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Magazine - Year 1980 - Version 2

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प्राण शक्ति का, चिकित्सा उपचार में प्रयोग

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मनुष्य मात्र रासायनिक पदार्थों का ही बना नहीं है, उसमें विद्युत प्रवाह की भी स्वसंचालित व्यवस्था है। इसी आधार पर अवयवों की बुमुखी कार्यपद्धति गतिशील रहती है।

मशीनों को चलाने के लिए भाप, तेल, बिजली आदि के माध्यम से ऊर्जा जुटानी पड़ती है। यदि उसका प्रबन्ध न हो सके तो कीमती मशीनें भी जाम हो जायं। इसी प्रकार काया की रासायनिक संरचना हर दृष्टि से उपयुक्त होते हुए भी अपनी निर्धारित गतिविधियों को चलाने के लिए ऊर्जा की उपेक्षा करती है। सृष्टा ने इसकी समुचित व्यवस्था भी जीवन प्रदान करने के साथ-साथ ही की है।

शरीर एक अच्छाखासा बिजली घर भी है। मस्तिष्क उसका केन्द्र है। मेरुदण्ड में होते हुए अगणित तार समस्त अवयवों में कला पूर्व ढंग से गुँथे हुए हैं। इन्हें ज्ञान तंतु कहते हैं। समझा जाता है कि वे शरीर और मस्तिष्क के बीच जानकारियों का आदान-प्रदान करते रहते हैं। यह आँशिक सत्य है। बात उससे भी आगे बढ़ी-चढ़ी है। शरीर बिजली से चलने वाला यंत्र है। अवयवों का अपने घटकों को सजीव एवं सक्षम बनाये रहने के लिए रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है ओर वह आहार के माध्यम से उपलब्ध होती है। इतने पर भी इस जटिल यंत्र को गतिशील रखने के लिए एक विशिष्ट मात्रा में विशिष्ट स्तर की ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है और वह र्प्याप्त मात्रा में प्रयुक्त एवं उत्पन्न भी होती रहती है। इस ऊर्जा का नाम है - “प्राण विद्युत”।

विद्युत दो ध्रुवों के पारस्परिक सहयोग से उत्पन्न होती है। इन्हें ऋण और धन कहते हैं। काया की विद्युत व्यवस्था में मूलाधार को ऋण और सहस्रार को धन विद्युत का केन्द्र माना गया है। मेरुदण्ड के माध्यम से उनके मध्यवर्ती प्रवाह गतिशील रहते हैं। इसके उपराँत ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर में उस प्राण ऊर्जा का वितरण होता रहता है। इसके आधार पर कार्या की चेतन और अचेतन गतिविधियाँ तो चलती ही है। साथ ही स्फूर्ति, प्रतिभा, मेधा, जीवट जैसी रहस्यमयी विभूतियाँ भी उसी आधार पर जगती और बढ़ती रहती हैं। पंच तत्वों से बने शरीर को चलाने में पंच प्राणों की सामर्थ्य ही काम करती है। इस ऊर्जा की उपयुक्त मात्रा होने से ही मनुष्य प्राणवान् बनता है। अन्यथा स्वल्प प्राण वाला मात्र प्राणी बन कर रह जाता है।

प्राण शक्ति की उपयोगिता जीवनचर्या की गतिशीलता रखने तथा विभिन्न प्रकार के पुरुषार्थ करने में तो है उसका अब नया उपयोग चिकित्सा प्रयोजन में भी होने लगा है। समर्थ व्यक्ति की प्राण शक्ति दुर्बल को उसी प्रकार दी जा सकती है जैसे कि सम्पन्न लोग अपने वैभव में निर्धनों की सहायता करते हैं।

प्राण विद्युत का सामान्य आदान-प्रदान तो अनायास ही चलता रहता है, मस्तिष्कीय तरंगे, दृष्टिपात, मुख मुद्रा, हस्त संचालन जैसे माध्यमों से एक की प्राण क्षमता का दूसरे के लिए सहज ही उपयोग होता है। शरीर को अति निकट लाने-सटा देने पर यह ऊजा सबल से निर्बल पक्ष में दौड़ती है। युवा नर-नारियों के बीच तो यह विद्युत अत्यंत उद्धत हो उठती है।

इस प्राण शक्ति को स्वस्थ समर्थ व्यक्ति दुर्बल पक्ष को अनुदान के रुप में देकर उनके अभाव एवं कष्टों में भारी सहायता कर सकते हैं। इसे एक दूसरे प्रकार का रक्तदान कहा जा सकता है। रक्तदानी कुछ बहुत घाटे में नहीं रहते। अनुदान की क्षति पूर्ति प्रकृति थोड़े ही समय में कर देती है। फलतः उदारचेता प्रत्यक्ष रुप में भी घाटा नहीं उठाते। परोक्ष रुप में तो उन्हें जो संतोष मिलता है उसका मूल्य किसी भी भौतिक लाभ की तुलना में अधिक होता है।

प्राचीन काल में प्राणदान, शक्तिगत आदि के अनेक अनुदानों का वर्णन मिलता है। गुरुजन अपने शिष्यों को उत्तराधिकार में बहुत कुछ देते रहे हैं। दुर्बलों और पीड़ितों की सहायता के लिए भी अपनी इस पूँजी में बहुत कुछ बाँटने की उदारता उन्होंने दिखाई है। यह गहरे अनुदान थे जिनमें अन्तःकरण में संचित पूँजी का भी आदान-प्रदान सम्भव होता है।

इन दिनों उस प्रक्रिया का उपयोग हल्के रुप में होने लगा है। मैस्मरेजम सिद्धाँतों के आधार पर की जाने वाली प्राण चिकित्सा को इसी स्तर का माना जा सकता है। उसमें मात्र शरीरगत विद्युत प्रवाह का आदान-प्रदान होता है। उसमें ग्रहणकर्त्ता को अधिक लाभ होता है, पर प्रदाता को कोई अधिक घाटना नहीं सहना पड़ता। क्योंकि दैनिक जीवन के विभिन्न कार्यों में इस विद्युत का निरंतर खर्च होता ही रहता है। चिकित्सा प्रयोजन में इतना ही करना पड़ता है कि प्राण विद्युत का कुछ समय तक बिखराव रोकना पड़ता है और एकाग्रता तथा संकल्प शक्ति के सहारे उसे दुर्बल पथ को देना पड़ता है। इसे शारीरिक स्तर का मोटा अनुदान कह सकते हैं। अतएव इस उपयोग के लिए किसी बड़े असमंजस की आवश्यकता नहीं पड़ती । उसे उपचार में सहज ही प्रयुक्त किया जा सकता है। जो कर रहे हैं उन प्रयोक्ताओं को कहीं कोई बड़ा घाटना नहीं उठाना पड़ा। जो राई रत्ती क्षति हुई भी वह सेवा साधना में उपलब्ध होने वाली प्रसन्नता के आधार पर सहज ही पूर्ण होती रही।

सभी जानते हैं कि प्राणियों के जीवन का आधार सूक्ष्म प्राण शक्ति है। मनुष्य में यह प्राण शक्ति विशेष होती है और विभिन्न साधनात्मक उपायों से सर्म्बधन करके बढ़ा भी सकता है। शरीर और मन दोनों प्राण पर अवलम्बित हैं। प्राण शक्ति के द्वारा रोगों की चिकित्सा के सम्बन्ध में योग व तंत्र ग्रन्थों में बहुत वर्णन मिलता है।

अमेरिका के कुछ व्यक्तियों के समक्ष फिलीपीनियों ने तो प्राण शक्ति के द्वारा शल्य-प्रयोग भी सफलतापूर्वक करके दिखाये हैं। डा. हिरोशी मोटोयामा ने अपनी “साइकिक सर्जरी इन द फिलीपिन्स” नामक पुस्तक में ऐसे अनेकों रोगियों का विवरण प्रस्तुत किया है जिनका उपचार इस विधि से किया गया और वे पूर्ण रुप से अच्छे हो गये। इन रोगियों में हृदय रोगी, मृगी, आँतों के फोड़े वाले रोगी भी थे। इन रोगों की सत्यता की जाँच वैज्ञानिक ढंग से कर ली गयी। खून, कफ, टट्टी, पेशाब की जाँच रिपोर्ट, एक्सरे व ई.ई.जी., ई.सी.जी. आदि रिपोर्टें पहले ही तैयार कर ली गयीं। प्राण चिकित्सा बाद में की गयी। वैज्ञानिक रिपोर्टों सहित होने के कारण इस जादुई-शल्य चिकित्सा की सत्यता की प्रामाणिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। डाँक्टर हिरोशी मोटोयामा ने यहाँ तक परीक्षण करके देखा कि प्राण शक्ति का प्रभाव दूसरे कमरे में बैठे रोगी व्यक्ति पर भी उसी प्रकार पड़ता है जैसे कोई अवरोध बीच में न हो।

यह चिकित्सा प्रणाली सामान्य प्रशिक्षण द्वारा नहीं सिखायी जा सकती। इसमें शक्ति का प्रचण्ड रुप प्रदर्शित होता है। नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का दृढ़ होना इसके लिए बहुत आवश्यक है। अच्छे योगी या गुरु, अधिकारी सुपात्र को ही इस विद्या को सिखाते हैं। इस शक्ति का अपव्यय होने पर यह शक्ति धीरे-धीरे नष्ट भी हो जाती है और चिकित्सक शक्ति हीन हो जाता है।

आस्ट्रेलिया में किर्लियन फोओ विधि के विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जाँन मूर्री और डा. ग्रेडेन रिक्सेन ने पत्तों और अंगुलियों की छाप पर अनुसंधान कार्य किया है। उनका कहना है कि किर्लियन-फोटो पद्धति में यदि शरीर के किसी भाग का फाटोग्राफ लिया जाय तो उसके चारों ओर किसी शक्ति के अस्तित्व या उर्त्सजन का क्षेत्र स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है, इसी क्षेत्र को ‘औरा’ कहा जाता है और शक्ति को प्राण शक्ति अथवा शारीरिक विद्युत।

उनका कहना है कि वह दिन तो अभी दूर है जब मस्तिष्क की कार्य-पद्धति को किर्लियन उपकरणों के द्वारा दिखाया जा सकेगा, परंतु पत्ती को मरते हुए देखा जा सकता है। उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर कहा है कि पत्ती के मरते समय उसके बाहर का किनारा पहले अन्दर की ओर मुड़ता है और प्राण शक्ति अन्दर की ओर प्रयाण करने लगती है।

किर्लियन फोटो प्रणाली के द्वारा मैक्सिको एवं रुस में किये गये प्रयोगों के अनुसार जीवित पत्ती का ऊपरी कोना तोड़ देने पर भी फोटोग्राफ में स्पष्ट आ जाता है जैसे कि वह तोड़ा ही न गया हो। सरजाँन मूर्री एवं डा. रिक्सेन का कहना है कि यद्यपि वे अभी वास्तविक औरा नहीं देख पाये हैं किन्तु उनके यन्त्रों में स्पार्क्स आते हैं जो प्राण शक्ति के प्रमाण में बदले हुए होते हैं। उन्होंने दुःखी, सुखी, शराबी आदि के ऊपर प्रयोग करके सिद्ध किया है कि पीड़ित, प्रफुल्लित, दवा पिये हुये, शराब पिये हुये, उद्विग्न व्यक्ति का औरा अवश्य प्रभावित होता है। इस प्रभाव का अध्ययन उन्होंने एक निश्चित परिमाण का कृत्रिम औरा उत्पन्न करके किया है।

अमेरिका के कुछ भौतिकीविद् तथा वैज्ञानिक विलियम टीलर एवं थेलमा मास ने यह भी सि; किया है कि दो विभिन्न शरीरों से निकलने वाला औरा (उर्त्सजन) अलग-अलग प्रकृति का होता है तथा किर्लियन फोओग्राफ्स से यह भी बताया जा सकता है कि एक व्यक्ति की मानसिक अवस्था या भावनाएं दूसरे व्यक्ति से मिलती है अथवा नहीं। डा. रिक्सेन एवं जाँन मूर्री ने भावातीत ध्यान करते हुए व्यक्तियों का उपरोक्त प्रणाली से फोटोग्राफ्स लेकर देखा कि उंगुलियों के चारों ओर हल्के नीले रंग के स्पष्ट गोले से हो जाते हैं। उन्होंने कहा है कि यदि स्वेच्छा से इस अवस्था को प्राप्त किया जा सके तो विश्व का वातावरण अकल्पनीय शान्तिमय हो जायेगा।

प्राण-शक्ति इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में प्रवाहित हो रही है। यही शक्ति प्राणियों में संचरित होकर जीवन प्रदान करती है। शरीर के अस्वस्थ एवं अविकसित कोषों को प्राण शक्ति ही नव-जीवन देती है। गायत्री उपासना-सविता ध्यान के द्वारा प्राण शक्ति का आकर्षण एवं सम्बर्द्धन होता है। विभिन्न यौगिक क्रियाओं आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध और ध्यान आदि के द्वारा प्राण का संचार सुचारु रुप से होने लगता है।

हाथों की उंगलियों से प्राण शक्ति अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक मात्रा मं निःसृत होती है। इस सर्न्दभ में न्यूयार्क विश्व-विद्यालय की नर्सों की प्रशिक्षण संस्था के डा. डोलारेस क्रीयर ने कुछ रोगियों को दो समूहों में विभक्त करके प्रयोग किया। एक समूह के रोगियों पर र्स्पश-चिकितसा प्रारम्भ की तथा दूसरे समूह के रोगियों की नित्स की भाँति परिचर्या की गयी तथा औषधियों दी जाती रहीं।

पहले समूह के रोगियों पर दिन में दो बाद नर्सें अपने हाथों के र्स्पश से विचारों द्वज्ञरा मानसिक शक्ति संचरित करती॥ एक ही दिन में डा. क्रीगर ने देखा कि पहले समूह के रोगियों के रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ गई जब कि औषधि प्रयोग करने वाले दूसरे समूह के रोगियों के खून में कोई परिवर्तन नहीं आया।

फ्रनिक्स के डा. विलियम मेगोरी ने डा. क्रीगर की खोज की सत्यता का समर्थन करते हुए कहा कि र्स्पश द्वारा प्राण शक्ति के संचार से रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाती है और यह कोई मनोवैज्ञानिक परिवर्तन नहीं है।

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