
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास
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मनुष्य की स्थिति अन्य प्राणियों से सर्वथा भिन्न है। वह समाज में रहता है, उसकी एक सभ्यता है, सुसंस्कृत आचरण की उससे अपेक्षा की जाती है। साथ ही उसे इतना ज्ञान सम्पन्न भी होना चाहिए कि दुनिया जिस तेजी के साथ आगे बढ़ती जा रही है, उसके साथ कदम से कमद मिलाकर चल सके। यह योग्यता तभी विकसित होती है जब व्यक्तित्व और ज्ञान सम्पदा की दृश्टि से वह स्वयं कुछ उपार्जित करे, इस योग्य बनने के लिए उसे विरासत में कुछ संस्कार और जानकारी भी प्राप्त हो। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही प्राचीन काल से शिक्षा की व्यवस्था की जाती रही है। इस व्यवस्था का स्वरुप भले ही बदलता रहा हो, पर यह प्रचलन में हमेशा अनिवार्य रुप से रही है।
इसकी आवश्यकता और शाश्वत उपयोगिता के सम्बन्ध में एक मनीषी का कथन है कि “शिक्षा जीवन का शाश्वत मूल्य है। मानवीय चेतना जिन दो प्रकार के मूल्यों की परिधि में पल्लवित होती है उनमें कुछ शाश्वत होते हैं ओर कुछ परिवर्तनशील। शिक्षा को जीवन का शाश्वत मूल्य कहा जा सकता है क्योंकि कोई भी अज्ञानी अथवा अशिक्षित व्यक्ति अपने जीवन को विकासशील नहीं बना पाता। ज्ञान की अनिवार्यता हर युग में रही है इसीलिए शिक्षा को हर युग में मूल्य एवं महत्त्व प्राप्त होता रहा है।”
शिक्षा का अर्थ केवल वस्तुओं या विभिन्न विषयों का ज्ञान मात्र नहीं है। यदि अर्थ को यहीं तक सीमित मान लिया जाये तो वह अज्ञान से कुछ ही अधिक हो सकता है और कई बार तो उससे भी अधिक भयावह परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। ज्ञान की अथवा शिक्षा की सार्थकता वस्तुओं के ज्ञान के साथ-साथ अनुपयोगी और उपयोगी का विश्लेषण करने तथा उनमें से अनुपयोगी को त्यागने एवं उपादेय को ग्रहण करने की दृष्टि का विकास भी होना चाहिए। तभी शिक्षा अपने सम्पूर्ण अि को प्राप्त होती है। जैन दर्शन के आचाराँग सूत्रों में दो प्रकार की परिज्ञाओं का उल्लेख है एक ज्ञपरिज्ञा और दूसरी प्रव्याख्यान परिज्ञा। ज्ञपरिज्ञा से तार्त्पय वस्तुओं का बोध है ओर प्रव्याख्यान परिज्ञा में हेय का त्याग तथा उपादेश का ग्रहण किया जाता है। इस प्रव्याख्यान परिज्ञा की प्राप्ति ही ज्ञान की सार्थकता कही गई है।
प्रव्याख्यान परिज्ञा क्या है? इसे ज्ञान और आचरण का समन्वय भी कहा जा सकता है। ज्ञान और आचरण में सामंजस्य उत्पन्न होने पर ही कोई व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी, पंडित तथा शिक्षित कहा जा सकता है। ज्ञान और आचरण में सामंजस्य क्या है? व्यक्तित्व का समय विकास। दूसरे शब्दों में उसकी प्रतिक्रिया परिणिति को विवेक भी कह सकते हैं और विवेक के प्रयोग से ही ज्ञान ही सार्थकता है। अन्यथा ज्ञान की कोई किताबी जानकारी का क्या महत्त्व?
ज्ञान और आचरण में - बोध और विवेक में जो सामंजस्य प्रतुत कर सके उसे ही सही अर्थों में शिक्षा या विद्या कहा जा सकता है। जब यह सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता तो शिक्षा अधूरी ही कही जाएगी और व्यक्तित्व भी अविकसित या एकाँगी विकसित रह जाएगा। जब भी कभी याह जिस किसी के भी साथ शिक्षा का इस सत्य से सम्बन्ध टूट जाता है तो विद्यार्थी प्रवंचनाओं का शिकार होता है, वहा अपने जीवन लक्ष्य से विचलित हो जाता है। आज के सर्न्दभ में देखें तो शिक्षा पद्धति इसी तरह की प्रवंचनाओं से पूर्ण है। छात्रों के सामने परीक्षा पास करने और डिग्री हासिल करने के अलावा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं रहता। फलतः वह अपनी सभी प्रवृत्तियों का केन्द्र परीक्षा पास करना बना लेता है और जब यहीं एकमात्र लक्ष्य रह जाता है तो व्यक्तिव के अन्य पहलुओं पर स्वाभाविक ही विशेष ध्यान नहीं जाता। या यों भी कह सकते हं कि अन्य पक्ष गौण हो जाते हैं।
इस स्थिति में जीवन-विकास की आधारशिला, नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा की जड़ें हिल जाना स्वाभाविक है। सर्वग्राही अनैतिकता के मूल में यदि शिक्षण पद्धति का यह दोश देखा जाए तो कोई अनुचित न होगा और जब सारे समाज के लगभग सभी वर्ग नैतिक मूल्यों की अवहेलना कर अनैतिकता का वातावरण विनिर्मित कर रहे हों तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा पर दोहरी चोट पड़ती है। एक तो शिक्षा-पद्धति ही नैतिक आदर्शों के प्रति कोई आस्था नहीं जगाती, उन्हं नैतिक संस्कार नहीं देती, दूरे समाज का वातावरण भी वैसा कोई प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम न हो तो व्यक्तित्व की आधारशिला कहाँ से रखी जाएगी? विद्यार्थियों के मानस में जब अनैतिक मूल्य रसित होने लगते हैं तो वे परीक्षा में पास होने की बात हो या समाज के प्रति व्यवहार का विषय हो नैतिक मूल्यों की उपेक्षा ही करेंगे।
आये दिनों परीक्षा में नकल कर पास होने की साधारण घटनाओं से लेकर अनुचित साधन अपनाने के लिए आपराधिक स्तर की रीति-नीति अपनाने तक की विविध घटनाएं प्रकाश में आती रहती है। इन दिनों यह प्रवृत्ति कुछ विशेष रुप से बढ़ी है। नकल कर पास होने की प्रवृत्ति को साधारण-सा दोष या अपराध कर कर उसकी थोड़ी बहुत आलोचना करने के बाद चुप हो जाया जाता है। प्रश्न नकल करने या न करने का नहीं है। प्रश्न यह है कि यह साधारण-सा दोष किस प्रवृत्ति का सूचक है। इस प्रवृत्ति को अनैतिकता की चिनगारी ही कहा जाना चाहिए और चिनगारी चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो समय पाकर वह भीषण अग्निकाण्ड लाकर रहती है ओर यही हो रहा है यदि उसका उपचार नहीं किया जाए तो अनैतिकता की प्रवृत्ति आयेदिन छोत्रों द्वारा तोड़-फोड़ तथा हिंसक घटनाओं के रुप् में अपनी विभीषिका का परिचय देती रहती है।
इस स्थिति के लिए विद्यार्थी इतने दोषी नहीं हैं, जितनी कि शिक्षा-पद्धति। प्रचलित शिक्षण-पद्धति छात्रों के सामने कोई ध्येय, कोई आदर्श उपस्थित नहीं कर पाती या कहना चाहिए वह ध्येयहीनता के अंधकार में धकेलती है तो उस स्थिति में जो ज्ञान जीवन को सुसज्जित और सुरक्षित बनाता है वह ज्ञान कहाँ उपलब्ध हो पाता है? कहा जा चुका है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का समग्र विकास है। शिक्षा इसी उद्देश्य की ओर जरा भी उन्मुख हो तो ध्वंस की अपेक्षा सृजन की प्रेरणा ही जागेगी और ध्वंस का आयोजन करना भी पड़े तो वह सृजन की पृष्ठभूमि निर्मित करने के लिए ही अनिवार्य होगा। ज्ञान की, विवेक की प्रेरणा उन वस्तुओं, धारणाओं और संस्कारों को तोड़ने की है जो अपनी उपयोगिता खो चुके हैं और जिको नष्ट किया जाना आवश्यक, जिन्हें तोड़ कर ही नया सृजन किया जा सकता है। लेकिन जिन विद्यार्थियों का ज्ञान मात्र सूचनात्मक है, उससे आन्तरिक विकास कैसे हो सकता है? विवेक का जागरण उस स्थिति में हो ही नहीं सकता जब कि समग्र शिक्षा का उद्देश्य विवेक को जागृत करना ओर व्यक्तित्व को विकसित बनाना हो। इस संदर्भ मं एक संत विचारक का कथन है कि, “विद्यार्थी ज्ञानोपलब्धि के लिए, एकाग्र बनने के लिए, आत्मस्य बनने के लिए और दूसरों को आत्मस्य बनाने के लिए अध्ययन करता है। इस सर्न्दभ को यदि स्मृति में रखा जाये तो व्यग्रता, चपलता, हिंसा और तोड़-फोड़ की बात स्वयं समाप्त हो जाती है तथा इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि विद्या का अनुबंध ध्वंस के साथ नहीं निर्माण के साथ है।”
इस संदर्भ को स्मृति में रखने के लिए प्रचलित शिक्षा-पद्धति में आवश्यक सुधार करना ही एकमात्र उपाय है और वह सुधार इस सिद्धाँत को केन्द्रों में रखते हुए ही सम्भव है कि शिक्षा का उद्देश्य कोई सूचनाएं या जानकारियाँ देना मात्र नहीं है, वरन् व्यक्तित्व का समग्र विकास करना है।