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Magazine - Year 1980 - Version 2

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Language: HINDI
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त्याग का अन्धानुकरण न किया जाय

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सन्त-महात्माओं, ऋषियों के जीवन-क्रम में सादगी का अनिवार्य रुप से समावेश होता है। अपरिग्रह सिद्धाँत में नहीं उनके व्यवहार में उतरा दिखायी देता है। कम से कम में गुजारा करते हुए अपनी क्षमताओं का उपयोग वे लोकमंगल के कार्यों में करते हैं। समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुरुप उनके वेशभूषा, रहन-सहन के क्रम में परिवर्तन तो होता रहता है किन्तु सादगी का क्रम एवं अपने लिए कम से कम साधनों के उपयोग का सिद्धाँत अनिवार्य रुप् से ड़ा रहता है। सामाजिक परिस्थितियों के अनुरुप वे जीवन-निर्वाह का क्रम अपनाते हैं। उसमें अस्वाभाविकता का थोड़ा भी समावेश नहीं रहता। उनके तप-त्याग एवं तितिक्षा में लोक-कल्याण की भावना ही जुड़ी होती है।

एक समय था जब भौतिक सभ्यता अविकसित अवस्था में थी। साधनों का अभाव था। ऐसी स्थिति में समाज का मार्ग-दर्शन करने वाले, उन्हें दिशा देने वाले महापुरुषों के ऊपर नैतिक दायित्व होता था कि वे साधनों का उपयोग अपने लिए कम से कम करें। यही कारण था कि वे वस्तुओं का उपयोग न्यूनतम करते थे। वस्त्रों पर होने वाले व्यय को बचाने के लिए वे मात्र कोपीन धारण करते हुए अपना गुजारा चलाते थे। उन्न की कमी दूसरों को न पड़ने पाये इसलिए स्वयं के उपयोग में बहुधा वे उसका त्याग करते थे। तब फल-फूल, दूध की प्रचुरता थी। इन पर ही वे निर्वाह चला लेते थे। इस त्याग का एकमात्र लक्ष्य यह था कि समाज की वस्तुओं का लाभ अधिक से अधिक मिल सके। बाल, जटा रखने एवं दाढ़ी बढ़ाने के पीछे भावना यह नीहित थी कि काट-छाँट, सज-धज में अनावश्यक समय, श्रम एवं साधनों का दुरुपयोग क्यों किया जाय? अभावग्रस्त समाज की आवश्यकताएं ही इतनी अधिक है कि उनकी पूर्ति करना पहले आवश्यक है। वस्त्रों का काम वे कड़ाके की ठण्ड में भी भभूत लपेट कर अपना बचाव ठण्ड से करते थे। इसके इस त्याग से जन-समुदाय को लाभ तो मिलता था। साथ ही तप-तितिक्षा का मार्ग अपनाने से उनकी अन्तः शक्ति का विकास भी होता था। आत्मिक प्रगति एवं सामाजिक उन्नति का दोहरा लाभ उनके सरल, सादा त्याग भरे जीवन-क्रम को अपनाने से मिलता था। इसमें अस्वाभाविकता का लेश मात्र भी समावेश न था। त्याग का दम्भ अथवा दिखावे की प्रवृत्ति नहीं इस मितव्यतता के पीछे लोक-मंगल की भावना ही प्रधान थी। जिसके कारण वे अभावग्रस्त स्थिति को स्वेच्छा से वरण कते थे।

अविकसित साधनों के युग के महापुरुषों ने उन वस्तुओं का सर्वथा परित्याग किया, जिनका समाज में अभाव था। भौतिकता के प्रभाव से बचे रहने का लाभ तो उनको मिलता ही था। अन्यों को भी इसका अनुसरण करने की प्रेरणा मिलती थी। सारे क्रिया-कलाप का एकमात्र लक्ष्य थ-आत्म-परिष्कार एवं लोक का कल्याण।

परिस्थितियाँ बदलते ही जीवनयापन के तरीके में भी अभीष्ट हेर-फ्रर आवश्यक हो जाता है। उनके अनुरुप ढलने एवं पुराने ढर्रे से हटने का रास्ता अपनाना पड़ता है। लोक-कल्याण की भावना के साथ सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखकर चलना होता है। अन्धानुकरण करने से ढोंग को बढ़ावा मिलता है। प्रायः देखा यह जाता है कि धर्म क्षेत्र में प्रविष्ट करने वाले साधक प्राचीन सन्त महात्माओं की वेश-भूषा एवं रहन-सहन का स्थूल अनुकरण मात्र करते हैं। वर्तमान परिस्थितियों पर ध्यान न देकर पुराने ढर्रे को अपनाना भर गौरवास्पद मानते हैं। यह उनके अविवेक का परिचालक है। किन परिस्थितियों में क्या जीवन-क्रम अपनाना चाहिए यह साधक की दूरदर्शी सूझ-बूझ पर निर्भर करता है। अस्वाभाविकता तो तब उत्पन्न होती है जब सहज क्रम न अपनाकर तप-त्याग के नाम पर पुराने ढर्रे को ही अपनाया जाता है। साधना के नाम पर यह विचारशीलता पर लगा दोष है।

सन्त, महात्मा नंग-धड़ंग रहते थे, कोपिन धारण करते थे। शरीर पर भस्म लपेटे रहते थे। उनके बाल एवं दाढ़ी बढ़ी होती थी-जैसे बाह्य अनुकरण आज भी अनेकों साधक करते दिखायी देते हैं। बात लोक-मंगल की भावना की होती तो समझ में भी आती। किन्तु जब दम्भ त्याग का भरा जाता है तो दुःख होता है। इन क्रिया कृत्यों के अपनाने में वस्तुओं की विरक्ति नहीं त्याग के दम्भ की आसक्ति ही प्रधानतया दिखायी पड़ती है।

कभी इस देश में दूध-दही, फल-फूल की अधिकता थी। किन्तु अन्य इतना नहीं होता था कि सबको र्प्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके। उस समय जन-कल्याण की भावना रखने वालों के लिए अन्न का कम से कम प्रयोग अथवा उसका परित्याग करन उचित था। दूध, फल पर गुजारा करने के पीछे समाज के प्रति उदात्त भावना जुड़ी थी। परिस्थितियों में भारी परिवर्तन आया है। अन्न का उत्पादन बढ़ा है। किन्तु जानवरों की कमी हो जाने के कारण दूध की मात्रा में कमी अयी है। बच्चों को तब उनकी आवश्यकता के अनुरुप दूध उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। बड़ों की पूर्ति कर सकना तो प्रायः असम्भव ही है। मूल्य में भी वृद्धि हुई है। वृक्षों के कटते जाने से फलों का उत्पादन अल्प हो गया है। सर्व साधारण की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे उनका उपयोग कर सकें। एक अन्य ही रह गया है जिससे किसी प्रकार उदर पोषण किया जा सके।

आज जब कि नवजात शिशुओं को ही दूध, फल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है तो दूध, फल पर जीवन-यापन करने का दम्भ न्याय संगत नहीं है। त्याग एक प्रवृत्ति है जो लोक-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होती है। त्याग को एक ढर्रे का कृत्य मान लेना भारी भूल है। वस्तुओं से विरक्ति होना अच्छी बात है। किन्तु इस विरक्ति का एक सुनिश्चित उद्देश्य होना चाहिए। उद्देश्य विहीन कृत्य से ढोंग पनपता एवं अन्ध-विश्वास को बढ़ावा मिलता है।

तप-साधना से अन्तःशक्तियाँ विकसित तभी होती है जब उसके साथ उदात्तत भावना का समावेश हो? भावनाओं एवं श्रेष्ठ लक्ष्य के अभाव में तो साधना-कृत्य मात्र एक कौतूहल बनकर रह जाते हैं। अमुक महापुरुष ने अमुक प्रक्रिया अपनायी। उनकी मनःस्थिति एवं उस समय की सामाजिक परिस्थितियाँ क्या थी? इस बात पर ध्यान न देकर उनके कृत्यों का स्थूल अनुकरण करने का ही प्रायः प्रयास किया जाता है। जब कि अनुकरण उन सनातन सिद्धाँतों का करना चाहिए जिनको अपना कर वे महानता की ओर बढ़ सके थे।

साधना से आत्म-परिष्कार तथा ईश्वरीय सानिनध्य में पहुँच सकना सम्भव होता है। किन्तु साधना एक निश्चित क्रिया-कृत्यों से जुड़ी न होकर श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए होती है। स्थूल परिवेश तो सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। दुराग्रह पुरानी प्रणाली को अपनाने का बना रहा तो यह साधना न होकर अविवेक का परिचायक होगा।

वर्तमान परिस्थितियों के अनुरुप सहज, सरल एवं सादगीपूर्ण जीवनयापन करना साधना का अंग है। लोक-कल्याण साधना के साथ अनिवार्य रुप से जुड़ा है। यह तभी बन पड़ता है जब समाज की स्थिति को देखते हुए सुलभ, सहज जीवन-क्रम अपनाया जाय। साधना का यही लक्ष्य है। आत्मिक प्रगति एवं सामाजिक उन्नति का यही आधार है।

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