
ईश्वर एक है- उसे एक ही रहने दें
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मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास काल से ही मनुष्य का एक ऐसी सर्व नियामक सत्ता के बारे में विश्वास रहा है जो इस विश्व ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। मनुष्य चाहे, संसार के किसी कोने में निवास करता रहा हो, वह सदैव यह अनुभव करता आया है कि कोई एक ऐसी दिव्य शक्ति है, जिसकी सामर्थ्य मानव एवं मानवी भौतिक शक्तियों से कहीं अधिक है। पृथ्वी के विभिन्न भूखण्डों पर निवास करने वाले मनुष्य समूहों ने उस शक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया। ईश्वर, अल्लाह, खुदा, गाॅड, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वनियंता, सर्वज्ञ आदि विविध नामों से उसी शक्ति का बोध होता है। विभिन्न धर्मों में उस परम-सत्ता की प्राप्ति को ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। परमसत्ता की प्राप्ति अर्थात् उस ईश्वर या दिव्य शक्ति की अनुभूति के विभिन्न मार्गों को ही विविध धर्मों के नाम से जाना जाता है। उसके बाह्य स्वरूप एवं क्रिया-कृत्यों में भिन्नता भले ही हो पर ईश्वर के एक दिव्य सत्ता के अस्तित्व को सबने स्वीकार किया है।
अर्जुन को समझाते हुए भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है- ‘‘जो लोग श्रद्धापूर्वक जाने-अनजाने में किसी भी देव-सत्ता की पूजा, उपासना करते हैं वे वस्तुतः उस एक परम तत्व की ही पूजा अर्चना करते हैं। मनुष्य भिन्न-भिन्न पथों का अवलंबन लेते हुए अन्ततः उसी परमात्म तत्व का साक्षात्कार करते हैं।”
ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में कहा गया है- “ईशावास्यामिदं सर्व यत्किन्व जगत्यां जगत।”
यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से सब ओर से आच्छादित है। पूरे विश्व में वही समाया हुआ है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से भी महान् है- अणोरणीय महतो महीयान्” -में इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है।
चीन के प्रसिद्ध सन्त “लाओप्स” ने “ताओ-ते-किंग” में लिखा है- “उस अनन्त को जान लेना ही वास्तविक ज्ञान है।”
जैन ग्रंथों में ईश्वर के बारे में कहा गया है- उसे नमस्कार है, जो अनेक में एक है तथा जो एक एवं अनेक में परे भी है।”
पारसी मत के अनुसार ईश्वर एक है, उसे अहूरमज्दा के नाम से सम्बोधित किया जाता है, जिसका अमर्त्य है- ‘ज्ञानेश्वर सर्वशक्तिमान परमात्मा।’ पारसी ग्रन्थ की गाथा में वर्णन है- “उस ईश्वर के अतिरिक्त मैं और किसी को नहीं जानता हूँ।”
मिश्र निवासियों की मान्यता ईश्वर के सम्बन्ध में इस प्रकार है- जीवन की सृष्टि करने वाला वह अनन्त एवं सर्वव्यापी है, उसे आंखों से देखा नहीं जा सकता, वही एक है निराकार है।
आस्ट्रेलिया के रहने वालों की ईश्वर सम्बन्धी धारणा में एक सार्वकालिक एवं दिव्य लोकवासी प्राणी की मान्यता को स्थान मिला है, जिसे वे परम पिता कहकर पूजा भक्ति करते हैं। असीरियन लोगों की भी ऐसी ही ईश्वर सम्बन्धी मान्यता है।
यहूदियों को भी हजरत मूसा ने एक ईश्वर की पूजा करने का उपदेश दिया था। इस्लाम धर्म में ईश्वर को अल्लाह या खुदा कहा जाता है, कयामत अर्थात् महाप्रलय में केवल वही रह जाता है। कुरान में एक जगह कहा गया है- “वही प्रारम्भ में था, वही अन्त में रहेगा। सबका प्रारम्भ उसी से है, और सबका अन्त भी उसी में होता है। वह प्रकट भी है, और गुप्त भी। वह सर्वज्ञाता-सब कुछ जानने वाला है। उसका अनन्त ज्ञान सब चीजों को घेरे हुए है। सब में वही समाया है।”
इसी से मिलता-जुलता वर्णन बाइबिल में मिलता है। इसमें ईश्वर की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है- ‘‘मैं ही सबका आदि हूँ और सबका अन्त मैं ही हूँ। मेरे अलावा अन्य कोई नहीं है। मैं ही वह प्रकाश हूँ जो हर एक को प्रकाशित करता हूँ। मेरे बिना कोई भी प्राणी हलचल नहीं कर सकता।”
चीन के प्रसिद्ध नाओ धर्म के प्रणेता लाओत्से ने कहा है- मनुष्य उसके स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकता-वह अवर्णनीय है। उसका कोई नाम नहीं है। जो उसे अपनी भाषा के शब्दों में जानते हैं, वे उसे नहीं जानते। वह शब्दों की पकड़ से बाहर, व्याख्या के परे है। वह एकमेव सत्य है, न तो उसका आरम्भ है, और न अन्त। सबकी उत्पत्ति का कारण वह है, उसकी उत्पत्ति किसी से नहीं होती। वह जन्म-मरण के बंधन से परे है।”
बुद्ध ने यद्यपि स्वयं ईश्वर के अस्तित्व और विवेचन को टाल दिया था फिर भी अनेक बौद्ध ग्रंथों से ऐसा लगता है कि वे किसी ऐसी दिव्य शक्ति में विश्वास रखते थे। बौद्ध, धर्म के ग्रन्थ “मसंग” एवं “माध्यमिका कारिका” में पहेली बुझौवल की तरह उल्लेख मिलता है। “वह न नहीं है और न है, न वह इस तरह है और न किसी तरह, वह न जन्मता है न वर्धित ही होता है, और न मृत्यु को प्राप्त होता है। वह कोई एक वस्तु नहीं है, न उसका अस्तित्व है और न ही उसका अस्तित्व नहीं है। न वह दोनों से पृथक है, वह विचित्र रहस्य है, वही सत्य है।”
एक सूफी संत ने कहा है- “फकत तफावन है नाम ही का--दरअसल सब एक ही है।’’
केवल नाम का ही अन्तर है, वास्तव में सब एक ही है। जिस प्रकार जो पानी की लहर में है वही बुलबुले में भी है।”
जरथुस्त्र की एक गाथा में कहा गया है- “मजदओ सखारे मैरस्तो” अर्थात् उस एक अल्लाह की ही इबादत करनी चाहिए।
शेखसादी ने ‘मामुकीमा’ में लिखा है- “जिसके रहने का कोई स्थान नहीं, फिर भी वह सब जगह विद्यमान है”-यह देखकर आश्चर्य होता है।
उपनिषद् में लिखा है- ‘‘ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है। उसी की ज्योति से सब प्रकाशित है।”
इंजील कहती है- “उस अदृश्य सत्ता के अन्दर ही सब मौजूद है। उसी से सब हरकत करते हैं।”
चीनी धर्मग्रन्थ “शीकिंग” का सूत्र है- वह ईश्वर सर्वत्र छाया हुआ है, जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप पर उसकी दृष्टि है। योग वशिष्ठ में स्पष्ट उल्लेख है-
“सर्वस्य एवं जनस्य अस्य विष्णुर अभ्यंतरे स्थित।
तम् परित्यज्य ये यान्ति बहिर विष्णुम् नराधमाः॥”
“ईश्वर सबके अन्तःकरण में विद्यमान है। उस अन्तःअवस्थित ईश्वर को छोड़कर जो उसे बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं, वे अधम हैं।”
रामायणकार ने व्यापक, अखण्ड, अनन्ता अखिल अमोघशक्ति भगवंता॥” सूत्र में उस सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान शक्ति की ओर ही संकेत किया है। उपनिषदों में जिसे- “एकम् एवं अद्वितीयम्” अर्थात् ईश्वर एक और अद्वितीय है। ऋषियों ने उसे ‘नेति-नेति’ कहकर गाया है।
विविध धर्म ग्रन्थों में जिस प्रकार एक सर्वव्यापक दिव्य शक्ति की अवधारणा है, उसी प्रकार आज के मूर्धन्य वैज्ञानिक भी किसी ब्रह्माण्डव्यापी विचारशील सत्ता को ही मानते हैं, जो इस विश्व ब्रह्माण्ड का नियमन करती है। वैज्ञानिकों की “कॉस्मिक एनर्जी” की परिकल्पना विभिन्न धर्मों की ईश्वर-मान्यता जैसी ही है। संसार की विविधता एवं विचित्रता में निहित उस एकता को समझा जा सके, जिसे वेदान्त “एकोहम् द्वितीयो नास्ति” के उद्घोष में व्यक्त करता है, तो धर्म, मत, सम्प्रदायों के समस्त विग्रहों का अन्त हो जाय।