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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रामाणिकता की समर्थ क्षमता

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बैंक से पैसा पाने के लिए आवश्यक है कि या तो पहले से जमा रखी हुई पूँजी खाते में हो या फिर कोई संपत्ति गिरवी रखकर उनके बदले आवश्यक राशि प्राप्त की जाए। बैंकों के पास प्रचुर धन होता है, तो भी वे बिना किसी आधार के हर माँगने वाले को उसकी इच्छित धनराशि देने के लिए तैयार नहीं होतीं। हों भी कैसे? उन्हें अपनी राशि ब्याज समेत लौटानी भी तो है। जब तक वैसी संभावना सामने न आए तब तक बैंकों की उधार देने की नीति कार्यान्वित नहीं हो पाती।

यह संसार भी एक बड़ा बैंक है। इसमें से प्रशंसा, प्रतिष्ठा, सहयोग, सहायता, सद्भावना जैसी अनेकों बहुमूल्य वस्तुओं का वितरण होता है। इन्हें कोई भी अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करके प्राप्त कर सकता हैं; यह सुलभ भी है, सही भी। किंतु यदि अप्रामाणिकता का असमंजस बीच में आ पड़े तो दाता और ग्रहीता के बीच में इतनी चौड़ी खाई आ जाती है, जिसे लांघना सरल नहीं होता।

मनुष्य का आद्यावधि इतिहास उस पूँजी के समान है, जो बैंक के खाते में पहले से ही जमा होती है और उसके बदले में माँगा धन सरलतापूर्वक दिया जाता है। समाजसेवा के रूप में, चरित्रनिष्ठा के रूप में, सज्जनता अवधारणा के रूप में, जिसने अपना व्यक्तित्व प्रामाणिक बनाया है, उसके लिए यह कठिन नहीं पड़ता कि अवसर आने पर उस हुंडी को भुना ले। उपयुक्त सहायता और प्रतिष्ठा प्रशंसा प्राप्त कर ले।

इस दुनिया में सज्जनता-भरे व्यवहार की कमी नहीं। उदारता और सहकारिता का व्यवहार सदा से जीवित रहा है और अंत काल तक जीवित रहेगा; किंतु यह आवश्यक है कि सद्व्यवहार प्राप्त करने का इच्छुक उसके लिए अपनी पात्रता और प्रामाणिकता का प्रमाण प्रस्तुत करे। दया, भिक्षा आदि के नाम पर अपवाद रूप में ही किसी को कुछ मिल सकता है और वह भी स्वल्प रूप में ही।

दूसरों की सदाशयता की उपेक्षा करना उचित है, किंतु साथ ही इस बात की उपेक्षा की जाती है कि जो दिया गया है वह वापस भी लौटे। मुफ्तखोरी के लिए इस संसार में कोई नैतिक-नियमित-विधान नहीं। आपत्तिग्रस्त या अपंग-असमर्थ ही करुणा के आधार पर उतना प्राप्त कर लेते हैं, जितने से कि वे अपना अस्तित्त्व बनाए रहें। अधिक मूल्यवान प्राप्त करने के लिए तो अनिवार्य है कि उसके प्रतिदान का उपयुक्त प्रयत्न किया जाए।

दूसरों से सद्भाव-सहयोग चाहा जाता है। प्रशंसा और प्रतिष्ठा की भी आशा की जाती है। यह उपयुक्त व्यक्तियों को प्रचुर परिमाण में प्राप्त होती है और होती भी रहेगी, किंतु यह सब लूट के माल की तरह बटोरा नहीं जा सकता। छलपूर्वक किसी को चंगुल में फँसाए रहने की बात देर तक नहीं निभती। वेश्याएँ वह स्नेह-सम्मान प्राप्त नहीं कर सकतीं, जो पतिव्रताओं को अनायास ही मिलता है। प्रपंच और पाखंड के बलबूते कुचक्री भी कुछ समय तक पूजा और पैसा झटक लेता है, किंतु यथार्थता प्रकट हुए बिना नहीं रहती। वह आज नहीं तो कल प्रकट होकर ही रहती है। तब पिछले सहकार की तुलना में अनेक गुणा तिरस्कार बरसता है। सज्जनता का पाखंड रचना किसी के भी गले नहीं उतरता, उसकी प्रतिक्रिया होती है। यह दुर्गंध की तरह दूर-दूर तक फैलती है।

दुर्गंध और सुगंध उपजती तो अपने निश्चित स्थान पर ही हैं, पर वे उतने ही दायरे में सीमित नहीं रहतीं; सुदूर क्षेत्रों तक अपनी उपस्थिति का आभास कराती है। रास्ता चलते लोग उनका आभास प्राप्त करते हैं। प्रसन्नता या उद्विग्न होते हैं। चंदन तरु के निकट पहुँचने पर कुछ समय उसकी छाया में बैठकर शांति एवं प्रसन्नता का लाभ लेने के लिए मन करता है। किंतु जहाँ सड़ी कीचड़ की श्मशान में जलने के धुएँ की दुर्गंध उठ रही हो वहाँ से जल्दी दूर निकल जाने के लिए पैर बढ़ाने पड़ते हैं, उद्गम अपने स्तर के अनुरूप आकर्षण और विकर्षण उत्पन्न करता है। व्यक्तित्त्व की प्रामाणिकता हर किसी को आश्वस्त करती है। सांत्वना देती है और सदाशयता को साथ देने के लिए न्योता बुलाती है। इन सद्भावनाओं का संचय ही किसी को आंतरिक दृष्टि से सुसंपन्न बनाता है। इस पूँजी के बल पर व्यक्ति स्वयं ऊँचा उठता है। संपर्क-क्षेत्र के अन्यान्य लोगों को ऊँचा उठाता है। इतने बड़े काम करने का साहस कर गुजरता है, जिनकी कि सामान्य लोग न कल्पना कर सकते हैं न हिम्मत। यह बल कहाँ से आता है? यह टॉनिक रसायनों से नहीं, मल्लविद्या अथवा शस्त्रास्त्रों से भी नहीं, उसका उद्गम है वह गौरव जो, प्रामाणिकता के आधार पर आत्मबल के रूप में प्राप्त होता है।

प्रामाणिकता जहाँ भी रहती है वहाँ श्रद्धा उत्पन्न करती है और विश्वास भी। विश्वासपात्र की आज सर्वत्र तलाश है, उसे बड़े-से-बड़ा काम सौंपा जा सकता है और बड़े-से-बड़ा अनुदान दिया जा सकता है। गाँधी और विनोबा इसके आधुनिक उदाहरण हैं। उनकी विद्या में प्रतिभा से लोग प्रभावित नहीं हुए, वरन लोकदृष्टि से जब हर कसौटी पर परख लिया कि वे विश्वासपात्र है, तो उन्हें भरपूर सहयोग दिया गया। अनेकों आदर्शों-परामर्शों को शिरोधार्य किया गया। लोगों ने अपने घर उजाड़े और उस पथ पर चले जो कष्ट कठिनाइयों से भरा होने पर भी उच्च आदर्शों के लक्ष्य तक ले जाता था।

हर व्यक्ति अपनी सयानी कन्या को सौंपने के लिए ऐसे वर की तलाश करता है, जिसके साथ में उसका भविष्य सुरक्षित हो, जिसकी चरित्रनिष्ठा और सद्भावना पर विश्वास किया जा सके। ऐसा सुयोग मिलने पर ही कन्या सुखी रहती है और अपने भाग्य को सराहती है, भले ही उसके साथ रहकर आर्थिक तंगी ही क्यों न भुगतनी पड़ती हो? इसके विपरीत सुंदर और संपन्न व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं जो चरित्र भ्रष्ट, असहिष्णु और दुर्व्यसनी हों, ऐसी सुविधासंपन्नता के बीच रहकर भी वधू अपने भाग्य को कोसती ही रहेगी। दुश्चरित्रों को ही भ्रष्ट या दुष्ट कहते हैं। जिनने अपनी चरित्रनिष्ठा गँवाईं, समझना चाहिए कि वे भरे बाजार में लुट गए। उज्ज्वल भविष्य की सभी संभावनाएँ गँवा चुके।

अनाचारी व्यक्ति प्रलोभन देकर चापलूसों की मंडली खड़ी कर सकते हैं। उनके मिथ्या सुन सकते हैं और अनाचारी से सहयोग भी ले सकते हैं, किंतु आड़े समय में उनका एक भी मित्र नहीं रहता। एक-एक करके सभी छँट जाते हैं। दाव लगता है तो गहरे गर्त में गिराने से भी नहीं चूकते। क्योंकि वास्तविकता उनके ध्यान में बनी रहती है। जिन हथकंडों से काम लिया गया था, वे ध्यान में बने रहते और घृणा उत्पन्न करते रहते हैं। यह घृणा उत्पन्न करते रहते हैं। यह घृणा प्रतिशोध बनकर तब प्रकट होती है जब धूर्त्त का समय बदलता है और कोई संकट आ दबोचता है।

कौन क्या कहता है? इस पर ध्यान नहीं दिया जाता, वरन यह देखा जाता है कि कौन क्या करता है? कर्तृत्व ही प्रभावशाली कथन है। नशेबाज और व्यभिचारी अनेकों साथी-संगी-अनुयायी बना लेते हैं, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में एकता रहती है, भले ही वह बुरे किस्म की ही क्यों न हो?

धर्मोपदेश देने वाले और आदर्शों की वकालत करने वाले लच्छेदार शब्दों का उच्चारण करके अपनी धाक तो जमा लेते हैं, पर छल नहीं छोड़ पाते। कारण एक ही है कि जो उनके द्वारा कहा जाता है, उसे जीवन में उतारते नहीं देखा जाता। इससे स्पष्टतया पाखंड की गंध आती है। सुनने वाले इस कान से जानकारी प्राप्त करते और उस कान से निकालते रहते हैं। शब्दों में शक्ति नहीं होती। वे तो जानकारी देने भर के माध्यम है। उन्हें शक्तिशाली बनाने के लिए सर्वप्रथम अपने आचरण में उतारना होता है।

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