प्रसार हेतु उससे अधिक ही हो। इसे ही आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण-प्रसार कहा जाता हैं जब तक उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श आचरण की महत्ता व्यक्ति के अन्तःकरण में अंकित नहीं होगी, अपराधों की वास्तविक रोकथाम और समाप्ति सम्भव नहीं होगी।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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March 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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