
सापेक्षवाद एवं पूर्वाग्रह रहित सन्यान्वेषण
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सत्य की शोध एक लक्ष्य है। जिसे प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्न किया जाना चाहिए। इस दिशा मं जितनी प्रगति होती चलती है। पिछली पीढ़ियों का महत्व उतना ही घटता जाता है यों पीछे-पीछे चलकर आने वालों के लिए वे पिछली पीढ़ियाँ भी अगली के समतुल्य ही होती हैं।
मनुष्य क्रमिक गति से अविज्ञात से ज्ञात की दिशा में चल रहा है। अब तक लम्बी मंजिलें पार कर ली गईं है। किन्तु जितना चलना शेष है उसे भी कम नहीं माना जाना चाहिए। हम सत्य के शोधक भर हैं। क्रमिक गतिशीलता ही अपनी सफलता है। पूर्ण सत्य की उपलब्धि चरम ही लक्ष्य है।
दृश्य, बुद्धि एवं अनुभूतियों के सहारे जो जाना जाता है, वह आँशिक सत्य है। हमारी जानकारियाँ ‘सापेक्ष’ है। किसकी तुलना से क्या अधिक उपयुक्त है। इतना भर ही जाना जा सकता है। किन मान्यताओं को स्वीकार किया जाय? इसके उत्तर में छोटी एवं बड़ी के उपस्थिति में से बड़ी भारी या कीमती को चुन लेना ही उपयुक्त है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जिसे कनिष्ठ माना गया वह वस्तुत कनिष्ठ ही है। अपने से घटिया के साथ जब तुलना की जायेगी तो वह कनिष्ठ भी वरिष्ठ समझी जायेगी। इतने पर भी जब उसे वरिष्ठों में ही की जायेगी। तब यह नहीं कहा जाएगा कि अमुक चुनाव मं उसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जा चुका है।
आइन्स्टाइन के सापेक्षवाद सिद्धान्त ने विज्ञान, दर्शन और व्यवहार के तीनों क्षेत्रों को चिन्तन की नई दिशा दी है और कहा है कि आग्रह एवं दुराग्रह पर न अड़ा जाय। प्रचलित सभी मान्यताएं आँशिक सत्य हैं और उनकी उपयोगिता एक स्थिति में बहुत अधिक हो सकती है किन्तु दूसरी स्थिति में उसे निरर्थक भी ठहराया जा सकता है। इसमें किसी को मान-अपमान का - हार-जीत का-अनुभव नहीं करना चाहिए। वरन् यह मानकर चलना चाहिए कि हम सभी पूर्ण सत्य की दिशा में क्रमिक खोज करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सभी अपूर्ण हैं। साथ ही अमुक स्थिति में जो अधिक उपयुक्त है उसे स्वीकारणा, अपनाना भी अनुपयुक्त नहीं है। इस निर्ष्कष पर पहुँचने वाले को जिज्ञासु बनना और सहिष्णु रहना पड़ता है। अपने लिए जो सत्य है वहीं दूसरों के लिए वैसा ही होना चाहिए। इसके लिए आग्रह या दुराग्रह न करना ही समीचीन है।
तुलनात्मक अध्ययन से निकलने वाले निर्ष्कष सापेक्ष कहे जाते हैं। इस कसौटी को स्वीकारने पर कोई व्यक्ति दुराग्रही नहीं हो सकता। असहिष्णु होने का भी उसके लिए कोई कारण नहीं रह जाता। अध्यात्म तत्व ज्ञान में चिन्तन को परिष्कृत करने वाली प्रथम आवश्यकता ‘जिज्ञासा’ को माना गया है। जिज्ञासा उस ज्ञान पियासा को कहते हैं जिससे पूर्ण मान्यताओं के लिए दृढ़ नहीं रहता। विज्ञान की प्रगति इसी आधार पर हुई है धर्म इसलिए पिछड़ा कि उसने पुरातन को पत्थर की लकीर माना और बदलते हुए संदर्भों का ध्यान र रखते हुए जो पुराना सो भला-जो अपना सो सही का दुराग्रह अपनाया। क्रमिक गतिशीलता प्राणियों से लेकर पदार्थों तक की प्रगति व्यवस्था का अनिवार्य अंग है फिर पुरातन मान्यताओं में कभी कोई परिवर्तन न करना पड़े यह नहीं हो सकता। सापेक्षवाद को अंगुलिय निर्देश सत्यान्वेषी-तथ्यान्वेषी होने के लिए जन चेतना को सहमत करना है। इसमें प्रगति क्रम को अपनाने और पूर्वाग्रहों पर न अड़ जाने का भी अनुरोध है।
दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में दृष्टा माने जाने वाले आइन्स्टाइन ने दूरी, समय और पदार्थ कारणों को भी सापेक्ष कहा है और बताया है कि इनके सम्बन्ध में अपनाई गई वर्तमान मान्यताएं भी तुलनात्मक प्रयोजन से ही सत्य हैं। पूर्ण सत्य नहीं।
उदाहरणार्थ एक साइकिल पर यात्रा करने वाले व्यक्ति को मार्ग की वस्तुएं लगभग उसी रुप में दिखायी देंगी जिस रुप में वे है। जबकि ट्रेन में यात्रा करने वाले को वे छोटी दिखायी देंगी। किसी आणविक गाड़ी में यात्रा करने पर मार्ग की कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होगी। अभिप्राय यह कि लम्बाई, चौड़ाई की धारणा गति की सापेक्ष है। पृथ्वी पर समय की गणना सूर्य मण्डल की गति पर आधारित है जबकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सापेक्ष यह गणना महत्त्वहीन है।
यदि हम किसी ऐसे नक्षत्र पर पहुँच जाँयें जो पृथ्वी से दो हजार प्रकाश वर्ष की दूरी पर हो तथा किसी शक्तिशाली टेलीस्कोप से पृथ्वी की ओर देखें तो पूर्वकाल में घटित हुए घटनाक्रमों का दृश्य उसी प्रकार दिखायी देगा जैसे आज ही घटित हो रहे हों। ऐसी स्थिति में राम-रावण युद्ध, महाभारत, भगवान बुद्ध का धर्म चक्र परिवर्तन अभियान स्थल सब देखा जा सकता है। इस क्रम में बढ़ते हुए क्रमशः वाद की घटनाएं और पिछले दिनों हुए विश्व युद्धों के दृश्य भी भलीभाँति देखे जा सकते हैं। इस प्रकार पृथ्वीवासियों के लिए जो वर्तमान काल है। अन्य ग्रहों के लिए वह भविष्य है, जो भूत था वह उनके लिए वर्तमान है। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों पर जो वर्तमान है, वही पृथ्वीवासियों के लिए भविष्य है, जो उनके लिए भूत था, वही यहाँ वर्तमान है। इस प्रकार स्पष्ट है, भूत, वर्तमान, भविष्य का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पृथ्वी से चला हुआ प्रकाश सभी दृश्यों को अपने साथ लेकर अरबों वर्षों बाद अन्य दूरवर्ती ग्रहों पर पहुँचता है। यही बात अन्य ग्रहों के सर्न्दभ में है। स्पष्ट है कि घटनाएं प्रकाश के गर्भ में निवास करती हैं। सम्भव है आइन्स्टीन ने इसी को चौथा आयाम की संज्ञा दी है। घटनाएं दृश्य कभी लुप्त नहीं होते वरन् कहीं न कहीं सूक्ष्म में विद्यमान रहते हैं। उन्हें दृश्यमान भी किया जा सकता है।
योगी गण विशिष्ट साधना प्रणालियों द्वारा भूतकाल की घटनाओं को साक्षात्कार करते हैं। इष्ट के रुप में राम, कृष्ण, हनुमान, बुद्ध, इसामसीह, चैतन्य, रामकृष्ण के दर्शन करने में यही तथ्य निहित है। वे भूतकाल में चेतन प्रक्रिया द्वारा पहुँचकर अदृश्य जगत में विद्यमान इन महापुरुषों के साक्षात्कार कर लेते हैं।
आत्मा अनन्त, सर्वव्यापी, सर्वत्र है। उसकी गति निरपेक्ष है। वर्तमान से भविष्य तथा भूत की ओर वह जा सकती है क्योंकि वह समय एवं दूरी के सीमा क्षेत्र से परे है। ‘जिमन जीन्स’ का कहना कि ‘यदि विश्व की कोई नियामक सत्ता होगी तो वह निश्चित ही समय एवं दूरी के नियमों से परे होगी। यह कथन भारतीय बनने की मान्यताओं का ही समर्थन करता है। जिसमें आत्मा को प्रकृति के नियमों से परे माना गया है।
गति की तीव्रता के साथ प्रकृति के बन्धन भी ढीलें पड़ जाते हैं। यदि गति निरपेक्ष हो जाये तो स्थूल बन्धन टूट जाते हैं। इसी को बन्धन मुक्ति कहा गया है। स्थूल वस्तुओं का बन्धन गति कम रहने के कारण बढ़ता जाता है। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति साइकिल से, हरिद्वार से लखनऊ जाता है, उसे समय अधिक लगेगा तथा खाने-पीने से लेकर अन्य वस्तुओं की आवश्यकता होगी। दूसरा व्यक्ति मोटर तथा तीसरा हवाई-जहाज से यात्रा करता है। तो इन स्थूल वस्तुओं की आवश्यकता उतनी ही कम होगी। प्रकाश की गति में जाने पर वस्तुओं की बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं होगी। यही चेतन स्थिति है। योगी इसी में अवस्थित होकर हिमालय जैसे दुर्गम ठण्डे स्थान पर रहते हुए भी जीवित बने रहते हैं। प्रकाश की गति में स्थूल अस्तित्व लुप्त हो जाने से स्थूल चीजों की आवश्यकता भी नहीं पड़ती।
चेतना को आवृत्त किये रहने में इन्हीं दो की समय और दूरी की प्रमुख भूमिका होती है। बन्धन में यही बाँधते हैं। आत्मा साधना का लक्ष्य इसी दूरी एवं समय को समाप्त करता है।
स्थूल जगत में भी कभी-कभी इसी प्रकार की घटनाएं देखने को मिलती हैं जिनमें स्थूल अस्तित्व ही लुप्त हो गया। अटलाँटिक महासागर में ‘वरमूडा’ त्रिकोण के लेखक चालर्स वर्लिटज ने इस स्थान की विचित्रताओं का उल्लेख दिया है कि इस स्थान पर पहुँचने वाले यान जहाज देखते-देखते आँखों से ओझल हो जाते हैं। जब तक सैकड़ों वायुयान एवं समुद्री जहाज लुप्त हो चुके हैं।
भलीभाँति छानबीन करने के बाद भी वैज्ञानिकों को अब तक कोई ठोस कारण नहीं मिल सका है। सम्भावना यह व्यक्त की गई है कि इस क्षेत्र में चलने वाले साइक्लोन की गति प्रकाश की गति के बराबर है जिसके कारण पहुँचने वाले जहाज, हवाई जहाज प्रकाश गति पकड़ लेते हैं, तथा अदृश्य हो जाते हैं। 5 दिसंबर 1945 अमेरिका के नेवी से चले 6 वायुयान चालकों सहित लुप्त हो गये। प्राप्त संकेतों के अनुसार चालक यह कहते हुए पाये गये कि हम विचित्र स्थान पर पहुँच गये हैं। यहाँ कुछ भी नहीं दिखायी पड़ रहा है। यहाँ हम लोगों के अपने स्वरुप भी स्पष्ट नहीं दृष्टिगोचर हो रहे हैं। उस क्षेत्र से बचे हुए कुछ लोगों का कहना है कि वहाँ दिशा समुद्र, आकाश, हम सभी का स्वरुप एक सा लग रहा था। कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता था।
अन्यान्य ग्रहों पर जीवन की खोज की जा रही है। सम्भव है कि उन पर सूक्ष्म शरीर धारी जीवों का अस्तित्व है। हमारी स्थूल मान्यताओं के कारण उनका पता नहीं लग पाता है। वे प्रकाश की गति से चलकर पृथ्वी का निरीक्षण करने भी आते हों किन्तु पृथ्वी के नियमों से अपने आपको अप्रभावित रखते हों। उड़नतश्तरियों की घटनाओं से विकसित सभ्यता का पता लगता है।
वेदान्त दर्शन में संसार को ‘मिथ्या’ - माया कहा है। यह इस अर्थ में सर्वथा सत्य है कि जो कुछ देखा या समझा जा रहा है वह निर्भ्रान्त नहीं है। जबकि उसकी प्रतीति सत्य जैसी होती है। विज्ञान की दृष्टि में दृष्टि-जगत परमाणुओं का अन्धड़ मात्र है। जहाँ जिस स्तर के जितने परमाणु एवं तरंग प्रवाह इकट्ठे हो जाते हैं वहाँ वैसे दृश्य दीखने और अनुभव होने लगते हैं। इसमें मनुष्य को अपनी संरचना एवं पदार्थों के साथ उनके सर्म्पक से उत्पन्न सम्वेदना ही प्रधान कारण होती है। तथ्य इन अनुभूतियों से भिन्न होता है।
सत्य को नारायण माना गया है। यह साधना का विषय है। उसकी खोज जारी रखी जाय। हठवादी न बना जाय। इसी मार्ग पर चलते हुए विग्रहों से बचना और तथ्य तथा सत्य तक पहुँच सकता सम्भव हो सकता है।