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Magazine - Year 1981 - Version 2

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अगले वर्ष के अति महत्त्वपूर्ण अंक

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अध्यात्म तत्वज्ञान और साधना विधान को उसके वास्तविक स्वरूप में पू. गुरुदेव ने समझाने और अपनाने का प्रयत्न किया है। फलतः उन्होंने उसका समुचित प्रतिफल भी प्राप्त किया है। ‘साधना से सिद्धि’ का सिद्धान्त अक्षरशः सही है, इस तथ्य की प्रामाणिकता पू. गुरुदेव की उपलब्धियों को जांचने-परखने पर किसी को भी सहज विश्वास हो सकता है।

उनकी ओजस्वी काया, मनस्वी मनीषा, तेजस्वी अन्तरात्मा को जितना निकट से जाँचा खा जाय उसमें उतनी ही गहराई और यथार्थता अनुभव की जा सकती है। आत्म कल्याण और लोक-मंगल के दोनों ही प्रयोजन उनने सही अर्थों में पूर्ण किये हैं। उनकी नाव में बैठकर कितनों ने उबरने, उठने और उछलने के अनुदान प्राप्त किए हैं। यह चर्चा न तो इन पंक्तियों में सम्भव है, न आवश्यक। स्मरण मात्र इतना दिलाया जा रहा है कि सही तथ्यों का- सही रूप से- सही प्रयोग किया जाय तो उसके परिणाम भी अन्य क्षेत्र की तरह अध्यात्म क्षेत्र में भी उत्साहवर्धक ही होते हैं। गुरुदेव की सिद्धियों को देखकर साधना विज्ञान और उसके प्रयोग उपचार पर सही अर्थों में विश्वास होता है। इन दिनों अध्यात्म विद्या के प्रति सन्देह और अविश्वास बढ़ता जा रहा है, निराशा का वातावरण बन रहा है, उसका कारण वह असफलता ही है जो आरम्भ तो बहुत उत्साहपूर्वक की गई किन्तु अंत में पूरी न हो सकी। इस असमंजस को दूर करने के लिए अखण्ड-ज्योति में लगातार अध्यात्म का सैद्धांतिक एवं प्रयोगात्मक “रहस्योद्घाटन” प्रतिपादन प्रकाशित होने जा रहे हैं। यह लेख माला दिसंबर 81 अंक से आरम्भ हो रही है और प्रायः एक साल तक चलेगी। इस प्रतिपादन को उनके अध्यात्म क्षेत्र के निजी अनुभवों का निचोड़ निष्कर्ष कहा जा सकता है।

गत मास ऐसा सोचा गया था कि इस रहस्योद्घाटन को सीमित लोगों तक ही रखा जाय पर पत्राचार विद्यालय के रूप में इसकी जानकारी कुछ गिने चूने लोगों को ही दी जाय। सूचना छपते सभी प्रज्ञा परिजन उसे जानने और पत्राचार विद्यालय का लाभ लेने के लिये आतुर हो उठे। अस्तु सीमा बन्धन वाला विचार छोड़ना पड़ा और निश्चय किया गया कि जो कहना-बताना है उसे सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया जाय। लाभ तो उससे मनस्वी और श्रद्धालु ही प्राप्त कर सकेंगे किन्तु जो उपयोगी है उसे जानना तो सभी को चाहिए। अस्तु अखण्ड-ज्योति में वह रहस्योद्घाटन छपना आरम्भ हो गया है और जब तक प्रसंग पूरा न हो जाय जब तक चलता ही रहेगा।

कहना न होगा कि यह प्रतिपादन अलभ्य होगा। श्रद्धा क्षेत्र की गूढ़ प्रतिष्ठापनाओं को तर्क, तथ्य, प्रमाण, विज्ञान और अनुभव के आधार पर प्रतिपादित करने का उपक्रम मात्र पू. गुरुदेव की विशेषता है। पुरातन और नवीन का समन्वय करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी इस विलक्षणता से संसार भर की मनीषा आश्चर्यचकित है। दिसम्बर 81 से लेकर सन् 82 तक के अंकों को अध्यात्म “अनुभूति शिक्षा साधना” का पत्राचार पाठ्यक्रम माना जा सकता है। सभी पाठकों से प्रत्येक अंक दो बार पढ़ने और आवश्यक तथ्यों को डायरी में नोट करते रहने के लिये कहा गया है। जब पाठ्य सामग्री की पूर्णाहुति होगी तो पाठकों से कुछ प्रश्न पूछे जायेंगे। उत्तरों के आधार पर उन्हें चित परामर्श दिये जायेंगे। साथ ही जिनकी जानकारी परिपक्व मानी जायेगी उन्हें अंतरंग साधकों में पंजीकृत कर लिया जायेगा।

परिजनों से आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि वे इस वर्ष ‘अखण्ड-ज्योति’ के नये सदस्य मात्र पत्रिका को परिपुष्ट करने-प्रज्ञा अभियान को अग्रगामी बनाने-बसन्त पर्व की श्रद्धांजलि चढ़ाने के लिये ही नहीं वरन् इस दृष्टि से भी बढ़ायें कि उस विलक्षण पाठ्य सामग्री का लाभ उनके सभी प्रियजनों को मिल सके। स्मरण रखने योग्य रखने योग्य तथ्य यह है कि ये अंक कुछ ही समय में मिलने दुर्लभ हो जायेंगे। माँगकर पढ़ लेना बात दूसरी है, पर इन्हें स्थायी निधि के रूप में सुरक्षित रख सकना उन्हीं के लिये सम्भव हो सकेगा जो स्थायी ग्राहकों के रूप में उन्हें उपलब्ध कर सकेंगे। पढ़कर रद्दी की जाने जैसी यह सामग्री नहीं है वरन् ऐसी है जिसे हीरे-मोतियों की तरह सम्भालकर रखा जाना चाहिए और अगली विचारशील पीढ़ी के लिए बहुमूल्य उत्तराधिकार की तरह छोड़कर चला जाना चाहिए।

प्रयत्न यह होना चाहिए कि सन् 82 की अखण्ड-ज्योति के सदस्य उन सभी को बना लिया जाय जो अपने निकटवर्ती स्वजन, सम्बन्धी, मित्र एवं प्रमुख क्षेत्र के विचारशील व्यक्ति हों। पत्रिका के चन्दे को राशि इतनी बड़ी या इतनी असह्य नहीं है जो इतनी बहुमूल्य सामग्री के बदले में जुटाई न जा सके। प्रश्न पैसे का नहीं, समझने समझाने का है। यथार्थ जानकारी के अभाव में बहुमूल्य वस्तुएँ भी उपेक्षा में पड़ी रहती हैं। सन् 82 की अखंड-ज्योति के संबंध में भी ऐसा ही हो सकता है। अस्तु परिचय कराने, उत्साह बढ़ाने एवं आग्रह करने में कमी नहीं रखी जानी चाहिए। जिनका पू. गुरुदेव की गरिमा और उपलब्धियों पर श्रद्धा विश्वास हो, उन सभी का कर्त्तव्य है कि सन् 82 की अखण्ड-ज्योति में छपने वाले उनके निष्कर्षों, विश्वासों एवं अनुभवों का सार अपने प्रभाव क्षेत्र के हर भावनाशील तक पहुँचाने के लिए कुछ कारगर प्रयत्न करें। इन्हीं दिनों एकाकी या टोली बनाकर निकल पड़ा जाय तो एक ही दिन में दस सदस्य अपने प्रभाव क्षेत्र में ही बनाये जा सकते हैं। यह एक-दो दिन का प्रयास परिश्रम काम में कुछ हर्ज करता हो तो भी उसे सहन करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिये कि प्रतिपादन की उपयोगिता एवं अलभ्यता को देखते हुए उसे सभी स्वजनों के गले मढ़ दिया जाय। भले ही वे महत्व न समझ पाने के कारण आनाकानी करने या उपेक्षा ही दिखाते क्यों न हों?

प्रत्येक परिजन से इस बार यही अपेक्षा की गई है कि वे ये पंक्तियाँ पढ़ने के उपरान्त अपने संपर्क क्षेत्र के विज्ञजनों की सूची बनायेंगे और उन्हें सन् 82 की पत्रिका का सदस्य बनाकर ही रहेंगे। चुनाव में खड़े होने पर बोट प्राप्ति के लिये जो उपाय सोचे जा सकते हैं वैसी ही रीति-नीति अपनाकर आग्रहपूर्वक ढेरों नये सदस्य बनाये जा सकते हैं।

इन्हीं दिनों एक विशेष विषम परिस्थिति में भी समाधान हमें ही हल करना है। इस एक वर्ष की अवधि में कागज का मूल्य प्रायः चालीस प्रतिशत बढ़ा है। साथ ही छपाई, स्याही आदि की मुद्रण प्रक्रिया में प्रायः उतनी ही बढ़ोत्तरी हुई है। इस विवशता में प्रायः सभी पत्रिकाओं ने लागत वृद्धि के अनुपात में अपनी मूल्य वृद्धि कर दी है। अखण्ड-ज्योति तो पहले ही कठिनाई से अपनी लागत पूरी कर पा रही थी। अब चालीस प्रतिशत वृद्धि का भार उसके लिये किसी भी प्रकार सहन नहीं हो सकता। पृष्ठ घटा देने या चन्दा बढ़ा देने के अतिरिक्त कोई तीसरा विकल्प नहीं। पृष्ठ घटाने में अगले वर्ष की अलभ्य सामग्री में कटौती करनी पड़ती और पत्रिका का स्तर तथा महत्व गिराना पड़ता। ऐसी दशा में थोड़ा-सा चन्दा बढ़ा देने की बात विवशतापूर्वक स्वीकार करनी पड़ रही है। परिजन जब महंगाई की हर चोट को किसी न किसी प्रकार सहन कर ही रहे हैं तो इसे भी करेंगे ही। अपने अमृतोपम आहार को वे छोड़ भी तो नहीं सकेंगे।

सन् 82 से अखण्ड-ज्योति का चन्दा बारह के स्थान पर पन्द्रह रुपया होगा। चालीस प्रतिशत महंगाई का भार पड़ने पर भी चंदे में वृद्धि मात्र पच्चीस प्रतिशत ही की गई है। इसमें भी यह निश्चय किया गया है कि पत्रिका के कलेवर में वृद्धि कर दी जाय। उससे कम में स्तर व गुणवत्ता बनाये रखने की बात बनेगी भी नहीं। पृष्ठ संख्या बढ़ाना इसलिये भी आवश्यक हो गया है कि अगले वर्ष जो सारगर्भित रहस्योद्घाटन होना है, उसके निमित्त पत्रिका का आकार भी बढ़ाना चाहिए।

पाठक अभी से नोट कर लें कि सन् 82 का चन्दा बारह के स्थान पर पन्द्रह रुपये वार्षिक होगा, सभी सदस्यों को यह राशि भेजनी तथा नये सदस्यों से वसूल करनी है।

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