
षट्-चक्रों की स्थिति एवं जागरण से उपलब्धि
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हवा में उठने वाले साइक्लोन में प्रचण्ड सामर्थ्य होती है। चपेट में आयी भारी वस्तुएँ भी तिनके के समान फेंक दी जाती हैं। तूफान को रोक सकने एवं अप्रभावित बने रहने से किसी प्रकार का गतिरोध सफल नहीं हो पाता। नदियों में पड़ने वाले भंवर नावों को उछाल देते हैं। कितनी बार तो भँवर में फँसने के उपरान्त उनका नामो-निशान नहीं मिलता। चक्र में, गोलाई में, एक निश्चित गति में घूमने पर प्रचण्ड ऊर्जा का उत्पादन होता है। जिसकी सीमा क्षेत्र में आकर सामान्य वस्तुओं की भी सामर्थ्य बढ़ जाती है। इस सिद्धान्त का उपयोग कर विज्ञान ने एक से बढ़कर एक शक्तिशाली यंत्रों का निर्माण किया है। ट्रान्सफारमर इसी सिद्धान्त पर काम करता है। डी.सी. करेंट का उत्पादन इसी प्रकार होता है। परमाणु की प्रचण्ड शक्ति का कारण है- केन्द्र के चारों ओर एक निश्चित गति में इलेक्ट्रान का घूमना।
मानव शरीर में भी ऐसे सात शक्ति स्त्रोत हैं जिन योग ग्रंथों में चक्र कहा गया है। शरीर के ये छोटे-मोटे पावर स्टेशन हैं। शक्ति उत्पादन केन्द्र हैं। शास्त्रों में सात लोकों का वर्णन आता है। भूः, भुवः, स्वः, महः तपः जनः और सत्यम्। सातों लोकों को एक से बढ़कर अद्भुत एवं सामर्थ्यवान चित्रित किया गया है। सप्त लोकों में देवताओं के निवास करने का उल्लेख भी मिलता है। इन अलंकृत वर्णनों में शरीरस्थ सात केन्द्रों का ही चित्रण किया गया है। सप्त लोक शरीर में स्थित सात चक्र ही हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधनाओं कुण्डलिनी जागरण जैसी प्रक्रियाओं में इन चक्रों का वेधन-छेदन किया जाता है। सामान्यतया ये सुषुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। उनकी असीम सामर्थ्य का लाभ मनुष्य को नहीं मिल पाता। अशक्त एवं अभावग्रस्त बने रहने का यही कारण है। घर में सम्पत्ति गढ़ी पड़ी है। उसकी जानकारी न हो तो मनुष्य उस सम्पदा के उपयोग से वंचित रहता है। मानवी शरीर में भी ऐसे ही सात चेतन स्त्रोत हैं जो प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न हैं।
शरीर को भू-लोक समझा जा सकता है। जो सात दीपों में बँटा हुआ है। पृथ्वी के संतुलन का केन्द्र बिन्दु उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव है। मानवी सत्ता में भी दो ध्रुव हैं। मस्तिष्क स्थित सहस्रार चक्र को उत्तरी तथा लिंग एवं गुदा के मध्य अवस्थित मूलाधार को दक्षिणी ध्रुव समझा जा सकता है। कुण्डलिनी साधना से शक्ति जागरण की प्रक्रिया जिस मार्ग से सम्पन्न होती है उसे सुषुम्ना कहते हैं। चक्र इसी पर अवस्थित होते हैं। आत्मोत्कर्ष की प्रक्रिया इसी मार्ग से सम्पन्न होती है। शास्त्रों में इसीलिए इसे देवयान मार्ग कहा गया है।
जीव मूलाधार में मूर्छित पड़ा रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह के बन्धनों में जकड़े जीव को अपनी गरिमा का बोध नहीं रहता। वासना एवं तृष्णा एवं अहंता के कारण चेतना का उन्नयन सम्भव नहीं हो पाता। कुण्डलिनी साधना के माध्यम से जीव की प्रसुप्ति को जागृति में बदला जाता है। उन्नयन, उत्कर्ष का अर्थ है- जीव को मूर्छा-वासना, तृष्णा एवं अहंता के अन्धकार से निकालकर स्वर्ग एवं मुक्ति के पथ पर बढ़ाना। देवयान मार्ग सुषुम्ना से उत्कर्ष का लक्ष्य पूरा किया जाता है। कुण्डलिनी जागरण का लक्ष्य है अधोगति में पड़ी जीवसत्ता को ऊर्ध्वगति प्रदान करना।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा गया है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। उन्हें परमात्मा ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता-पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले। कुपात्र-आरोग्य, सन्तान को पिता अपनी सम्पत्ति नहीं हस्तान्तरित करता। करे भी तो उसका दुरुपयोग ही होगा। सन्तान दुर्व्यसनों में ही उस सम्पदा का दुरुपयोग करेगी। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु छिपाकर रखी गई है। बहुमूल्य धातुओं की खदानें पृथ्वी पर यों ही बिखरी नहीं होतीं, जमीन की गहराई में दबी रहती हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी होती है। मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र की गहराई में उतरना होता है। बहुमूल्य वस्तुओं के साथ अवरोध इसलिए जुड़ा है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों का वैभव मिल सके। मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया जिनकी विशेष आवश्यकता भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए रहती है।
चक्र जागरण, चक्र वेधन से विकृतियों का निराकरण एवं सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन होता है। चक्रों की स्थिति एवं जागरण की उपलब्धि की विस्तृत व्याख्या योगग्रंथों में की गई है। शारदा तिलक ग्रन्थ के टीकाकार ने ‘आत्म-विवेक’ नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है जिसमें चक्रों की स्थिति एवं उनके जागरण से मिलने वाले अनुदानों का विस्तृत वर्णन है। इस पुस्तक में उल्लेख निम्न प्रकार हैं।
(1) गुदा और लिंग के बीच चार पंखुड़ियों वाला आधार चक्र मूलाधार चक्र है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास है। (2) स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है उसकी छः पंखुड़ियां हैं। इसके जागृत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गुणों का नाश होता है। (3) नाभि में दश दल वाला मणिपूर चक्र है। इसके प्रसुप्त करने पर ईर्ष्या, तृष्णा, भय, घृणा, लोभ, मोह आदि विकार मन में जमे रहते हैं। (4) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है। यह बारह पंखुड़ियों वाला है। इसकी प्रसुप्ति में लिप्सा, कपट, चिन्ता, अविवेक, दंभ, अहंकार जैसे मनोविकारों का जन्म होता है। अनाहत के जागरण पर इन विकृतियों का निराकरण हो जाता है। (5) विशुद्ध चक्र कण्ठ में अवस्थिति होता है। सरस्वती का निवास स्थान यही है। यह सोलह पंखुड़ियों वाला है। सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ यहाँ विद्यमान हैं। (6) भूमध्य में आज्ञाचक्र है। ॐ, हूँ, फर, विषद, स्वधा, स्वाहा, अमृत, सप्त स्वर आदि का यही निवास है। आज्ञाचक्र की जागृति से यह समस्त शक्तियाँ जग जाती हैं।
चक्रों के जागरण का प्रभाव मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव पर असामान्य रूप से पड़ता है। स्वाधिष्ठान की जागृति से साधक अपने अन्दर नवशक्ति संचार का अनुभव करता है। उत्साह एवं स्फूर्ति शरीर में सदा बनी रहती है। मणिपूर चक्र के जागरण से साहस एवं उत्साह बढ़ता है। मनुष्य संकल्पवान एवं पराक्रमी बनता है। मनोविकार घटने लगते तथा सत्प्रयोजनों के परमार्थ में रस और आनन्द आने लगता है। अनाहत चक्र की महिमा ईसाई घरों में भी विशेष रूप से गाई गयी है। ईसाई धर्म के योगी हृदय स्थान पर गुलाब के फूल की भावना करते और उसे प्रभु ईसा के प्रतीक ‘आइचिन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योग ग्रंथों में उसे भाव संस्थान कहा गया है। कलात्मक उमंगें यहीं से उठती हैं। संवेदनाओं का मर्मस्थल यही है। विवेकशीलता का प्रादुर्भाव अनाहत चक्र से होता है। विशुद्ध चक्र की विशेषता है- बहिरंग स्वच्छता एवं अन्तरंग की पवित्रता। अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ प्रसुप्त रूप में विद्यमान रहती हैं। इसे अतीन्द्रिय सामर्थ्य का आधार माना जा सकता है। विशुद्ध चक्र चित्त को प्रभावित करता है। नादयोग से दिव्य श्रवण जैसी परोक्षानुभूतियाँ इसी माध्यम से होती हैं। सहस्रार को ब्रह्माण्डीय चेतना का रिसिविंग सेन्टर माना जा सकता है। यह शक्ति संचय में एरियल की भूमिका सम्पन्न करता है। मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार को ब्रह्मलोक कहा गया है।
सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं। सविता के प्राणानुसन्धान प्रक्रिया द्वारा इन चक्रों को जगाया जा सकता है। कुण्डलिनी जागरण की प्राण प्रक्रिया द्वारा उनका बेधन किया जाता है। उच्चस्तरीय साधना का यह अवलम्बन लिया जा सके- चक्रों को जगाया जा सके तो वायु में उठने वाले साइक्लोन और नदियों में पड़ने वाले भँवर से भी अधिक सामर्थ्यवान सिद्ध हो सकते हैं। जागृत सात चक्र सात देवों के रूप में मनुष्य को इतना अनुदान दे सकने में सक्षम हैं जिनको प्राप्तकर असामान्य शक्ति सम्पन्न बना जा सकता है। मनुष्य भौतिक एवं आत्मिक दोनों ही दृष्टियों से सम्पन्न बन जाता है।