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Magazine - Year 1980 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनुष्य और प्रेतों की मध्यवर्ती शांखला

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प्रेत तत्व का अन्वेषण करने वालों में से अधिकाँश का कहना है कि शरीर छोड़ने के बाद प्रेतात्माएं आमतौर से अपने अद्श्य लोक में रहती है। उनकी अपनी दुनिया है। लम्बे जीवन में निरंतर श्रम करने के कारण जीवात्मा का मौलिक शक्ति का एक बड़ा अंश चुक जाता है और वे उस थकान को मिटाने तथा नई स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए विश्राम करती है।

इसी अवधि में उन्हीं अपने कृत्यों की प्रतिक्रिया का भला-बुरा अनुभव होता रहता है। पंच भौतिक शरीर छूट जाने पर भी सम्वेदन क्षमता वाला सूक्ष्म शरीर बना रहता है। उसमें मस्तिष्कीय विशेषताएं विद्यमान रहती है। जिस प्रकार चेतन और अचेतन मन की विविध-विविध क्रिया-प्रक्रियाओं से जन-साधारण को जागृत अवस्था में भले-बुरे अनुभव होते तथा निद्रा में स्वप्न दीखते रहते हैं उसी प्रकार मृतक को अपने अनुभवों और अभ्यासों की प्रतिक्रिया का अनुभव उस विश्रान्ति काल में होती रहती है। इसी को र्स्वग-नरक कहते हैं।

स्तकर्म करने पर आत्म-संतोष और दुर्ष्कम करने पर आत्म-ग्लानि का अनुभव होता है उसी प्रकार जीवन पर छाई विचारणाओं और क्रियाआँ के फलस्वरुप चेतना पर जमे हुए संस्कार उस समय उभर कर आते हैं और जीव भेल-बुरे अनुभव करता है। ऐसे सपने नवजात शिशुओं को भी दीखते हैं वे अर्ध निद्रित स्थिति में कई बार हंसने-मुस्कराने और कई बार खिन्न होने, डरने और रोने जैसी मुखाकृति बनाते बदलते रहते हैं। यह उनकी संचित स्मृतियों की प्रतिक्रिया भर होती है। मृतक को प्रेत लोक में एक प्रकार के नवजात शिशुओं की स्थिति में रहना पड़ता है। इस अवधि में अचेतन को अपनी संचित अनुभूतियों के प्रकटीकरण का अवसर मिलता है। घटनाक्रम न होने पर भी मनुष्य की निजी भावनाएं तथा मान्यताएं अवसर पाकर सम्वेदना बनती और अपेन स्तर का रुप बनाकर प्रकट होती है। भ्रान्तियाँ, सनकें और मान्यताएं कई बार वास्तविकता से भिन्न प्रकार के चिन्तन मस्तिष्क को इस तरह आच्छादित कर लेते हैं कि निजी मान्यताएं ही सत्य जैसी दिखाई पड़ने लगती है। र्स्वग और नरक स्व निर्मित होते हैं। प्रेत लोक का वातावरण शान्त है, इतने पर भी हर प्रेतात्मा को उसकी निजी मानसिक स्थिति से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का अनुभव अपने-अपने ढंग से करना पड़ता है। अधर्मी नरक का और धर्मात्मा र्स्वग का अनुभव किस प्रकार करते हैं इसका विवरण दिव्य-दर्शियों ने कथा-पुराणों में विस्तारपूर्वक लिखा है।

विश्रान्ति और अनुभूतियों के मध्य गुजरने वाली परलोक की अवधि से कई बार प्रेतात्माएं मनुष्यों के साथ सर्म्पक साधतीं और कई प्रकार की घटनाएं प्रस्तुत करती देखी जाती है। यह व्यक्तिक्रम अस्वाभाविक है। इस दुनिया से चले जाने के बाद दूसरी दुनिया की स्थिति में ही रहना योग्य है। नये जन्म में प्राणी पुराने जन्म की स्थिति, घटनाएं एवं सम्बन्ध भूल जाता है और नये सर्म्पक के अनुरुप अपने को ढालने लगता है। ऐसा ही परलोकवासी आत्माएं भी करती है। वे पुराने सम्बन्धियों को भूल जाती है ओर जिस परिस्थितियों में उन्हं जीवन काटना पड़ा, उससे भी अन्यमनस्क रहती है। विश्राम ऐसी ही मनःस्थिति में बन सकता है। अन्यथा पुराने सम्बन्ध एवं स्मरण ही बेचैनी का कारण बने रह सकते हैं और थकान को दूर करने की अपेक्षा नये किस्म का शोकजन्य उद्वेग खड़ा कर सकते हैं।

जीवितों और मृतकों के प्रत्यक्ष सम्बन्ध की जो घटनाएं घटित होती रहती है उनका कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर डा. मैस्यर ने अपनी निजी खोजों तथा अनुभूतियों के आधार पर दिया है। उनका कथन इस प्रकार है - ‘मरणोपरानत मृतक की कोई अन्तिम उत्कृष्ट इच्छा रहती है तो उसका आत्मा सूक्ष्म शरीर के माध्यम से उसे तृप्त करेन का प्रयास करती है। इसके लिए उनके सूक्ष्म शरी की किसी ऐसे जीवित शरीरधारी के साथ सर्म्पक साधना होता है जो इस आकाँक्षा को पूर्ण कराने के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सके।

प्रेतात्मा को सूक्ष्म शरीर का गठन किस प्रकार हुआ है। इस संदर्भ मं उनका कथन है - ‘मानवी काया से एक प्रकार का विशिष्ट ततव निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। उसे ‘एक्टोप्लाज्म’ कहते हैं। यह न केवल शरीर से निकलता है वरन् समस्त ब्रह्माण्ड उससे परिपूर्ण है। यह पदार्थ नितान्त सूक्ष्म और सर्वथा अद्श्य हैं तो भी उसकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर उस अस्तित्व का प्रमाण परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

“यह कोई प्रकाश छाया नहीं है। वरन् एक जीवन शक्ति है। यह अपने प्रकटीकरण के लिए किसी सहयोगी को तलाश करती है और जिसमें अनुकूलता प्रतीत होती है उसे वाहन बनाकर अपनी इच्छित चेष्टाओं को चरितार्थ करती ह। आत्माएं हर किसी से सर्म्पक नहीं साध सकती न किसी को डराने या वशवर्ती बनाने में सफल हो सकती है। सर्म्पक माध्यक का ‘एक्टोप्लाज्य’ उसी स्तर का होना चाहिए। जैसा कि मृतत्मा का है। सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भर है उसे भौतिक जीवन में कुछ कृत्य करने के लिए किसी अनुकूल सहयोगी की सहायता चाहिए। जो इस प्रयोजन के लिए जिस प्रेत को उपयुक्त लगता है। उसी के साथ सर्म्पक साधते हैं और इच्छित स्तर की हलचलें खड़ी करते हैं।”

जीवितों और मृतकों की मध्यवर्ती कड़ी को खोजने वाले विज्ञानी विलियम क्रुक्स का कहना है कि प्रेत और पितर वर्ग की दो आत्माएं होती हैं। प्रेत वे जो उद्विग्न रहते और हानि पहुँचाते हैं। पितर वे जो सद्भाव सम्पन्न हैं और सेवा सहायता करने भर के लिए सर्म्पक साधते हैं। प्रेतों का सर्म्पक हानि कर भी है और डरावना भी। किन्तु साथ ही व इतना दुर्बल भी है कि यदि कोई अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से उन्हें अस्वीकृत कर दे तो फिर अपनी ओर से कुछ अधिक हलचल नहीं कर सकते। पितरों के सम्बन्ध में भी यही बात है जो स्वागत करता है और सहयोग देता है उसी की सहायता करने में वे रस लेते हैं।

अब वे दोनों ही प्रतिपादन झीने पड़ते जाते हैं जिनमें अत्युक्ति भरा आग्रह था। प्रेत चाहे जिस पर चाहे जब हमला कर सकते हैं और मनुष्यों को जो भी कष्ट उठाने पड़ते हैं उनमें प्रेत ही मुख्य कारण होते हैं यह मूढ़ मान्यता अब क्रमशः समाप्त हो चली है। और भूतों के भय से अधिकाँश लोगों ने मुक्ति पाली है। इसी प्रकार जो पदार्थवादी यह कहते थे कि चेतना और कुछ नहीं मात्र शरीगत रासायनिक पदार्थों का सम्मिश्रण भर है उसके लिए मरण के उपराँत आत्मा नाम की कोई पृथक वस्तु शेष नहीं रहती। इन दोनों ही पक्षों को और पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिया है। सब कुछ भूतों की करतूत है मानने वाले दुराग्रही शिथिल पड़ रहे हैं और आत्मा का अस्तित्व ही न मानने वाले भी नये प्रतिपादनों और आकाट्य प्रमाणों को देखते हुए अपना हठ छोड़ने और वस्तुस्थिति को नये सिरे से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक सरलाँज, सर विलियम वैरेट, प्रो. जानर तथा विलियम क्रुक्स आदि मनीषियों ने मरणो-परान्त आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है। सरलाज ने तो यहाँ तक कहा है कि “मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है क्योंकि मैंने अपने कुछ ऐसे मित्रों से सशरीर बात की है जो आज से बहुत वर्ष पहले मर चुके।

प्रेतात्माओं के अस्तित्व के होने न होने का विवाद अब प्रायः शिथिल या समाप्त होता जा रहा है। आये दिन उपलब्ध होते रहने वाले प्रमाणों की विश्वसनीयता तो असंदिग्ध स्तर की होती है तो उसे भ्रम या मनगढ़न्त कहकर नहीं टाला जा सकता वरन् यह सोचना पड़ता है कि क्यों न वस्तुस्थिति पर पुनर्विचार किया जाय।

प्रेतों के अस्तित्व के सम्बन्ध में कुछ विश्वस्त घटनाक्रम इस प्रकार हैं - अमेरिकी चन्द्रयान अपोलो-11 जब अपनी विजय यात्रा पूरी कर चन्द्रतल से पत्थरों के नमूने लेकर वापस लौट रहा था और पृथ्वी से लगभग 2 लाख 96 हजार कि.मीटर दूर था। उस समय ह्यूस्टन के कन्ट्रोल रुम में लगे तीव्र सम्वेदनशील टेप रिकार्डरों पर एक अजीवो गरीब ध्वनियाँ टेप की गई। ये ध्वनियाँ हजारों लाखों रेड इण्डियनों की रण दुन्दुभी साथ की गई हुँकारें थीं। जिसमें भयानक प्रेतों की ऐसी अट्टहासें सम्मिलित थीं मानों वे अमेरिकी अभियान का माखौल उड़ा रही हों। अन्तरिक्ष यात्रियों नील आर्मस्ट्राँ, एरबिन एल्ड्रिन व माइकेल कालिंगस से इस विषय में पूछा गया तो उन्होंने यान में किसी प्रकार ध्वनि या यान्त्रिक गड़बड़ी होने से साफ इन्कार किया।

घटना 1890 ई. की है जब लार्ड डफरिन भारत के गवर्नर जनरल के पद पर कार्य कर चुकने के बाद ब्रिटिश सरकार के अन्रु उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे। एक बाद अवकाश बिताने के लिए आयरलैण्ड के अपने मित्र के घर वैक् फोर्ड में आमन्त्रण पर गये हुए थे। अपने नवीन और पुराने मित्रों के साथ रात देर तक शराब पीने के बाद जब लार्ड डफरिन अपने विस्तर पर गए तो अचानक उस दिन उन्हें नींद नहीं आ रही थी नींद की गोलियों का भी कोई प्रभाव उन पर न पड़ा। वह बेचैनी की हालत में ही उठकर कमरे में चहल कदमी करने लगे। एकबार ठंडी वायु का झोका उन्हें झकझोर कर चला गया जिससे वह भयभीत हुए। फिर देखते ही देखते उनके कमरे में आँधी का एकाएक झोंका आया सभी कागज-पत्रों एवं विस्तर को अस्त-व्यस्त कर चला गया।

लार्ड डफरिन की अचानक निगाह खिड़की से बाहर लान पर पड़़ी। वहाँ पर उन्हें एक भयानक आकृति बाला व्यक्ति दीखा जो भारी बोझा कन्धे पर उठाए हुए था। लान के मध्य वह उस बोझ को उतार कर लगातार खिड़की पर खड़े डफरिन को घूरता रहा। डफरिन भय वश काँप रहे थे, परंतु करते ही क्या? भयवश खिड़की बन्द कर औधें विस्तर पर लेट गये। थोड़ी देर बाद जब फिर वह उठे और खिड़की से लान की ओर झाँका तो वह वीभत्स स्वरुप वाला व्यक्ति तो नदारत था किन्तु उसके द्वारा लाया गया भारी भरकम ताबूत अब भी लन में रखा था। साहस बटोर कर लार्ड उस गठरी के पास पहुँचे और उसमें देखा कि ‘कफन’ रखा हुआ है। डफरिन ने अपने मित्रों से जब यह बात बता दी तो सबने उनका मखौल उड़ाया ओर जब पुनः लाल में ताबूत देखने गये तो उन्हें वहाँ पर उसका कुछ भी प्रमाण न मिला किन्तु डफरिन अपनी बात पर अडिग ही रहे।

पाँच वर्ष बाद जब लार्ड डफरित फ्राँस में इंग्लैण्ड सरकार के राजदूत थे। तो एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह पेरिस पहुँचे वहाँ पर उन्हं विख्यात ग्रैण्ड होटल में ठहराया गया। बैठक का आयोजन होटल की पाँचवीं मंजिल में था जिसमें लिफ्ट से जाना था। ‘लार्ड’ जब लिफ्ट में चढ़ने ही जा रहे थे तो लिफ्ट मैन की जगह वही ताबूत उठाकर लाने वाला वीभत्स चेहरे वाला डरावना व्यक्ति खड़ा था जो डफरिन को घूरकर देख रहा था भयवश डफरिन लिफ्ट पर पैर भी न रख सके वह अजनबी किन्तु पूर्व परिचित भयानक चेहरा डफरिन की प्रतीक्षा में ही था किन्तु वह लिफ्ट में सवार ही न हुए, शेष लिफ्ट में चढ़े लोगों ने जल्दी ही लिफ्ट खोलने का आग्रह किया। किन्तु लिफ्ट मैंन डफरिन के बिना लिफ्ट खोलना ही न चाहताि। उधर डफरिन भयातुर उसके चेहरे को देखा जा रहे थे जो हू-बहू व्यक्ति था जिसने 5 वर्ष पूर्व ताबूत में कफन रख कर डफरिन को सचेत किया था। मजबूर होकर निराश मन से लिफ्ट मैंन ने लिफ्ट खोली किन्तु पाचवीं मंजिल तक पहुँचते ही लिफ्ट दुर्घटनाग्रस्त हो गई जिसमें लिफ्ट मैंन सहित 5 व्यक्ति मारे गए तथा कई घायल हुए।

दुर्घटना की काफी जाँच पड़ताल की गई। लार्ड डफरिन ने लिफ्ट मैंन के सम्बन्ध में जब जानकारी माँगी तो होटल वाले उसका कोई जबाव न दे सके क्योंकि वास्तविक लिफ्ट मैंन तो उस दिन अवकाश पर था और इस अपरिचित व्यक्ति को मात्र एक दिन के लिए ही लिफ्ट मैंन के रुप में नियुक्त किया गया था। तब से अब तक डफरिन के इस रहस्यमय दृश्य का कोई निर्ष्कष न निकला जा सका।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक हेनरी प्राइस ने अपनी पुस्तक ‘फिफ्टी पियर्स आफ साइकिल रिसर्च’ में एक ऐसी घटना का वर्णन किया है। एक लड़की के पिता प्रथम विश्व युद्ध में मारे जा चुके थे। 1921 ई. में जब उसकी लड़की रोसेली करीब 6 वर्ष की थी उसकी मृत्यु हो गई। रोसेली 1925 ई. से अपनी माँ को स्वप्न में दिखाई देने लगी। बाद में प्रत्येक बुधवार को अपने परिवार के सभी सदस्यों को दिखाई पड़ने लगी। इस घटना की सत्यता प्रामाणित करने के लिए वैज्ञानिक व पत्रकारों का दल 15 दिसम्बर 1937 ई को उस परिवार से मिला। प्रयोग के तौर पर एक कमरे की खिड़की, दरबाजे व रोशनदान बन्द कर दिए गये।

प्रयोग प्रारम्भ हुआ रोसेली की छाया धीरे-धीरे अपनी माँ के पास आयी। उसकी माँ ने पूछा रोसेली उसने उत्तर दिया, “हाँ” पत्रकार व वैज्ञानिक भी इस प्रयोग को देख रहे थे। रोसेली धीरे-धीरे अपनी माँ के पास जा रही थी। पत्रकारोँ ने दूछा कि क्या वे रोसेली को र्स्पश कर सकते हैं। उसकी माँ ने स्वीकृति दे दी तो इन लोगों ने रोसेली के सिर, गले व हाथ में हाथ फ्ररा, हाथ की नाड़ी भी देखी जो चल रही थी। बाद में रोशनी की गई। प्रकाश में रोसेली के पाँव व चेहरा अंगुली सभी साफ-साफ देखे जा सकते थे। उसका शरीर शुभ्र संगमरमर का ऐसा किन्तु बड़ा ही कोमल था। वह हाँ और नहीं में ही उत्तर देती थी। 15 मिनट तक प्रयोग चलाँ

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। भावुकों, डरपोकों या अन्धविश्वासियों की बात छोड़कर भी यह सर्न्दभ में इतनी प्रमाण सामग्री बची रहती है जो उनके अस्तित्व पर अविश्वास की गुँजायश नहीं रहने देगी।

अब प्रसंग यह चलता है कि मनुष्यों और प्रेतों के बीच आदान-प्रदान का जो सिलसिला चलता रहता है उसके हानिकारक पक्ष से बचाव कैसे किया जा सकता है? और उनकी सहायता से जो लाभ मिल सकता है उसे किस प्रकार सम्भव बनाया जा सकता है। अनुसंधान से इस सर्न्दभ में भी कुछ सूत्र हाथ लगे हैं। इन्हें अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए जो प्रयास चल रहे हैं उनके सफल होने की आशा, स्थिति को देखते हुए दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।

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