
ब्रह्माण्ड में ओत प्रोत ब्रह्म सत्ता
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जैसा कि आजकल के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि आत्मा अथवा चेतना की स्थूल शरीर के समान ही पदार्थों का योगिक मात्र है। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यदि उक्त बात सत्य है तो इस बात अर्थात पदार्थों के मिश्रण की प्रक्रिया का ज्ञान कराने वाले किसी दूसरे मन की भी आवश्यकता पड़ेगी।
इसके उत्तर में प्रसिद्ध वैज्ञानिक जान स्टुआर्ट मिन ने सत्य ही कहा है - “मानव मस्तिष्क का वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर भी जब कोई आत्मा या मन का किसी प्रकार का अस्तित्व नहीं समझ पाता और आत्मा या चेतना के सत्य को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होता अथवा आत्मा को मस्तिषक की एक प्रक्रिया मात्र मानता है तो वह यह भूल जाता है कि इस प्रकार का निर्णय ही आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना है।”
आज के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि गति की गति पैदा करती है। यदि हम इस प्रतिपादन को सत्य मानलें तो यह कैसे माना जा सकता है कि मस्तिषक की आणुविक संरचना चेतना या बुद्धि उत्पन्न करती है क्यों कि बुद्धि या चेतना षक्ति कोई गति नहीं अपितु गति जानने वाली शक्ति है। अस्तु वैज्ञानिकों का उक्त सिद्धाँत स्वयमेव गलत सिद्ध हो जाता है।
प्रो. जेम्स के अनुसार - “यह कहना और मानना निरर्थक बकवास होगा कि मस्तिष्क के कोषाणुओं की ब्यूहाणविक गति ही चेतना का मूल कारा है।
वैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि मानव की स्मृति का आधार षरीर या उसकी आणुविक संरचना है। बिलकुल निराधार मालूम होती है क्योंकि प्रति 7 वर्ष में शरीर की समस्त आणुविक संरचना आमूल-चूल परिवर्तित हो जाती है बचपन का शरीर युवावस्था में व युवावस्था के कोषाणु वृद्धावस्था में नहीं रह जाते ऐसी स्थिति में भी बचपन तक की स्मृतियाँ बनी रहती है।
प्रसिद्ध भौतिकविद डा. फ्यूमेन का कहना है कि “जो फासफोरस इस समय हमारे मस्तिषक में है दा सप्ताह बाद पूर्णतया बदल जाता है मस्तिष्क के समस्त अणु बदलकर नए हो जाते हैं। अस्तु स्मृति का आधार मस्तिष्क के कोषाणुओं की रचना व प्रक्रिया नहीं हो सकती।”
वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार किसी भी वस्तु का कारण उसी में सन्निहित रहता है जैसा कि बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएं सन्निहित रहती है। अस्तु यह कहा जा सकता है कि परिणाम कारण की ही अभिव्यक्ति मात्र है।
भौतिक शास्त्री श्री जे.ए.वी. बटलर ने अपनी पुस्तक “इन साइड दि लिविंग सेल” में लिखा है कि “इस विश्व ब्राह्माण्ड को पदार्थ एवं चेतना मिश्रित एक विशिष्ट प्रक्रिया के रुप में माना जा सकता है। यद्यपि इस प्रक्रिया को सिद्ध नहीं किया जा सकता फिर भी यह अकाट्य सत्य है कि अन्त की सम्भावनाएं प्रारंभ में ही समायी रहती है।”
जीवन क्या है? इस सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएं हैं, प्रथम यह कि जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक विकास का क्रमिक रुप है जिसमें वातावरण और वश परम्परा का प्रभाव होता है। दूसरा पक्ष अध्यात्मवादियों का है उनके अनुसार जीवन में आत्मा का अलग अस्तित्व होता है जो शिशु में उसके पिण्ड स्वरुप अवस्था में ही प्रविष्ट करती है।
मृत्यु के संबंध में प्रथम मत के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि शरीर बनाने वाले दोनों तत्व अर्थात अणु और चेतना शक्ति अपना-अपना कार्य बंद कर देते हैं तो मृत्यु हो जाती है। जबकि दूसरी मान्यता के समर्थक प्रायः सभी धर्म और आध्यात्मिक प्रतिपादन है जिनकी मान्यता है कि आत्मा या जीव की मृत्यु नहीं होती, अपितु मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है जिसे अपने भौतिक जीवन के कर्मों का फल भोग्ना पड़ता है। इस ब्रह्माण्ड की रचना के सम्बंध में पहिले वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि इसका निर्माण ठोस पदार्थों से हुआ है जिसकी रचना अणुओं से हुई है। बाद के वैज्ञानिक प्रतिपादनों से सिद्ध हुआ कि अणुओं की रचना परमाणुओं से होती है अर्थात परमाणुओं को सृष्टि सृजन का मूलाधार माना गया। लाडकेलविन ने यह सिद्ध कर दिखा है-”यदि एक बूँद पानी को इतना विस्त किया जाये कि वह इस पृथ्वी के आकार का हो जाय तो उसमें पाया जाने वाला सबसे छोटा परमाणु एक क्रिकेट के गेंद के बराबर होगा।”
रदरफोर्ड एवं वैज्ञानिक बोर के अनुसंधानों ने यह सिद्ध किया कि परमाणु असंख्य विद्युत अणुओं के संयोग से विनिर्मित एक लघु सौर प्रणाली के रुप में है। आगे चलकर जो अभी तक नवीन प्रयोग हुए हैं उनसे सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण विद्युत परमाणु पदार्थ तरंगों से बने हुए हैं, अस्तु अब तरंगों को ही सृश्टि की रचना का आधार माना जाता है। किन्तु विज्ञान की बढ़ती पकड़ इन तरंगों को भी असंदिग्ध नहीं मानती।
श्री फ्राँसिस मैसन ने आधुनिक वैज्ञानिकों की मान्यताओं पर कुठाराघात करते हुए अपनी पुस्तक “दि ग्रेट डिजाइन” में लिखा है - “यह पदार्थ क्या है? क्या यह विद्युतीय विकिरण है? तब यह विकिरण क्या है? विकिरण सृष्टि का आधार मूलतत्व है जिससे यह ब्रह्माण्ड निर्मित हुआ है। यह विशुद्ध ऊर्जा हे जो कि इतनी सघन है कि यह ऊर्जा और तरंग दोनों के रुप में कार्य कर सकती है।”
इस प्रकार विज्ञान और अध्यात्मवादी दोनों ही सिद्धाँत ब्रह्माण्ड के निर्माण के सम्बंध में एक ही निर्ष्कष पर पहुँचते हैं जहाँ पर पदार्थ एवं चेतना का मिलन होता है। अध्यात्मवादी सारे विश्व ब्राह्माण्ड को चेतना में ओत-प्रोत मानती है यही चेतना अध्यात्म में आत्मा और विज्ञान में ऊर्जा कही जाती है। इसे इस रुप में भी कहा जा सकता है कि सीमित दायरे में चेतना को पदार्थ और विस्तृत दायरे में यह चेतना ही जीवित पदार्थ या आत्मा है। यह चेतना ही अधिक स्वतंत्र रुप से विशुद्ध चेतना (स्प्रिट) है इस प्रकार यह चेतना के विकास की पद्धति वैज्ञानिकों के विकासवाद का ही स्वरुप हुआ। इस विकास के एक किनारे में पदार्थ तथा दूसरे में चेतना या आत्मा है। चेतना के विकास का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक चेतना (आत्मा) परमात्मा (परम तत्व) से एकाकार न हो जाय।
आत्म तत्व के इस चिरंतन सत्य की ओर हमारे प्राचीन मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व संकेत किया था - “रुपं रुप प्रतिरुपो बभूव।” अर्थात - प्रत्येक रुप में उकसी ही प्रतिछाया है।
इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध दार्शनिक मेटरनिक ने ठीक ही कहा है -”ब्रह्माण्ड के एक अणु का भी रहस्य मेरी समझ में जिस दिन ही आ जायेगा उस दिन यह विश्व बाटिका या तो नर्क तुल्य हो जायेगी अथवा मेरी चेतना ही जड़वत हो जायेगी।
(ऋग्वेद 6/47/18) में भी परम तत्व की व्यापकता की ओर संकेत किया गया है -
“रुपं रुपं प्रतिरुपों बभूव, तदस्य रुपं प्रति चक्षणाय इन्द्रो मायाभिः पुरु रुपईयते, तदस्य युक्ता हरयः शताशत॥”
अर्थात-उस परम ब्रह्म स्वरुप को समझने के लिए सभी रुप सुन्दर हैं, सभी रुपों में उसका ही प्रतिबिम्ब है बिन्दु रुपी इन्द्र नाना प्रकार के माया रुपी स्वरुपों में दिखाई पड़ रहा है उसकी हजारों हजार किरणें पूरे ब्रह्माण्ड में फ्रली हुई है। अस्तु उसके स्वरुप को समझने के लिए बिन्दु का ही प्रतिक्षण अवलोकन पर्याप्त है।