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Magazine - Year 1981 - Version 2

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जीवन-दर्शन के तीन स्वर्णिम सूत्र

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“हेडफील्ड” प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक के रूप में प्रख्यात है। जीवन को सुखा, समुन्नत, आनन्दमय, शान्ति एवं सन्तोष युक्त बनाने के लिए उन्होंने तीन अमूल्य सूत्र बताये हैं जो हर व्यक्ति के लिए हर परिस्थितियों में उपयोगी हैं। जिसे जीवन दर्शन के तीन सारभूत सिद्धान्त समझे जा सकते हैं। अपनी ‘साइकोलॉजी एण्ड मॉरल्स’ पुस्तक में उन्होंने तीन सूत्रों का उल्लेख इस प्रकार किया है- (1) अपने आपको जानो (2) अपने आपको स्वीकार करो (3) अपने आप में रहो।

अपने को जानने का अर्थ है- अपनी सत्ता से सुपरिचित होना। सामान्यतया परिचय का क्षेत्र भौतिक जगत शरीर, इन्द्रियाँ एवं ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। प्रत्यक्ष शरीर दीखता है। इसलिए समझा जाता है कि शरीर ही सब कुछ है और अपनी सत्ता भी शरीर ही तक है। अस्तु शरीर को ही सब कुछ मानने एवं बोध का क्षेत्र इन्द्रियों तक ही सीमित रह जाने के कारण उनकी सीमित शक्ति का लाभ मिल पाता। अधिकाँश व्यक्तियों का जीवन क्रम इस मान्यता के ईद-गिर्द ही घूमता एवं लुढ़कता रहता है। फलतः खाने, कमाने एवं प्रजनन सीमा के सीमित दायरे से निकलते नहीं बनता। न कुछ विशिष्ट करते बनता और न ही विशिष्ट सोचते।

अपनी वास्तविक सामर्थ्य शरीर की क्षमता की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है। आत्म-सत्ता शक्ति की पुँज है। इन्द्रियों की क्षमताएँ तो उसकी कुछ तरंगें मात्र हैं। असली सामर्थ्य का केन्द्र तो आत्मा है, इस बोध के न होने से ही मनुष्य अपने को दीन-हीन, गया-गुजरा, असमर्थ, असहाय महसूस करता और किसी तरह जीवन के दिन पूरे करता है। इसके विपरीत अपनी भीतरी सामर्थ्य का बोध होते ही बाध्य जीवनक्रम एवं परिस्थितियों में भारी हेर-फेर हो जाता है। तब उसे अनुभव होता है कि आत्मा के भीतर प्रचण्ड शक्ति भरी पड़ी है। आत्म-विश्वास के उदय होते ही मनुष्य बाध्य परिस्थितियों को उतना महत्व नहीं देता जितना कि मनुष्य के भीतर समाहित विशेषताओं को।

“हेडफील्ड” का कहना है कि “जीवन में अधिकाँश व्यक्ति इसलिए असफल रहते हैं कि उनमें आत्मविश्वास नहीं होता अपनी शक्ति से अपरिचित होते हैं। अस्तु उससे लाभ उठाते भी नहीं बनता। फलतः कुछ विशेष नहीं कर पाते जबकि ऐतिहासिक सफलताएँ आत्म-विश्वासियों को मिलती हैं। असफलताओं का रोना रोने वाले निराशा के गर्त में डूबे व्यक्तियों के लिए हेडफील्ड के ये स्वर्णित वाक्य सारगर्भित एवं अति उपयोगी है। “निराशा एवं अवसाद से निकलकर अपने भीतर झाँको। देखो, तुम्हारे अन्दर शक्ति का स्त्रोत छिपा पड़ा है।”

हेडफील्ड का दूसरा सिद्धान्त है- “अपने आपको स्वीकार करो।” इसे आत्म-बोध का द्वितीय चरण समझा जा सकता है जो कर्मयोग की प्रेरणा देता है। अपने को जानता ही पर्याप्त नहीं है वरन् यह भी आवश्यक है कि मनुष्य जीवन का जो कुछ भी अनुदान मिला है उसे परमात्मा का वरदान मानकर सहर्ष स्वीकार किया जाय। अर्थात् प्राप्त अनुदानों का सदुपयोग किया जाय। अपने को दीनहीन मानने की तुलना में यह समझा जाय कि हम संसार के महत्वपूर्ण घटक हैं तथा हमारा जन्म पेट-प्रजनन जैसे निकृष्ट प्रयोजन के लिए नहीं- किसी महान उद्देश्य के लिए हुआ है। विश्ववसुधा अंचल फैलाए- हमारे सहयोग की अपेक्षा कर रही है।

यह आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को हर तरह की क्षमता प्राप्त हो। शरीर-बल, बुद्धि-बल, भाव-बल, सम्पत्ति में से किसी भी तरह की सामर्थ्य क्यों न हो, सभी अपने में महत्वपूर्ण तथा उपयोगी हैं। यह सोचना निराधार है कि अमुक तरह की योग्यता होती अथवा साधन उपलब्ध होते तो महत्वपूर्ण कार्य किया जाता। जिस भी तरह की क्षमता-साधन प्राप्त हैं उनके ही सदुपयोग द्वारा बहुत कुछ किया जा सकता है। यह तथ्य हृदयंगम किया जाना चाहिए कि महान कार्य योग्यता प्रतिभा के बलबूते नहीं उच्चस्तरीय आदर्श एवं सिद्धान्त निष्ठा द्वारा सम्पादित किए जाते हैं। योग्यता प्रतिभा का योगदान तो होता है पर तभी जबकि वे उत्कृष्टता के पक्षधर बनें। अस्तु योग्यता संवर्धन के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। पर इतने पर भी यदि किसी विशेष तरह की योग्यता अर्जित न हो सकी तो यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वह प्राप्त होती तभी महत्वपूर्ण कार्य कर सकते थे। जो प्राप्त है उस क्षमता का ही नियोजन यदि ठीक प्रकार बन पड़े तो आत्म-निर्माण एवं लोक-कल्याण की दिशा में इतना कुछ किया जाता सकता है जितना कि विपुल साधनों के रहते भी नहीं किया जा सकता। अतएव आवश्यकता इस बात की है अनुपलब्ध साधनों अथवा योग्यताओं के कारण निराश न हुआ जाय। जो उपलब्ध है उसका अधिक से अधिक सदुपयोग किया जाय। महामानवों के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर यह पता चलता है कि अधिकाँशतः विपन्न परिस्थितियों में जन्मे एवं पले। योग्यता एवं प्रतिभा की दृष्टि से भी उनसे असंख्यों आगे थे। किन्तु सबको पीछे छोड़ते हुए वे आगे निकलकर महानता के उच्च शिखर पर जा पहुँचे। विचार करने पर इसका एक ही कारण नजर आता है कि उन्होंने अपने समय, श्रम एवं मनोयोग का पूरी तत्परता के साथ उपयोग किया। इसके विपरीत साधनों एवं योग्यताओं से सम्पन्न होते हुए भी उनका सदुपयोग न बन पाने के कारण कितने ही व्यक्ति सामान्य जीवनचर्या से आगे नहीं बढ़ पाते।

सुखी सन्तुष्ट आनन्द युक्त जीवन के लिए हेडफील्ड का तीसरा सन्देश है “अपने आप में सन्तुष्ट रहो”। प्रसन्नता, अप्रसन्नता का केन्द्र सामान्यतया बाह्य परिस्थितियों एवं व्यक्तियों को बनाया जाता है। परिस्थितियों तथा व्यक्तियों में परिवर्तन होते रहते हैं। उनके प्रभाव सुखप्रद अथवा दुःखप्रद दोनों ही तरह के हो सकते हैं। उनके भले-बुरे प्रभाव पड़ने पर भी स्वाभाविक है। दृष्टिकोण बहिर्मुखी होने से मनुष्य को असन्तोष ही हाथ लगता है। उपलब्धियाँ हासिल करने के लिए प्रयत्नशील रहा जाय, यह ठीक है। पर अनावश्यक ललक-लिप्सा तो हर दृष्टि से हानिकारक है, व्यक्ति एवं वस्तुओं के प्रति भी आसक्ति इस सीमा तक न जोड़ी जाय कि उनके न रहने अथवा प्रतिकूल हो जाने पर निराशा एवं असन्तोष की मनःस्थिति से गुजरना पड़े। अस्तु प्रसन्नता का केन्द्र बिन्दु अपनी अन्तरात्मा को माना ही श्रेयस्कर एवं सहायक है।

जीवन दर्शन के ये तीन सिद्धान्त अपने में महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ छिपाये हुए हैं। जिनका अवलम्बन लेकर किन्हीं भी परिस्थितियों में अपनी मनःस्थिति सुदृढ़ बनाये रखना सम्भव है। मन को शान्त, प्रसन्न चित्त रखने एवं विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए ये सूत्र हर किसी के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हो सकते हैं।

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