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Magazine - Year 1981 - Version 2

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मनुष्य से महान और कुछ नहीं

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मनुष्य का या सिद्ध पुरुषों का सबसे बड़ा चमत्कार है उनका ‘आत्मबल’। यही उन्हें अपनी उस प्रसुप्त सामर्थ्य को बोध कराता है जिसके कारण वे कठिन से कठिन और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आदर्शों तथा दृढ़ सिद्धान्तों पर टिके रहते हैं। यही चमत्कारी क्षमता सामान्य से राजकुमार सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध, एक गड़रिये के बेटे को ईसा, साधारण से साधु को समर्थ रामदास, वासना में लिप्त कामुक व्यक्ति को तुलसीदास, एक पुजारी को रामकृष्ण परमहंस, एक डाकू को सन्त बाल्मीकि एवं एक अध्यापक को महायोगी अरविन्द बनाती है। सामान्य परिस्थितियों से ऊपर उठकर महान मानवों- देवपुरुषों की पंक्ति में जा बैठना क्या कम चमत्कार है। लोगों ने तो बाजीगरी के करतबों को ही चमत्कार मान रखा है। वस्तुतः जिन्होंने आध्यात्मिक सम्पदा कमाई है, उन्हें इस तरह का चमत्कार प्रदर्शन करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। सम्पन्न व्यक्ति अपने धन को सुरक्षित रखते हैं- उसे हर किसी को बताते नहीं फिरते। यह तो दिखाने वाले का ओछापन और उत्सुक बाल-बुद्धि वालों का बचकानापन है जो इस भौंड़े प्रदर्शन को ही मुख्य मान बैठते हैं। जीवन की गरिमा को जिन्होंने समझा है उन्होंने दत्तचित्त हो उसकी साधना की है व प्रत्युत्तर में अनगिनत बहुमूल्य मणिमुक्तक पाये हैं। इससे वे स्वयं लाभान्वित हुये व अनेकों को लाभ पहुँचाया है।

जीवन देवता की आराधना ही वस्तुतः साधना है। इस तथ्य की अपनाने वाला ही तत्त्वदर्शी- यथार्थवादी है। दूसरे तो भटकने-भटकाने वाले भर हैं। ‘सत्य’ को ही नारायण कहा गया है। सत्य की प्रथम किरण का दर्शन इसी रूप में होता है कि सफलता, सम्पदा एवं प्रसन्नता के आधार जहाँ-तहाँ ढूंढ़ने के लिये कस्तूरी हिरन जैसी थकाने वाली भ्रान्ति भगदड़ बन्द की जाय। मृग-मरीचिका के पीछे न दौड़ा जाय। कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त करना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो इतना और भी मान लेना चाहिये कि इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये जीवन देवता की आराधना के अतिरिक्त और कहीं आश्रय नहीं मिल सकेगा। अनुग्रह आपत्तिकालीन उदार अनुदान भर है। वह नियम नहीं बन सकता। न ही सदा-सर्वदा कार्यान्वित ही हो सकता है। मूल्य चुकाना और अभीष्ट को खरीदना यही व्यावहारिकता है। इसी का प्रचलन अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा।

सामान्य से असामान्य बनना अत्यन्त सरल होते हुये भी अधिकांश से नहीं बन पड़ता। इसका मूल कारण एक ही है- ‘आत्म विस्मृति’। हनुमान को अपनी सामर्थ्य का बोध रहा होता तो जाम्बवन्त के उपदेश की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती। राम का आदेश पाते ही वे चल पड़ते। जैसे ही सागर किनारे साधारण से बानर हनुमान को अपनी आत्मा गरिमा का बोध हुआ- वे एक छलाँग में असम्भव पुरुषार्थ कर सकने में सफल हो गये। अंगारों पर रखी राख अग्नि की तीव्रता को छुपाये रहती है। जैसे ही उसे हटाया जाता है- वह अपने मूलरूप में देदीप्यमान-तापयुक्त हो उठती है। सूर्य पर बादल छाये हों तो कुछ देर के लिये वातावरण में ठण्डक छा जाती है। बादलों के छँटते ही सूर्य का प्रकाश व गर्मी उस क्षेत्र के हर भाग तक पहुँचने लगता है। अपना आपा भी ऐसा ही प्रकाशवान, जाज्वल्यमान है। मात्र कषाय-कल्मषों ने, विस्मृति की माया ने, जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों ने अपनी इस आभा को ढ़क रखा है। यदि इस मायाजाल का आवरण हटाया जा सके तो असामान्य स्थिति में पहुँच सकना सम्भव है।

इस स्थिति को और भी स्पष्ट समझना हो तो ‘सामान्य’ प्रवाह में बहने वालों को और ‘असामान्य’ उत्कृष्टता के पक्षधर, अपने मनुष्य जन्म की गरिमा को समझने वाले- स्वतन्त्र एवं साहसिक निर्धारण करने वालों को कहा जा सकता है। जिस आत्मज्ञान की शास्त्रकारों ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा है- “आत्मा वा अरे ज्ञातव्यः और जिसके फलस्वरूप लौकिक और पारलौकिक सम्पदाओं के अजस्र वरदान बरसने का विश्वास दिलाया है, वह वस्तुतः जीवन संपदा का महत्व, मूल्य, स्वरूप एवं सदुपयोग समझ सकना भर है। ब्रह्मविद्या के गम्भीर तत्वज्ञान में आत्मदर्शन को ईश्वर प्राप्ति के समतुल्य बताया गया है। इस रहस्यवाद को यदि सरल शब्दों में समझना हो तो बोलचाल की भाषा में इतना कह देने से भी काम चल सकता है कि “अपनी अर्थात् जीवन की गरिमा को समझा जाय और उस कल्पवृक्ष की निष्ठापूर्वक साधना की जाय।” इतना समझा, स्वीकार जा सके तो समझना चाहिये कि आत्म-विज्ञान की वर्णमाला याद हो गयी। अन्यथा बिना अक्षर ज्ञान सीखे स्नातक बनने का दिवास्वप्न देखने वालों को रोक कौन सकता है?

जीवन साधन में वस्तुतः मानवी गरिमा के प्रति श्रद्धान्वित होने और उसे अपनाने के लिये संकल्पवान निष्ठा परिपक्व करने के दो निर्धारण करने पड़ते हैं। इन दो तथ्यों पर जितनी गंभीरतापूर्वक विचार किया जायेगा, उतना ही यह रहस्य प्रकट होता जायेगा कि प्रगति और दुर्गति का कारण क्या है? अन्तरंग की निकृष्टता को लोगों की आंखों से छिपा कर भी रखा जा सकता है, पर उस सड़ांध से वह लपकन तो उठती ही रहेगी जो मवाद भरे फोड़े के भीतर से उठती है, और खाने-सोने से लेकर सामाजिक परिकर और परिवार हो हैरान करती है। कुसंस्कारिता की गहरी जड़ें अवांछनीय आकाँक्षाओं और अनैतिक मान्यताओं में होती हैं। इसके जब अंकुर फूटते हैं तो आलस्य से लेकर दुर्व्यसनों तक के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं और भी परिपक्व होते हैं तो भ्रष्टता ओर दुष्टता के रूप में अपनी उद्दण्डता का परिचय देते हैं। इन्हें रोका उखाड़ा कैसे जाय? कैसे आत्मा पर छाये इन मलीनता के आवरणों से मुक्ति पायी जाय? इसके लिये किसी वरदान अनुदान के ऊपर अवलम्बित नहीं रहना चाहिये। वरन् उस आधार को अपनाना चाहिये, जिसके बन जाने पर अनुदान बिना याचना के ही बरसने लगते हैं। नदियाँ गहरी होती हैं, फलतः उनमें पहाड़ों से लेकर खेतों तक का पानी अपने आप दौड़ते-दौड़ते पहुँचता है। सही रास्ता यही है- सही नीति यही है।

इसके लिये व्यवहारतः क्या करना होगा? इसका उत्तर एक ही है। अपनी संचित कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ाया जाय और लोकप्रवाह में बहने से इन्कार कर दिया जाय। संकल्प एक ही रहे कि प्रवाह में बहना नहीं है, मात्र औचित्य ही स्वीकारना है। अनौचित्य की प्रेरणा भले ही स्वजन सम्बन्धियों द्वारा दी जा रही हो अथवा समूचे वातावरण से वैसा प्रोत्साहन मिल रहा हो। अपना निर्णय स्वतन्त्र एवं आदर्शवादी होना चाहिये। अपने से- अपनी आदतों से- अपने को प्रभावित करने वाले व्यक्तियों से- वातावरण से लड़ पड़ने का साहस उभरे तो कृष्ण का अर्जुन बनने का अवसर मिले।

कर्त्तव्य कहता है कि पुराने ढर्रे तो तोड़ो, उससे लड़ो और अवाँछनीय को हटाओ। पर अर्जुन को मोह उस पुराने, चिर अभ्यस्त, चिर परिचित ढर्रे को छोड़ने-तोड़ने का साहस नहीं कर पाता और सोचता है जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जाय। कर्तव्यपालन यदि इतना ही झंझटों से भरा है- आत्म जागरण का यदि इतना महंगा मूल्य चुकाना पड़ता है तो उसे छोड़ ही क्यों न दिया जाय। ऐसे महाभारत में जब मोहग्रस्त अर्जुन गांडीव नीचे रखकर बैठ जाता है, तब भगवान अनेकों तर्क-तथ्यों के माध्यम से उसे समझाते हैं। वे कहते है कि “चिर परिचित गतिविधियाँ ढर्रे में रहने के कारण स्वजनों-सम्बन्धियों की तरह अति निकटवर्ती, प्रिय बन गई है। इन्हें हटाया जाना अत्यावश्यक है। इन्हीं ने आत्म-गरिमा से अर्जुन रूपी मनुष्य को विस्मृत बना दिया है। साधना समर में अपने ही अज्ञान असुर से ही तो लड़ना पड़ता है। कर्त्तव्य, धर्म व संघर्ष साथ-साथ जुड़े हैं। अतएव हे अर्जुन! चिरपरिचितों का- चिर सहचरों का मोह छोड़ और वह कर जिससे श्रेयस् की साधना सम्पन्न होती है।”

आत्म-गरिमा को भूले हर व्यक्ति को अपना बल संचय की साधना करते समय अर्जुन की तरह ही अग्नि परीक्षा में से गुजरना होता है। विवेक भूमिका में जागृत आत्मा यदि अपने कषाय-कल्मषों को ही न मिटा सकी तो उसके जागरण का आखिर प्रयोजन ही क्या रहा? जिसके पास आत्म भूमिका में जागृत हुआ जीवन युक्त नर-नारायण है। उसके लिये संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। अध्यात्म के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ने व ऋद्धि-सिद्धियाँ हस्तगत करने के लिये आत्म-जागृति ही प्रथम शर्त है।

साधना विधान में दो प्रकार की समाधियों का वर्णन आता है। मूर्च्छित एवं जागृत। प्रथम तो मनोवैज्ञानिक प्रयोग है व किसी-किसी के लिये ही सम्भव है। पर जागृत समाधि सर्वसुलभ है। इस समाधि का अर्थ है- बौद्धिक और भावनात्मक प्रवाहों का सन्तुलित ओर विवेकयुक्त बना लेना। सुसंस्कृत चिन्तन पद्धति जब हाथ लग जाती है तो समस्याओं का स्वरूप और समाधान उपलब्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में जो गहरी आत्म-तुष्टि और अनवरत प्रफुल्लता बनी रहती है, उसी का नाम समाधि है। आत्म स्वरूप का, आत्मिक गरिमा का जब अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए कि आत्म साक्षात्कार की, ईश्वरीय अनुदान प्राप्ति की स्थिति आगयी।

यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने आपको ईश्वर का राजकुमार मानकर तद्नुरूप अपने क्रिया-कलापों का निर्धारण करे। हर प्रतिष्ठित कलाकार-मूर्तिकार अपनी कला-कृतियों में गरिमा का ध्यान रखता है। यदि वह भौंड़ी या भद्दी होती है, तो उस कृति का ही तिरस्कार, उपहास नहीं होता वरन् उसके सृजेता-कलाकार का भी गौरव गिरता है। मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। इसे बनाने-तराशने में उसने अपनी कलाकारिता को चरम सीमा पर पहुंचा दिया है। शरीर के एक-एक कलपुर्जे की रचना और कार्यशैली पर विचार करते हैं तो विदित होता है कि सारे वैज्ञानिक एक साथ बैठ जायें तो भी किसी एक अकेले अवयव की सही प्रतिकृति नहीं बना सकते। मानवी बुद्धि को एक क्यारी में उगे पुष्पों की फसल कह सकते हैं। शारीरिक और बौद्धिक क्षमता के अतिरिक्त एक भावना क्षेत्र भी इस ईश्वरीय कृति की एक विशेषता है जो मानवी अन्तःकरण में उत्कृष्टता के सारतत्त्व के रूप में विद्यमान है। ईश्वर का अरमान तो पूरा हो गया। अब मनुष्य का कर्त्तव्य आरम्भ होता है कि उस कर्तृत्व को कलुषित और कलंकित न करे। सृष्टा की गरिमा को गिरने न दें और उन अरमानों को चोट न पहुँचाये जिन्हें लेकर सृष्टा ने इतनी तीव्र आकाँक्षा की और सृजन का कष्ट उठाया।

मानवी सम्भावनाएँ असीम हैं। मानव गया-गुजरा उस स्थिति में है- जब वह अपनी सामर्थ्य को पहचानने और उसका उपयोग करने में उपेक्षा बरते। वह महान और असाधारण उस स्थिति में है जब वह अपनी गरिमा का समझे और असीम क्षमता पर विश्वास रखे। जितना असीम यह परमात्मा है, उतना ही महान उसका पुत्र है। महर्षि व्यास महाभारत में कहते हैं- ‘‘मैं एक रहस्य की बात बताता हूँ कि इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ और नहीं। इसी तथ्य को वैज्ञानिक मनीषी सर जूलियन हक्सले ने अपने शब्दों में कहा- ‘‘मानव में विकास की अनन्त सम्भावनाएँ हैं। आत्मबोध से आरम्भ होने वाली यह प्रक्रिया उसे परमसत्ता के समीप ले जाती है। यही आध्यात्मिक विकासवाद है।”

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