
समस्त सफलताओं का मूल-मन
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मनुष्य को आगे बढ़ने, ऊंचे उठने की प्रेरणा और शक्ति कहाँ से मिलती है? एक ही उत्तर है मन से। शास्कारों ने मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण बताया है -”मन एवं मनुष्याणं कारणं बंध मोक्षयो” मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है। इस प्रेरक शक्ति के द्वारा ही वह अपने कल्पना चित्रों को इतना सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उन्हं प्राप्त करने, साकार करने के लिए दौड़ पड़ता है। बच्चे जिस तरह रंग बिरंगी तितलियों के पीछे दौड़ते हैं, तितलियाँ जिधर जाती है उधर ही भागते हैं, उसी प्रकार मन में जैसी कल्पनाएं, इच्छाएं, बासनाएं, आकाँक्षएं और तृष्णाएं उठती है उसी ओर मनुष्य क्रियाशील हो जाता है।
इसलिए कहा गया है कि मन बड़ा चंचल है। वह किसी एक वस्तु और ध्येय पर केन्दित नहीं होता। कोई एक सुन्दर कल्पना आती है तो उसके लिए ताने-बाने बुनने लगता है। उसके बाद कोई और नई सूझ आती है तो वह पिछली बातों को भूल कर उनमें रम जाता है और उन्हें पूरा करने के लिए ताना-बाना बुनने लगता है।
ऐसी बात नहीं है कि मन यह सब अकारण या निरुद्देश्य करता हो। मन की इस चंचलता के पीछे सुख की आकाँक्षा ही निहित है। सुख की आकाँक्षा मन के अनतराल में प्रधान रुप् से काम करती है, इसलिए वह जिस बात मे, जिस दिशा में सुख प्राप्ति की कल्पना कर सकता है, जहाँ समझता है कि यहाँ सुख प्रापत हो सकता है वहाँ अपनी कल्पना के अनुसार उसे एक सुन्दर और मन-मोहक रुप प्रदान करता है तथा रंग-बिरंगी योजनाएं तैयार करता है। मस्तिष्क उसी की ओर लपकता है, शरीर उसी दिशा में काम करने लगता है। इसके साथ-साथ वह नई-नई कल्पनाएं भी करने लगता है। एक योजना पूरी नहीं हो पाती है कि उससे भी एक नई योजना और तैयार हो जाती है, पहली को छोड़कर नई योजना और तैयार हो जाती है, पहली को छोड़कर नई में प्रवृत्ति हुई, फिर वही क्रम आगे भी चला। उसे छोड़ कर और नया आयोजन किया। इस प्रकार अनेक अधूरी योजनाएं पीछे छूटती जाती है और नई बनती जाती है। अनियन्त्रित मन का यही क्रम, यही क्रिया-कलाप होता है। वह न जाने किन-किन तृश्णओं में भटकता और असफलताओं की, अधूरे कार्यक्रमों की अगणित ढ़ेरियाँ लगा कर जीवन को मरघट जैसा कर्कश बना देता है। अजफ्रन ने भगवान से मन की इस ‘चलता को सुख प्राप्ति में बाधक बताते हुए कहा है –
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येत मधुसूदन। एतस्याहं पश्यामि चंचल त्वारिस्थति स्थिराम्॥
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद दृढ़म। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ - (गीता 6/33,34)
अर्थात - हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समत्व भाव से कहा है, इसकी मैं मन के चंचल होने से बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता। क्योंकि है कृष्ण यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला ताि बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए उसका वश में करना मैं वायु की भाँति अति दुष्कर समझता हूँ।
भगवान कृष्ण ने भी मन के निग्रह को दुष्कर बताते हुए उसकी उच्छृंखलता, चंचलता को आत्म-कल्याण के पथिकों के लिए हानिकर बताया है - यततो ह्यापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः। इंद्रियाणाँ हि चरताँ यन्मनोऽनु विद्ययिते। तदस्य हरति प्रज्ञा वायुर्नावमिवाम्भासे। (गीता 2-60,67)
अर्थ- है कौतेय! अभ्यासशील बुद्धिमान पुरुष के भी मन को ये उद्दण्ड इन्द्रियाँ बलपूर्वक हर लेती है।
जैसे वायु जल में नाव को हर लेती है, वैसे ही इन्द्रियों के पीछे चलने वाला मन पुरुष का विवेक हरण कर लेता है।
भगवान बुद्ध ने मन की चंचलता के सम्बन्ध में कहा है-
यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने। एकं च जेय्य अतानं स वे संगाम जुत्तयो॥ (धमपद 103)
अर्थात - मनुष्य हजारों लोगों को युद्ध में हजारों बार जीत ले, पर सबसे बड़ा विजेता वही है जिसने एक अपने पर विजय प्राप्त कर ली हो।
मन की चंचलता स्वाभाविक है और उसे निग्रहीत कर पाया भी दुष्कर हैं, परंतु ऐसा नहीं है कि उस पर विजय प्राप्त की ही नहीं जा सके। मन की चंचलता और निग्रह के हानि-लाभ को यदि समझा जा सके तो निश्चित रुप से मनःसंयम को दिशा में अग्रसर हुआ जा सकता है। सूर्य की सामान्य धूप शरीर पर पड़ती है, कठिन गर्मी में भी उसे सहा जा सकता है। क्योंकि किरणें बिखरी हुई होती है इसलिए वे अपना सामान्य ताप ही दे पाती है। किन्तु नतोदर शीशे के लेन्स से एक इन्च स्थान पर पड़ने वाली धूप को यदि केन्द्रित कर लिया जाए तो उस ताप को शरीर का कोई भी अंग सहन नहीं कर सकेगा। कोई भी वस्त्र उसमें बिना जले न रहेगा। उससे कहीं भी अग्नि पैदा की जा सकती है। आजकल तो इसी पद्धति से सौर ऊर्जा के व्यापक उत्पादन की बात सोची जा रही है और उससे विविध कार्य सम्पन्न करने की योजनाएं बनाई जा रही है।
सूर्य किरणों की केन्द्रीभूत शक्ति के समान ही निग्रहीत मन की सामर्थ्य भी अपार है। अस्त-व्यस्त मनोदशा में जीवन का कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता। किन्तु यदि उसे एक लक्ष्य पर ही स्थिर कर दिया जाए तो उससे साधारण जीवन में भी कई गुनी शक्ति दिखाई देने लगती है और मनचाही कल्पना पूरी की जा सकती है, योजनाएं कार्यान्वित की जा सकती है और विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएं अर्जित की जा सकती है।
आत्म-कल्याण के क्षेत्र में तो मनःसंयम और भी आवश्यक है। शास्त्रों में मन को मनुष्य का शत्रु और मन को ही मनुष्य का मित्र बताया गया है तथा वश में किया हुआ मन अमृत के समान, कल्पवृक्ष के समान और अनियन्त्रित मन को हलाहल विष के समान बताया गया है। इका कारण यह है कि मन के ऊपर जब कोई नियन्त्रण या अनुशासन नहीं होता तो वह सबसे पहले ऐन्द्रिक भोगों में ही सुख खोजता है ओर उनके लिए दौड़ता है। जीभ से तरह-तरह के स्वाद चाटने की लपक उसे सताती है। रुप यौवन के क्षेत्र में काम-किलोल करने के लिए इन्द्र के दरवार की अप्सराओं को कल्पना जगत में ला कर वह खड़ा कर देता है। नृत्य, गीत, वाद्य, मनोरंजन, सैर-सपाटा, मनोहर दृश्य, सुवासित पदार्थ उसे लुभाते हैं और वह उनके निकट अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। सरकस, थियेटर, सिनेमा, खेल, क्लब आदि के मनोरंजन क्रीड़ास्थल उसे रुचिकर लगते हैं। शरीर को सजाने या आराम देने के लिए बिलासिता के उपकरण जुटाना उसे आवश्यक लगता है। इसका एक कारण यह भी है कि इन सब बातों में वह अपने अहंकार की पूर्ति समझता है।
अस्तु, मन को इस र्व्यथ निरुद्देश्य भाग-दौड़ को रोक कर उसे निग्रहीत करना चाहिए। सारी सिद्धियों का मूल मनःसंयम में है। परंतु वह केवल साधारण पुरुषार्थ से, योग से बढ़ कर है। कहा जा चुका है कि मन की शक्तियाँ विलक्षण हैं। संसार में जिस किसी ने भी जो कुछ उन्नति और उर्त्कष की स्थिति प्राप्त की है उसके मूल में मन की ही शक्ति विद्यमान है। मनुष्य का सुख-दुःख, बन्धन और मोक्ष भी मन के आधीन है। संसार में ऐसा कोई स्थल नहीं जहाँ मन ना जा सके, लोक और परलोक में भी मन क्षण भर में जा सकता है। प्रत्यक्ष प्रमाणों से प्राप्त होने वाला ज्ञान भी मन के द्वारा ही प्राप्त होता है। इसकी महत्ता का विवेचन करते हुए ऋषियों ने कहा है, ‘रथ चक्र की नाभि में जिस प्रकार पहियों के अरे प्रतिष्ठित हैं उसी प्रकार ऋक, यजुःऔर सामवेद का ज्ञान मन में प्रतिष्ठित है (शुक्ल यजुर्वेद 34/5) यदि मन शुद्ध, पवित्र और संकल्पवान बन जाए तो जीवन की दिशाधारा ही बदल जाए। इसीलिए कहा गया है कि जिसने मन को जीत लिया उसने सारा संसार जीत लिया।