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Magazine - Year 1981 - Version 2

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प्रगति के लिए मनुष्य को हर सुविधा उपलब्ध है

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मनुष्य का अस्तित्व दृश्य रूप में दिखाई देता है। अदृश्य से दृश्य बनने की अवधि में उसे कितने प्रबल-पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। इसे बहुत कम लोग जानते हैं। उन दिनों उसकी आकाँक्षा और प्रगतिशीलता देखते ही बनती है। इस प्रयास के अनुरूप ही उसे प्रकृति या परमात्मा से भी पूरी-पूरी सहायता मिलती है।

शुक्राणु की मूल सत्ता इतनी छोटी होती है कि आलपिन की नोंक पर उसके हजारों भाई बैठ सकें। उस स्थिति में उसे मात्र शक्तिशाली सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से ही देखा जा सकता है। रति काल की सुखद सम्वेदना एवं क्रीड़ा चेष्टा का सरसता में कई तथ्य मिले होते हैं। आकाँक्षा की प्रबलता से ही उत्तेजना उत्पन्न होती है। नर-मादा की सघन सहायता से ही वह कृत्य सफल होता है। इन घड़ियों के पुरुषार्थ में शरीर की अद्भुत हलचल एवं मनोयोग की प्रबलता ही रसानुभूति का अवसर देती है और यौन कर्म सफल होता है। इन तथ्यों का समावेश जितना कम होता है उसी अनुपात में यौन-कर्म या तो बन ही नहीं पड़ता अथवा नीरस भार रूप बलात्कार जैसा हेय-निष्फल बनकर रह जाता है।

रतिक्रिया के उपरोक्त तीनों तथ्य चिरकाल से प्रसुप्त स्थिति में पड़े शुक्राणु पर अपनी छाप छोड़ते हैं और उन प्रेरणाओं से अनुप्राणित होकर मानवी सत्ता के समान स्वरूप को उपलब्ध करने के लिए वह आतुर हो उठता है। यह आतुरता उसे इतनी सक्रियता प्रदान करती है कि उसका अनुपात प्रजनन के उपरान्त फिर कभी देखने को नहीं मिलता।

प्रगति एकाकी प्रयत्नों से सम्भव नहीं उसके लिए सहकार की अनिवार्य आवश्यकता है। सहयोग का आरम्भ एक से दो इसके उपरान्त अनेकानेक में विकसित होने के रूप में चलता है। शुक्राणु दौड़ लगाता और मादा के डिम्बाणु को खोजता है। जो खोजता है उसे मिलता भी है। आंखें न होते हुए भी, टटोलने के अवयवों का विकास न होते हुए भी आकांक्षा उस सघन जंजाल में से अभीष्ट को ढूंढ़ निकालती है और सहकार की वह उच्च स्थिति प्राप्त कर लेती है जिसे ‘एकात्म’ ‘अद्वैत’ कहते हैं। एक का समर्पण ही दूसरों को तदनुरूप बनने के लिए सहमत करता है। शुक्राणु का डिम्बाणु को खोज निकालना और उसके साथ सघन आत्मीयता स्थापित करके एकात्मता की चरम सीमा तक जा पहुँचना वह प्रथम पुरुषार्थ है, जिससे प्रगति का द्वार खुलता है।

एक महीने के भीतर ही बीजाणु अपने मूल आकार से विस्तार में पाँच सौ गुना और वजन में 8000 गुना बढ़ जाता है। एक से दो-दो से चार-चार से आठ का क्रम बनाती हुई लाखों कोशाएँ बनकर तैयार हो जाती हैं ताकि उनके सहारे विभिन्न अवयवों का ढाँचा खड़ा हो सके। कोशिकाओं का विकास सीमाबद्ध है। वे मात्र अपने ही वर्ग की कोशिकाओं को जन्म दे सकती हैं। आंतों की कोशिकाएँ मात्र आंतों और गुर्दे की मात्र गुर्दों का गठन कर सकती हैं किन्तु बीजाणु मूलतः एक कोशिका भर होते हुए भी इस विशिष्टता से युक्त रहता है कि वह अनेकानेक अवयवों में काम आने वाले विभिन्न स्तर की कोशिकाओं का निर्माण कर सके। इस प्रकार बीज कोष को उस सृष्टिकर्ता प्रजापति के समतुल्य माना जा सकता है, जिसने सृष्टि के आरम्भ में अनेक आकृति-प्रकृति के प्राणियों तथा पदार्थों की संरचना की।

भ्रूण का विस्तार एक महीने की अवधि में एक इंच के दसवें भाग जितना हो चुकता है। इतनी छोटी स्थिति में भी उसका सिर, धड़ और पूँछ देखी जा सकती है। दूसरे महीने में यह विस्तार छः गुना और वजन पचास गुना हो चुका होता है। इस स्थिति में उसके हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े, आंतें आदि अपने अस्तित्व का परिचय देने लगते हैं। इस अवधि में उनकी विकास प्रक्रिया आश्चर्यजनक पाई जाती है। अनगढ़ आँतों को ही लें। वे समर्थ बनने के लिए इतनी अधिक उभरती दिखाई पड़ती हैं कि पूर्ण मनुष्य के आँत-संस्थान की तुलना में उस समय की हलचल को हजारों गुना अधिक गतिवान कहा जा सके। ऐसी ही तेज प्रक्रिया अन्य अवयवों में भी चल पड़ती है।

अवयवों का विकास अपने ढंग से चलता रहता है। उसका क्रम इतना द्रुतगामी होता है कि यदि वही जन्म के उपरान्त भी बना रहे तो मानवी काया किसी विशाल पर्वत से विस्तार और वजन में कम न रहे। पर इसी समय उसके सामने एक दूसरी समस्या आ जाती है, बन्धन-मुक्ति की। भ्रूण को इसकी तैयारी भी करनी पड़ती है। फलतः वह विस्तार की तुलना में साहसिकता संजोने के नये उपक्रम को अपनाता और आकाँक्षा को दूसरे केन्द्र पर नियोजित करता देखा जाता है।

गर्भस्थ शिशु माता की काया के साथ असाधारण रूप से जुड़ा जकड़ा होता है। पर जीव को यह परावलम्बन क्यों कि स्वीकार हो? वह इस स्थिति में कब तक जकड़ा रहे। उसे अपने उत्तरदायित्व भी तो सम्भालने हैं। किसी पर भार बन कर कब तक लदे रहा जाय। चार महीने पूरे होते-होते भ्रूण की यह इच्छा प्रबल होने लगती है कि देर तक किसी पर भार बनकर नहीं रहना चाहिए। अपने निजी पुरुषार्थ की प्रखरता का परिचय देना चाहिए। इसके लिए उसके सामने सबसे प्रमुख कार्य यह होता है कि जन्म लेने के समय की कठिनाई को पार करने के लिए अपने में समुचित पराक्रम अर्जित कर ले। बन्धन मुक्ति में उसके सामने कई कठिनाइयाँ होती हैं, एक तो गर्भाशय की भीतरी स्थिति में माता के साथ जोड़ने-जकड़ने वाले अनेक तन्त्र तन्तु, दूसरे प्रसव के साथ बाहर निकलने के लिए अत्यन्त छोटे मार्ग का अवरोध। प्रकृति ने भ्रूण की रक्षा के लिए उसे कपाट बन्द प्रयोगशाला में विकसित होते रहने की व्यवस्था की है। इतना बन पड़ने के बाद तो वह स्थिति बन्धन रूप हो जाती है। भव-बन्धन से मुक्ति पाने की आकाँक्षा को चरितार्थ करने के लिए प्रारम्भिक चुनौती उसी अवधि में सामने आती है और उसकी पूर्ति की जिम्मेदारी भ्रूण के स्वयं के कन्धे पर आती है। बड़े पराक्रमों की पूर्व तैयारी करनी होती है।

बच्चा पेट में हिलता-डुलता है। शरीर तानता, अंगड़ाई लेता और हाथ-पैर फैलाता है। इन सब हलचलों को माता इस तरह अनुभव करती है, मानों कोई जीवित पंक्षी पेट में बैठा हुआ पंख फड़फड़ा रहा हो। स्थिति को देखते हुए उसका प्रयास भी किसी प्रबल पराक्रम का परिचय देने से कम नहीं माना जा सकता। आगे चलकर उसे चक्रव्यूह में फँसे हुए अभिमन्यु की तरह बाहर निकलने का मोर्चा जो जीतना है। स्थिति और समस्या को देखते हुए उसके समाधान में भ्रूण की चेष्टा को किसी इतिहास प्रसिद्ध सेनानायक के महायुद्ध जीतने जैसी ही कहा जा सकता है।

प्रसव काल की उथल-पुथल, हलचल कितनी प्रचण्ड एवं क्रान्तिकारी होती है। इसे प्रत्यक्षदर्शी एवं भुक्तभोगी ही जानते हैं। युद्धकाल जैसे मर्मान्तक कष्ट, चीर-फाड़ एवं रक्तचाप के दृश्य देख कर दिन दहलने लगता है, पर इस बन्धन मुक्ति में इससे कम स्तर का दुस्साहस करने एवं जोखिम उठाये बिना काम भी तो नहीं चलता। इस प्रयास में माता का सहयोग तो कम ही होता है, अधिकाँश भूमिका बालक को स्वयं ही निभानी पड़ती है। सभी जानते हैं कि यदि भ्रूण दुर्बल हो और बाहर निकलने का प्रबल पुरुषार्थ न करे या कम करे तो उसकी परिणति माता और भ्रूण दोनों के लिए ही प्राणघातक सिद्ध हो सकती है। ऐसी स्थिति में शल्य क्रिया की विशेष सहायता ही उन दोनों की जीवन सुरक्षा कर सकती है।

भ्रूणकाल में जीवधारी को समग्र जीवन प्राप्त करने के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कितने प्रकार के- कितने अधिक- किस स्तर के प्रयास करने पड़ते हैं, इसका लेखा-जोखा लेने पर आश्चर्यचकित दर्शक इतना ही कह सकता है कि यदि उतनी तत्परता जन्म के उपरान्त भी बरती जा सके तो मनुष्य दूसरा भगवान या शैतान बन सकने में समर्थ हो सकता है।

एक समय के वीर्यपात में प्रायः तीन करोड़ शुक्राणुओं का क्षरण होता है। इन सबकी इच्छा एक ही होती है और सभी अपने-अपने स्तर पर पुरुषार्थ भी करते हैं, पर इस प्रतियोगिता में जो सर्वोच्च पराक्रम करता है वही डर्बी के लाटरी वाले विजयी घोड़े की तरह से सफल एवं कृत-कृत्य होता है। प्रगति के लिए हर किसी को प्रतियोगिता से सम्मिलित होना और अपनी समर्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ता है।

भ्रूण का विकासक्रम इतनी तेजी से होता है कि इन हर नौ महीने में हर तीन मिनट बाद उसकी शकल बदलती रहती है। उसकी काया का कलेवर इतनी तेजी से बदलता है कि इन परिस्थितियों को एक-दूसरे से बहुत कुछ भिन्न कहा जा सकता है। गर्भावस्था की पूरी अवधि में प्रायः दो करोड़ बयालीस लाल सेकेंड होते हैं। इन्हें तीन में विभाजित कर देने पर वह गणना अस्सी लाख से भी ऊपर निकल आती है। धार्मिक मान्यता भी है कि जीव को चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य जन्म मिलता है।

जड़ परमाणुओं में 27 लाख किलो कैलोरी ऊर्जा मानी गई है। उसके विस्फोट से उत्पन्न क्षमता का उपयोग इन दिनों विकास और विनाश के मूर्धन्य प्रयोजनों में किया जा रहा है। यदि चेतन परमाणुओं से भरे-पूरे मनुष्य कलेवर में सन्निहित समर्थता का सही एवं परिपूर्ण उपयोग सम्भव हो सके तो उसके सम्बन्ध में कही जाने वाली यह उक्ति अक्षरशः सही सिद्ध हो सकती है कि मनुष्य ईश्वर का ज्येष्ठ एवं वरिष्ठ राजकुमार है।

जन्म लेने के उपरान्त भी शिशु को सम्भ्रान्त मनुष्य के स्तर तक पहुँचने में कम पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। जन्म लेते ही बालक हाँफता है, साँस लेता है। यह क्रिया सुनाई तो रोने-चिल्लाने के रूप में पड़ती है, पर वह वस्तुतः होती है अंग-अवयवों में इतनी क्षमता उभार देने जितनी जो खुले वातावरण में जीवित रहने के लिए आवश्यक है। अनभ्यस्त परिस्थितियों में रहने के लिये न्यूनतम क्षमताओं को उपयुक्त मात्रा तक पहुँचाने में जिस प्रयास की आवश्यकता है वह जन्मजात शिशु द्वारा किये जाने वाले चित्र-विचित्र एवं अनवरत गतिविधियों में ध्यानपूर्वक देखा समझा जा सकता है। जन्म के समय बालक एक प्रकार से अपंग की स्थिति में होता है। हृदय आरंभ में बहुत ही धीरे धड़कता है। फिर गति पकड़ने में तो उसे काफी देर लगती है और कठिनाई होती है। मुख में लाल ग्रंथियां तो होती हैं। पर उनमें स्राव नहीं होता। आँखों में अश्रु ग्रन्थियाँ तो होती हैं, पर रोते समय उनमें से टपकती एक बूँद भी नहीं। आंखें प्रकाश और अन्धकार का भेद भर समझती हैं, पर उनके कोष्टक ऐसे नहीं होते कि दृश्य का कोई सही फोकस बन सके और उस आधार पर कुछ अनुभूतियाँ बना सकें। उस अभावग्रस्त स्थिति में भी उसकी प्रगति अभिलाषा इतनी अदम्य होती है कि अपने निजी पराक्रम से अपनी क्षमताओं को अधिकाधिक विकसित करता हुआ समर्थ मनुष्य की स्थिति तक जा पहुँचता है। बच्चा जन्म से लेकर पाँच वर्ष तक जितना कुछ सीख लेता है उसे उसकी नगण्य सामर्थ्य एवं अनगढ़ साधनों को देखते हुए आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है। जिस क्रम में पाँच वर्ष में बहुमुखी ज्ञान सम्पादन होता है यदि उसी क्रम से आगे भी चलता रहे तो कोई मनुष्य संसार भर में फैले हुए समस्त ज्ञान-विज्ञान का अधिष्ठाता बन सकता है।

जीवन के आरम्भ काल में सृष्टा द्वारा अपनी व्यवस्था प्रकृति द्वारा जो पाठ पढ़ाये जाते हैं वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें स्मरण रखे और अपनाये रहने पर जीवन लक्ष्य की सरलतापूर्वक पूर्ति हो सकती है। सृष्टा ने जीव सत्ता में उत्कृष्टता काय-कलेवर की विलक्षणता, साधनों की असामान्य सुविधा के अद्भुत अनुदान दिये हैं। उन्हें देखते हुए निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचना कुछ भी कठिन नहीं है।

आरम्भिक दिनों में सीखे गए पाठों और उपलब्ध हुए परिणामों को कौन कितना याद रखता है और कितना भुला देता है- यही है वह रहस्य जिनके आधार पर मनुष्य को अपनी स्वतन्त्र प्रगति करने अथवा अवनति के गर्त में गिरने का अवसर मिलता है।

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