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Magazine - Year 1980 - Version 2

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सर्व खिल्विद ब्रह्म’ अब अधिक प्रत्यक्ष

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प्राणियों की अपनी विशेषताऐं हैं, पर पेड़ पौधों को भी जड़ पदार्थ नहीं कहा जा सकता है। शरीर धारियों में पाई जाने वाली प्रवृतियाँ उनमें विद्यमान है। अंतर इतना ही रह जाता है कि वे मस्तिष्कीय क्षमता से रहित है। सोचने और अनुभव करने के लिए जिस विकसित मस्तिष्क तंत्र की आवश्यकता है वह उपलब्ध नहीं है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे चेतना में सर्वथा शून्य है। अविकसित रुप से यह विशेषता भी वनस्पतियों में विद्यमान है। वे अनुकूलता और प्रतिकूलता का अनुभव करते हैं और तद्नुसार प्रसन्न या अप्रसन्न भी होते हैं।

गम्भीर पर्यवेक्षण से वनस्पति-जगत में पाई जाने वाली चेतना का जैसे-जैसे आभास मिलेगा मनुष्य और समझ जायेगा कि विश्व के कण-कण में एक चेतना विद्यमान है और उसी के नेतृत्व में सृष्टि की विविध विधि हलचलें चल रही हैं। तत्व-दर्शन का जैसे-जैसे परिष्कार होता चला जायेगा मनुष्य को कण-कण में एक ही ब्रह्म चेतना के दर्शन होंगे और वेदान्त को वह दृष्टि प्राप्त होगी जिसमें इस समस्त विश्व में एक ही आत्मा को संव्याप्त बताया गया है। इसी को समय्क दृष्टि कहते हैं।

अन्वेषण से तथ्यों का अधिकाधिक प्रकटीकण हो रहा है। फलतः विज्ञान और अध्यात्म की दूरी भी घट रही है। सब कुछ जड़ ही है यह सोचने की अपेक्षा अब यह तथ्य सामने आ रहे हैं कि सब कुछ चेतन ही चेतन है। वनस्पतियों में जीवन का प्रतिपादन इस दिशा में प्रगति की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। वह दिन दूर नहीं जब पदाथ में भी चेतना का अस्तित्व देखा जा सकेगा। उस दिन ‘सर्व खिल्विदं ब्रह्म’ की मान्यता अपनाने में कहीं कोई आपत्ति न रह जायेगी। वनस्पति जगत में विकसित चेतना के प्रमाण इस दिशा में नया मार्ग दर्शन करते हैं।

दक्षिणी अफ्रीका के एक क्षेत्र में ‘एसीटिव प्लाण्ट’ नामक एक ऐसा पौधा पाया जाता है जो किसी मनुष्य की उपस्थिति से डरकर अपने को दबाने छिपाने लगता है और किसी के आने से प्रसन्नता एवं उल्लास व्यक्त करता है। अन्य प्राणियों के साथ भी उसका व्यवहार ऐसा ही होता है। वह पौधा प्रसन्नता की स्थिति में अपनी पत्तियाँ गहरे गुलाबी रंग की कर लेता है। और उसके फूल की पंखुड़ियाँ फ्रलकर चौड़ी हो जाती हैं और असन्तोष एवं रोष की स्थिति में उसका गुलाबी रंग फीका पड़ जाता है, पंखुड़ियाँ अपेक्षाकृत सिकुड़ जाती है।

‘डेसिगोडियम-ट्राइक्वेट्रम’ नामक एक पौधा निरन्तर इस प्रकार की हलचल करता है जैसे टेलीग्राफिक यंत्र में होती है। इसकी ऊंचाई 3 सं 8 फुट तक होती है। इसकी पत्तियाँ संयुक्ताकार की तीन की संख्या में होती है बीच की पत्ती बड़़ी और अगल-बगल की दो छोटी होती है। बीच की पत्ती तो कोई विशेष हलचल नहीं करती, परंतु छोटी पत्तियों में दिन का तापमान 72 डिग्री होने पर तार करते समय होने वाले संकेतों की तरह हलचल होने लगती है। उसक समय पौधे की सभी संयुक्त पत्तियों की हलचल से पौधा तार करने की मशील जैसी ध्वनि करने लगता है।

इसकी पत्तियों में एक विशेषता और भी पाई जाती है कि ये प्रायः वृत्ताकार घूमती हैं और साथ ही अपनी धुरी पर भी घूमती हैं। वायु की गति या अवरोध का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और सुबह से शाम तक उसी प्रकार घूमती रहती है।

भारत में एक विशेष प्रकार के पौधे का नाम ‘छुई-मुई’ या लाजबन्ती है। यह पौधा दूसरे प्राणियों से तो प्रभावित नहीं होता, परंतु मनुष्य के समीप पहुँचने पर उसकी उंगली का र्स्पश पाते ही अपनी पत्तियों को इस प्रकार सिकोड़ने-समेटने लगता है। जसे कोई नव-वधू अपने ससुराल वालों को देखकर सर्माने, लजाने लगती है। छुई-मुई के पौधे में इमली की पत्तियों की तरह बारीक-बारीक पत्तियाँ होती है।

सूरजमुखी का फूल हमेशा उधर ही झुका रहता है जिधर सूर्य होता है। चाहे रात्रि हो अथवा दिन, बादलों से आकाश आच्छादित हो अथवा स्वच्छ, यह पौधा सूर्य की ओर उन्मुख रहने के अपने व्रत का नियमपूर्वक पालन करता है।

भारत में पाया जाने वाला “रात की रानी” नामक पुष्पी पौधा अपनी मोहक गंध के लिए बहुत प्रसिद्ध है जिसके पुष्प् केवल राशि के समय ही अपनी सुगन्ध बिखेरते हैं। इसी प्रकार ‘सिरियम ग्रेण्टीफ्लोर’ नामक पौधे के फूल रात्रि को ही खिलते हैं। रात के लगभग नौ बजे से फूल खिलना शुरु होते हैं और आधी रात के समय पूरी तरह खिल जाते हैं-सुगन्धि चारों ओर फ्रली रहती है। रात ढलने के साथ ही फूल मुरझाने लगते हैं और प्रातः तब पौधा अपनी सामान्य स्थिति में पहुँच जाता है।

‘अफ्रीकी बायलेट’ नामक पौधा लाजवन्ती की तरह शर्मीला परन्तु कुछ भिन्नता लिए हुए होता है। इस पौधे की पत्तियाँ छुई-मुई की भाँति सिकुड़ती तो नहीं परन्तु पत्ती पर जहाँ भी एक पानी की बूँद पड़ जाती है वहाँ पर एक दाग पड़ जाता है जो पत्ती के सूखने तक बना रहता है।

कुछ ऐसे भी विचित्र पौंधे प्रकृति में पाये जाते हैं जिनके बारे में अभी तक अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है कि उन्हें वनस्पति माना जाय अथवा जन्तु। ‘डायटम’ का व्यवहार उसी तरह का होता है क्योंकि प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के अनुसार तो वह एक पौधे के समान है परंतु दूसरे अन्य गुण एक कोशीय जीवाणु के समान पाये जाते हैं।

‘कैटर पिलर’ तो और भी अधिक वैचित्र्य लिए होता है। प्रारम्भ में तो यह कीड़े की तरह इधर-उधर घूमता रहता है। उसमें न प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है और न ही कार्बनडाई आक्साइड ग्रहण करता है। उसके शरीर से एक छोटी-सी टहनी निकल पड़ती है, तभी उसके कीड़े वाले गुण समाप्त हो जाते हैं और वह टहनी प्रकाश संश्लेषण द्वारा बढ़ने लगती है। इस कीड़े में नर-मादा के संयोग का कोई चक्कर नहीं। शरीर से मूलाँकुर-प्राँकुर न निकलने तक तो ह कीड़ा रहता है और जब ये निकल आते हैं - प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रारम्भ हो जाती और कीड़ा वृक्ष में बदलने लता है। एक दिन वहीं कीड़ा बड़े वृक्ष में बदला दिखाई पड़ता है। इस रहस्य से वैज्ञानिक आर्श्चयचकित रह गये हैं।

सन् 1762 की घटना है। एक जीवन विज्ञानी की पुत्री क्रिश्चियानलिनी ने सायंकाल के समय उपवन में भ्रमण करते समय नोशदुशयम नामक फूल एवं उसके पत्तों से जुगुनू चमकने जैसा प्रकाश निकलते देखा। उसके पिता को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने कई वैज्ञानिकों को यह दृश्य दिखाया। इसके बाद अनेकों फूल लोगों ने देखे जो रात्रि को प्रकाश देते हैं। इन निशा-प्रकाशी फूलों में ओरेन्ज, लिली, अफ्रीकी गेंदा, स्काँच और एक प्रकार का सूर्यमुखी प्रमुख है। इसके अतिरिक्त ओरिएण्टल पाँपी, जोनल पैलरगोनियम, लाल बर्बीना और हेरी पाँपी फूलों से भी हल्का प्रकाश निकलता देखा गया है।

फफूँद कुल की अनेक कुकुर-मुत्तों की जातियाँ भी रात्रि में प्रकाश देती है। इनमें ‘आर्मीलेरीआ-मेलिया’ (हनी-मशरुम), पालीपारेस सल्फ्यूरिअस (सल्फर मगरुम) क्लायटोसाइब इल्युडेन्स, कौलीबिआ लौंगिप्स, जायलेरिया हाययोक्सिलोन, यैनस-स्टिप्टिकस आदि प्रमुख रुप से जाने जाते हैं।

‘सिस्टोस्टेया ओस्मन्डींशिआ’ नामक माँसेज से हरायन लिये हुए सुनहरा प्रकाश देखा जाता है। प्रसिद्ध वनस्पति विशेषज्ञ ‘सर-जोसेफ हुकर’ ने अपने ‘हिमालय जर्नल’ में उल्लेख किया है कि उत्तर भारत की यात्रा करते समय अनेक बार रात्रि में प्रकाश देने वाली लकड़ियों को देखा है। दक्षिणी अमेरिका में मिलने वाले यूफोर्बिया फ्रमिली के ‘र्स्पज’ नामक वृक्ष के तने को रात में काटने पर उससे निकलने वाला रस चमकता है। वहाँ ऐसी लताएं भी हैं जिनसे अपार रस निकलता रहता है। यह रस लताओं के नीचे चलने वाले प्राणियों पर लग जाने से उनके शरीर से अद्भुत प्रकाश की चमक निकलती है। कहा जाता है कि इन पौधों की वृद्धि मुख्य रुप से रात्रि में अधिक होती है। इनके प्रकाश से रात्रि में कीड़ों-मकोड़ों द्वारा परागण क्रिया भी सम्पन्न होती है। मशरुम (कुकुरमुत्तों) में प्रकाश की उत्पत्ति की क्रिया का सम्बन्ध ष्वसन से होता है, आक्सीजन हटा लेने पर यह प्रकाश लुप्त हो जाता है।

वैज्ञानिक इन पौधों में स्फुरदीप्ति (फास्फोरेसेस) का गुण बताते हैं जो दिन में प्रकाश का संग्रह कर लेते हैं और रात को उसी को उत्सर्जित करते हैं। यह भी कहा जाता है कि इन पौंधों में अपेक्षाकृत अधिक फास्फोरस होता है जो वायु-मण्डल की आक्सीजन के सर्म्पक से सुलगता है और प्रकाश देता है। कुछ पौंधे पानी में छोड़ने पर ही प्रकाश देते हैं।

योगीजन अन्तःकरण में प्रकाश ढूँढ़ते हैं। रात्रि के समय सभी को कृत्रिम प्रकाश आवश्यकता पड़ेगी। भूले-भटके विज्ञजनों से प्रकाश मार्ग-दर्शन की उपेक्षा करते हैं। मानवी चेतना ने नियन्ता से ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय का अनुदान माँगा है। पर यह छोटे वनस्पति प्राणी कितने सौभाग्यवान हैं कि उन्हें स्वयं प्रकाशित रहने और दूसरों को अपनी प्रकाशवान सत्ता का परिचय देने का अवसर सहज ही मिला हुआ है।

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