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Magazine - Year 1979 - March 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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समस्त विग्रह और क्लेशों का मूल अहंकार

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First 14 16 Last
संसार में जितने भी द्वन्द्व, संघर्ष और युद्ध हुए हैं उनके कारणों का यदि अध्ययन किया जाय तो वह अनेक नहीं होंगे। दो व्यक्तियों की आपसी लड़ाई और दो राष्ट्रों के युद्ध दिखाई पड़ने में अलग-अलग होंगे परन्तु उनका कारण एक ही होगा और वह कारण है एक दूसरे पर आधिपत्य जमाना। दूसरे शब्दों में अपने आपको प्रतिद्वंद्वी से बड़ा शक्तिशाली सिद्ध करना। पिछले विश्व युद्ध में लाखों व्यक्ति मारे गये और उनसे भी अधिक हताहत हुए। इस भीषण नर संहार का कारण एक व्यक्ति का यह मानना था कि उसकी जाति सर्वश्रेष्ठ है और वह उस सर्वश्रेष्ठ जाति का सर्वोच्च नेता है। इसलिए वह संसार का सबसे बड़ा शक्तिशाली, सर्वश्रेष्ठ और सबसे महान व्यक्ति है।

दो व्यक्तियों की लड़ाई में भी यही कारण होता है। एक किसी कारण से अपने आपको दूसरे से बड़ा, शक्ति-शाली और श्रेष्ठ समझता है तथा उससे यह मनवाना चाहता है; जबकि दूसरा व्यक्ति उसकी इस बात को स्वीकार कर अपने आपको छोटा नहीं मानना चाहता। लड़ाई के प्रत्यक्ष कारण चाहे जो भी रहें पर मूलतः संघर्ष दो व्यक्तियों के अहंकार का टकराव ही होता है। इस अहंकार ने मनुष्य जाति का जितना अहित किया है उतना दूसरे किसी से हित नहीं हुआ है। न भूख से, न बीमारी से, न बाढ़ से, न सूखे से और न रोग से तथा न दुर्बलता से, किसी भी कारण इतने लोग नहीं मरे हैं। जितने कि आपसी संघर्षों, जातीय युद्धों और दो राष्ट्रों के या अनेक देशों के संग्राम से मरे है। इन संघर्षों, द्वन्द्वों और युद्धों का एक मात्र कारण अपनी श्रेष्ठता का दावा तथा दूसरों द्वारा उस दावे को दी गयी चुनौती हैं

अहंकार के कारण न केवल मनुष्य जाति हिंसा तथा विनाश की शिकार हुई है बल्कि उसके कारण मनुष्य का नैतिक पतन भी हुआ है। स्वार्थ, संकीर्णता, अनुदारता, लोभ, परस्वत्वापहरण जैसे दुर्गुणों का एकमात्र जनक भी अहंकार ही है। लोभ, मोह और अनीति अनाचार को अहंकार की ही संतान कहा जा सकता है। चूँकि यह दुर्गुण मनुष्य के अन्तःकरण में निवास करता है अतः इसकी प्रतिध्वनि समाज क्षेत्र में होना भी स्वाभाविक ही है और इसी कारण साम्प्रदायिक तनावों से लेकर दो राष्ट्रों के युद्ध तक मनुष्य का यह दुर्गुण ही कारण बनता है।

प्रसिद्ध विचारक क्लाइव लीविस ने लिखा है कि- “अहंकार की तुष्टि किसी चीज को पाने से नहीं बल्कि उस चीज को किसी दूसरे की अपेक्षा ज्यादा पाने से होती है।” वस्तुतः अहंकार का अर्थ ही अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने का दावा है। इसी कारण लोग लोभ करते हैं ताकि वे दूसरों से संपन्न दीखें, इसी कारण दूसरों को दबाने की चेष्टा करते हैं ताकि अपनी प्रभुता सिद्ध कर सकें, इसी कारण दूसरों को मूर्ख बनाना चाहते है ताकि स्वयं बुद्धिमान सिद्ध हो सकें। इसका अर्थ यह नहीं है कि संपन्नता, शक्ति और बुद्धिमत्ता को अर्जित विकसित नहीं करना चाहिए।

संपन्नता व्यक्ति की श्रमशीलता और पुरुषार्थ का पुरस्कार है इसलिए वह सम्माननीय है। परन्तु अहंकार उसे अपना लक्ष्य बना लेता है। संपन्न होना इसलिए भी आवश्यक है कि उसके बल पर जीवन यापन का क्रम सुख सुविधा पूर्वक चलाया जा सकें। यद्यपि आध्यात्मिक जीवन दर्शन की प्रेरणा तो यह है कि मनुष्य अपनी आवश्यकतायें अनिवार्य स्तर तक ही सीमित रखें और उन्हें पूरा करने के बाद बचा समय दे श्रम मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने में लगाये। फिर भी सुख सुविधाओं के साधनों को एक सीमा तक छूट दी जा सकती है। लेकिन उनकी आकाँक्षा जब इस भावना से प्रेरित होकर बढ़ने लगती है कि हमें दूसरों की तुलना में सम्पन्न दिखाई देना है तो वह भावना लोभ के अंतर्गत आ जाती है।, जिसकी कोई सीमा नहीं है।

लोभ की सीमा इसलिए नहीं है कि दस व्यक्तियों की तुलना में सम्पन्न होने के बाद व्यक्ति को दिखाई देने लगता है कि दूसरे सौ व्यक्ति उससे भी ज्यादा संपन्न हैं। उसका अहंकार कसक उठता है और वह उन सौ व्यक्तियों से भी आगे निकल जाना चाहता है ‘इसके लिए वह जल्दी-जल्दी धन संपदा बटोरने की चेष्टा करने लगता है और इसमें उचित अनुचित का विवेक भूल जाता है। क्योंकि उचित साधनों से अनुचित साध्य की प्राप्ति तो की नहीं जा सकती। पूजा की माला से किसी को फाँसी तो लगायी नहीं जा सकती और माना कि किसी प्रकार लगा भी दी गयी तो फिर वह पूजा की माला कहाँ रही, वह तो फाँसी का फन्दा बन गयी। कोई व्यक्ति यदि चाहे कि ईमानदारी से दुनिया की सब धन संपदा अपने कब्जे में कर ले तो यह सम्भव कैसे होगा। इसके लिए तो अनैतिक उपायों का ही सहारा लेना पड़ेगा। वे उपाय चोरी डकैती भी हो सकते हैं और तस्करी मिलावट खोरों भी। इन व्यवसायों में भी किन्हीं सिद्धान्तों का पालन किया गया तो वे सिद्धान्त ईमानदारी की परिभाषा में कहाँ आये?

यद्यपि दुनिया की समस्त धन संपदा का मालिक स्वयं ही बन जाना असम्भव सा ही है परन्तु अपने को संसार का सम्पन्नतम व्यक्ति होने का अहंकार सिद्ध करने के लिए मन में आकर्षण इसी लक्ष्य की ओर रहता है। क्योंकि स्वयं को दूसरे सभी से संपन्न, श्रेष्ठ और शक्तिशाली सिद्ध करना है। यही बात शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली, प्रभुता संपन्न और अन्य सभी की तुलना में बुद्धिमान, सुन्दर सिद्ध करने के सम्बन्ध में लागू होती है।

अहंकार सदैव दूसरों को मापदण्ड बना कर चलता है। दूसरों से तुलना कर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की वृत्ति का नाम ही अहंकार है। भले ही फिर कोई सिद्ध कर पाये, न कर पाये या सिद्ध करने की चेष्टा में लगा रहे। अपनी जिन मौलिक विशेषताओं पर गर्व किया जा सकता है वह अहंकार से सर्वथा भिन्न है। क्योंकि अपने आप पर गर्व करना तथा उन विशेषताओं की दूसरों के साथ तुलना न करना व्यक्तियों में संतोष, शीतलता और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव उत्पन्न करता है। जबकि लोग अपनी उपलब्धियों को दूसरों से बढ़-चढ़ कर बताते हैं तो उनमें अहंकार की भावना ही काम करती है। नैतिक और मानवीय मूल्यों से ऐसे व्यक्ति कभी भी गिर सकते है; क्योंकि उनमें ईर्ष्या, द्वेष और दूसरों से प्रतिस्पर्धा की भावना रहती है।

कहा गया है कि अहंकार ही प्रत्येक देश और घर में दुखों का मूल कारण है। देश व समाज में तो नागरिकों के भीतर काम करने वाला अहंकार का भाव किस प्रकार अनर्थ उत्पन्न करता है यह बताया ही जा चुका है। परिवार में भी अहंकार के कारण ही क्लेश, कलह और विग्रह का वातावरण बनता है। पति अपने को पत्नी से श्रेष्ठ समझता है इसलिए वह तरह-तरह से उस पर अपना प्रभुत्व जमाता है। पत्नी का स्वभाव यदि समझौता वादी हुआ तो वह पति के अहंकार को किसी प्रकार निबाह ले जायेगी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह प्रति के अहंकारपूर्ण दावे को पचा लेगी। उसकी प्रतिक्रिया का विस्फोट कभी भी हो सकता है और पत्नी भी यदि अपने ‘अहं’ के प्रति उतनी ही सजग आग्रहशील रही तो नित्य का क्लेश परिवार के वातावरण को नरक ही बना डालेगा।

दूसरे कई दुर्गुण ऐसे हो सकते है जो लोगों को समीप ला सकते हैं। जैसे कोई शराबी-शराबी के साथ मेल जोल बढ़ा लेता है, चोर-चोर के साथ दोस्ती कर सकता है, दो आवारा व्यक्ति एक दूसरे के मित्र हो सकते है। प्रायः देखने में भी आता है कि दो समान स्वभाव के, दुर्गुणी व्यक्तियों में सभी सद्गुण हों किन्तु उनमें अहंकार का एक ही दुर्गुण हो तो वे कभी एक दूसरे के समीप नहीं आयेंगे। अधिकाँश सद्गुणी व्यक्तियों में, जिनमें कोई दुर्गुण होता है तो उनमें पहला नम्बर अहंकार का ही होता है। इसीलिए दृष्ट दुर्जनों की अपेक्षा सज्जन प्रकृति के व्यक्ति ज्यादा असंगठित होते है।

पुराणों में उल्लेख आता है कि देवता असुरों से जब-जब भी पराजित हुए तो उसका कारण उनका असंगठित होना ही पड़ा क्योंकि प्रत्येक देवता को अपनी शक्ति का अहंकार रहा और इसलिए वे आपस में तालमेल न बिठा सके। कहने का अर्थ यह कि सारे सद्गुण होते हुए भी व्यक्ति में यदि अहंकार विद्यमान है तो वह उसके सद्गुणों की शक्ति को उसकी प्रकार आवृत कर लेगा जिस प्रकार कि आँख में पड़ा हुआ तिनका सारे संसार को ढ़क लेता है। यों अहंकार का अस्तित्व तिनके से ज्यादा लगता भी नहीं है परन्तु वह मनुष्य को शेष संसार से अलग कर देता हैं। वह मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना देता है।

यहाँ तक कि अहंकार के कारण ही मनुष्य अपनी मूल सत्ता। से अलग थलग कटा हुआ पड़ा है। वह सत्ता है ईश्वर की सत्ता। तत्वतः जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। जीवात्मा परमात्मा का ही एक अंश है परन्तु जिस प्रकार एक छोटा सा पात्र सागर के भीतर ही समुद्री जल के एक अंश को समुद्र से अलग कर देता है। उसी प्रकार मनुष्य का अपना अहंकार उसे ईश्वर से अलग और दूर कर देता है। इसीलिए सभी ऋषि महर्षियों और संत महात्माओं ने ‘अहं’ की कारा से मुक्त होने को ही सच्ची मुक्ति कहा है। यहाँ तक कि अच्छा होने या धार्मिक बनने के कारण दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव भी मनुष्य को ईश्वर से दूर रखता है। महाभारत में इस प्रकार के कई प्रसंग आते हैं जब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के अभिमान का मर्दन किया और उसे भगवत प्राप्ति में सबसे बड़ा अवरोध बताया। इसी प्रकार रामायण में भी नारद के अभिमान का प्रसंग आता है और वे अनुभव करते हैं कि इस कारण भगवान से कितने विमुख होते जा रहे है। तुलसीदास ने अहंकार नष्ट हो जाने को ही सबसे बड़ी भगवत कृपा कहते हुए रामचरित मानस में बताया है कि यही सब दुखों की जड़ है-

स्मृति मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥ तेहिं ते करिहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति सूरी॥

ईसा मसीह ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा है- अगर तुम समझते हो कि तुम ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने की योग्यता रखते हो और इस कारण दूसरों से श्रेष्ठ हो तो यह भ्रम मन से निकाल दो कि तु ईश्वरीय राज्य में प्रवेश पा जाओगे। सुई के छेद में से ऊँट का निकल जाना सम्भव हो जायेगा, किन्तु तुम्हारा ईश्वरीय राज्य में प्रवेश सम्भव नहीं होगा।

अहंकार का आधार ही यह है कि हम अपने आपको महत्वपूर्ण मानते हैं और दूसरों से स्वयं को महत्वपूर्ण सिद्ध करने के लिए उनके अहंकार से टक्कर लेना चाहते हैं। महत्वपूर्ण होना एक अलग बात है और स्वयं को महत्वपूर्ण मानना तथा उसे सिद्ध करना सर्वथा दूसरी बात है। महत्वपूर्ण सिद्ध करने का प्रयास ही इस बात का घोतक है कि हम अपना मूल्याँकन वास्तविकता से बहुत अधिक करते हैं। विचार किया जाना चाहिए कि संसार में सबसे महत्वपूर्ण यदि कोई है तो वह ईश्वर है और ईश्वर की ऐसी कोई चेष्टा दिखाई नहीं देती जो वह अपने आपको महत्वपूर्ण सिद्ध करने के लिए करता हो। संसार की सर्वोपरि महत्वपूर्ण सत्ता अपने आपको महत्वपूर्ण सिद्ध करने की और से उदासीन है तो क्या कारण है कि हम जैसे अरबों व्यक्तियों के होते हुए हम अपने आपको सबसे महत्वपूर्ण मानें और दूसरों से टक्कर लेते फिरें।

अपने अहंकार का पहचान लेने और उसे स्वीकार करने के साथ ही वस्तु स्थिति को समझ लेने मात्र से अहंकार, तिरोहित हो जाता है। केवल पहचानने और स्वीकार करने भर से ही बात नहीं बनेगी। प्रकाश है- और अंधकार नष्ट हो गया है यह जानने पर भी यदि आँखें बन्द रखी जाये तो स्थिति में कोई अंतर नहीं आता। आवश्यकता इस बात की हैं कि आँखें खोली जाये अहंकार को इसी तरह तात्विक दृष्टि से देखते ही उसका अभाव हो जायेगा और फिर चारों और सुख-शाँति सौहार्द्र और स्नेह के सत्य का आलोक उदय हो उठेगा।

First 14 16 Last


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Version 1
Type: SCAN
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March 1979
Type: TEXT
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