
अपनों से अपनी बात— कुंडलिनी केंद्र की साझीदारी
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समय की दुरूहता को देखते हुए पिछले तीन वर्षों में महाकुंडलिनी जागरण की विशिष्ट तपश्चर्या संपंन की गई है। 'महा' शब्द इसलिए जोड़ा गया है कि वह व्यक्ति विशेष के लाभ या उपयोग के लिए उसका साधनाक्रम नहीं बनाया गया; वरन् समस्त विश्व की अगणित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उस तपश्चर्या में ऐसी विशिष्टता और उच्चस्तरीय उत्कृष्टता का समावेश किया गया है कि सुविस्तृत क्षेत्र की अगणित आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इसे राष्ट्रगत, विश्वगत अनुपम आध्यात्मिक प्रयास कहा जा सकता है। विश्वगत अनुपम आध्यात्मिक प्रयास कहा जा सकता है। इससे पूर्व ऐसे प्रयास यदा-कदा ही हुए हैं। एक घटना विश्वमित्र की हमें स्मरण है। उनका तप, अनुष्ठान, यज्ञ ऐसे ही महान प्रयोजनों के लिए थे। उसे असफल करने के लिए आसुरी शक्तियाँ विघ्न भी कम नहीं फैला रही थीं। स्थिति को देखते हुए इसका संरक्षण करने राम-लक्ष्मण को जाना पड़ा था। उसी से मिलता जुलता यह महान तप संकल्प भी पूरा हुआ है।bb कहा और समझाया जाता रहा है कि प्रज्ञा मिशन का सूत्रसंचालक मात्र काय-कलेवर में परिवेष्ठित एक व्यक्ति विशेष नहीं है। उसकी समग्र सत्ता एक मिशन के लक्ष्य के निमित्त उपजी और कार्यरत हुई है। आदि से ही इस दिशाधारा को राजमार्ग को अपनाया गया है। अब आपत्तिकालीन युगसंधि की ऐतिहासिक बेला में तो उस प्रक्रिया को और भी अधिक तेज कर दिया गया है। प्रस्तुत महाकुंडलिनी जागरण उसी का एक स्वरूप है। इसमें कर्त्ता का कोई निजी मनोरथ जुड़ा हुआ नहीं है। स्पष्टतः यह युग परिवर्तन के लिए ही है। यह अदृश्य कार्य दृश्य रूप में इस प्रकार क्रियांवित हो रहा है कि प्रतिभाओं को और भी अधिक प्रखर-आत्मबलसंपंन बनाया जाए। उन्हें साधारण से असाधारण स्तर तक पहुँचाया जा सके। इस सामूहिक शक्ति से ही उस लक्ष्य की पूर्ति हो सकेगी जो स्पष्टतः सामने है।
प्रज्ञा परिकर एक समुदाय है। इसे मणि-मुक्तकों का बहुमूल्य हार भी कह सकते हैं। गहरे गोते लगाकर उन्हें ढूँढ़ा, एकत्रित किया और एक सुदृढ़ रत्नमणि सूत्र में पिरोया गया है। यह समुदाय अखंड ज्योति के सदस्यों के रूप में, सृजनरत प्रज्ञापुत्रों के रूप में देखा जाता हैं। व्यक्तिविशेष भले ही इसे गूँथने, चमकाने का कार्य करता हो, पर उसका सुविस्तृत स्वरूप प्रायः चौबीस लाख भावनाशील उदारचेताओं तक फैला हुआ है। इन्हें केंद्रीय सत्ता से अलग करके नहीं देखा, सोचा जा सकता है। गेंडे का सींग अत्यंत सशक्त होता है, तो भी वह नथुने के ऊपर उगे कड़े बालों का सघन समुच्चय भर होता है। प्रज्ञा मिशन के रूप में जिस केंद्र को कार्यरत देखा जाता है उसे एकाकी व्यक्ति नहीं माना जा सकता है। वह गेंडे के नथुने पर उगा हुआ सींग भर है, यह बालों से मिलकर बना सींग टक्कर मारकर हाथी को उलट और शेर को उछाल देता है।
विश्वामित्र का ऊर्जा उत्पादन, तप-जब अपने प्रखर स्वरूप में प्रकट हुआ था, तो उसने असुरता के दमन और सतयुग की स्थापना का वातावरण बनाया था। दुर्बल रीछ-बानरों को इतना सशक्त बनाया था कि समुद्र पर पुल बना सके, निशाचरों के दुर्ग को विस्मार कर सके, राम-राज्य की स्थापना में महती भूमिका निभा सके। हनुमान, अंगद आदि के नाम प्रख्यात है; पर वास्तविकता यह है कि उस सुगठित वानर मंडली का प्रत्येक सदस्य अपने-अपने स्तर की प्रतिभा का धनी था । उनमें से प्रत्येक का अलग-अलग विशेषण-विवेचन किया जाए; तो प्रतीत होगा कि राम का पराक्रम जो विश्वामित्र के तप से ही प्रखर हुआ था, इन सभी रीछ, वानरों में अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहा था। उन सब की संयुक्त प्रक्रिया की इसी प्रकार तात्विक विवेचना हो सकती है।
इतिहास की पुनरावृत्ति भी होती रहती है। इन दिनों भी वैसा ही हो रहा है। रीछ-वानर, ग्वालबाल, बौद्ध परिव्राजक, स्वतंत्रता सेनानी आदि समुदायों की तरह प्राणवान प्रज्ञा पुत्रों की भी गणना हो सकती है। सामान्य मनुष्य तो नर-पशुओं की तरह पेट-प्रजननमात्र के लिए जीवन गुजारते हैं। उन्हें लोभ, मोह एवं अहंकार से हटकर कुछ सूझता ही नहीं; पर जिनमें देवत्व की सुसंस्कारिता विद्यमान है, वे देवमानवों की तरह जीते हैं। पुरुष से पुरुषोत्तम और नर से नारायण बनते हैं। विभूतियों को परमार्थ और नर से नारायण बनते हैं। विभूतियों को परमार्थ-प्रयोजन के लिए, स्वयं को युग धर्म के निर्वाह के लिए खपाते हैं। वे बीज के रूप में गलते और कल्पवृक्ष की तरह फलते हैं। अखंड ज्योति परिजनों में से अधिकांश ऐसी ही स्थिति में है। अपने संपर्क-क्षेत्र में वे संभवतः साधारण माने जाते हो; पर दिव्यदृष्टि से उनकी विशिष्टता प्रकट हुए बिना नहीं रहती।
अगले दिन कठिन समस्याओं और संकटों से भरे हैं। उन्हें संघर्ष किए बिना निपटाया नहीं जा सकता। यह महामारी ऐसी नहीं है, जिसके लिए उपचारकर्त्ताओं की आवश्यकता न पड़े और अनायास ही निपट जाए। इस मुहीम पर अनेकों को मोर्चा संभालना पड़ेगा। इससे पूर्व अपनी निजी स्थिति को इतनी सुदृढ़ बनाना पड़ेगा कि वह जहाँ भी गिरे इंद्रवज्र जैसा धमाका करे। जहाँ जमे गंगावतरण जैसा दृश्य उपस्थित करके उठे।
केंद्रीय प्रयास द्वारा जागृत महाकुंडलिनी का लाभ हर आवश्यकता के अवसर पर अपना चमत्कार दिखा सके, इसके लिए आवश्यक है, इस सहकारी समिति के प्रज्ञा मंडली के हर सदस्य के पास कुछ कारगर गोला-बारूद हो। प्रयोजन समझते हुए यह आवश्यक समझा गया है कि सभी साथी इस नव उपार्जित अध्यात्म संपदा में भागीदार बन जाएँ, एक पर आश्रित न रहा जाए और अनेकों में वह समर्थता भरी जाए जिससे असंख्य क्षेत्रों में अनेक प्रकार की अनेक समस्याओं का समाधान करने के लिए अनेक देवयोद्धा कटिबद्ध खड़े मिल सकें। सेनापति की सूझ-बूझ भंडारना कितनी ही बड़ी क्यों न हो, पर मोर्चे पर जूझते तो विभिन्न योग्यताओं और साधन-उपकरणों वाले सैनिक ही हैं। रक्षा विभाग के सभी संचित सघन सैनिकों की क्षमता बढ़ाने में और आवश्यकता के समय उपकरणों को हाथों में थमाने में संकोच नहीं किया जाता। संचित तपश्चर्या का अब वितरण-विकेंद्रीकरण चलेगा। इसमें उन सभी को भाग लेने का निमंत्रण है, जो संयम-साधना के द्वारा अपना उदात्तीकरण करने में व्रतशील हो सकें। पानी कितना ही क्यों न बरसे पर गड्ढे, तालाब, सरोवर में उसकी गहराई-चौड़ाई के अनुसार ही जल जमा होता है। देने वाले की उदारता या संपदा बढ़ी-चढ़ी होना ही सब कुछ नहीं है। प्राप्तकर्ता में उसे पचाने की सामर्थ्य भी होनी चाहिए अंयथा अनावश्यक मात्रा में पकवान खाने पर वे पेट खराब ही करते हैं। हाथ लगी दौलत दुर्व्यसनों में चोर-ठगों में बँट जाती हैं। कुंडलिनी जागरण का विधि-विधान अति कठिन है। उनमें तनिक भी व्यतिक्रम रहने पर खतरे भरे जोखिम भी हैं। फिर उसके लिए भी तपश्चर्या करने वाली संयम-साधना तो अनिवार्य है ही, समय भी लगता है। जो कार्य केंद्र में तीन वर्ष में हुआ है उसे निजी रूप में करने पर सामांय साधकों को न्यूनतम पचास वर्ष तो धैर्यपूर्वक लगाना ही चाहिए। इतना समय निकलना, उपयुक्त स्थान में रहना अनुकूल मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना कठिन है। इसलिए इस आपत्तिकाल में कुंडलिनी जागरण की व्यक्तिगत साधना कठिन तो नहीं बन पड़ेगी, पर उतना ही लाभ इस वितरण व्यवस्था के आधार पर उठाया जा सकता है, जो इसी बसंत पूर्व से आरंभ कर दी गई है। यह अनुदान लेना उन्हीं को चाहिए, जो उसका उपयोग परमार्थ में कर सकें। परमार्थी का स्वार्थ तो उसी प्रकार सधता रहता है जिस प्रकार मेंहदी पीसने वाले के हाथ लाल हो जाते हैं, इत्र का व्यवसाय करने वाले के कपड़े अनायास ही महकने लगते हैं। परमार्थी को आत्मसंतोष लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह के तीन लाभ तो सदा-सर्वदा मिलते रहते हैं और मिलते रहेंगे। वितरण अनुदान को ग्रहण करने का तरीका अत्यंत सरल है। प्रातः सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से लेकर एक घंटे बाद तक का समय इस ऊर्जा-प्रवाह को सभी दिशाओं में बहाने का समय है। इस समय में से कोई भी पंद्रह मिनट का समय अपने अधिक ग्रहण के लिए निश्चित किया जा सकता है। उस समय ध्यान और प्राणायाम की समंवित विधि अपनाई जाए। साँस को धीमी गति से इस प्रकार खींचा जाए कि पेट और फेफड़े पूरी तरह भर जाएँ। फिर धीरे-धीरे उस संचित वायु को इस प्रकार निकाला जाए कि पूरी वायु बाहर निकल जाए। यह पूरक-रेचक हुआ। इस अवसर पर रोकने की “कुम्भक” की आवश्यकता नहीं। प्राण-प्रक्रिया के साथ-साथ ध्यान-धारण भी जुड़नी है। प्रभाव कालीन स्वर्णिम सूर्य हिमालय से उदय होता हुआ आंखें बंद करके भाव नेत्रों से देखा जाए। प्राणायाम के साथ उदीयमान सूर्य की प्राण-ऊर्जा अपनी समग्र सत्ता में ओत-प्रोत हुआ विश्वास माना जाए।
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केंद्रीय प्रयास द्वारा जागृत महाकुंडलिनी का लाभ हर आवश्यकता के अवसर पर अपना चमत्कार दिखा सके, इसके लिए आवश्यक है, इस सहकारी समिति के प्रज्ञा मंडली के हर सदस्य के पास कुछ कारगर गोला-बारूद हो। प्रयोजन समझते हुए यह आवश्यक समझा गया है कि सभी साथी इस नव उपार्जित अध्यात्म संपदा में भागीदार बन जाएँ, एक पर आश्रित न रहा जाए और अनेकों में वह समर्थता भरी जाए जिससे असंख्य क्षेत्रों में अनेक प्रकार की अनेक समस्याओं का समाधान करने के लिए अनेक देवयोद्धा कटिबद्ध खड़े मिल सकें। सेनापति की सूझ-बूझ भंडारना कितनी ही बड़ी क्यों न हो, पर मोर्चे पर जूझते तो विभिन्न योग्यताओं और साधन-उपकरणों वाले सैनिक ही हैं। रक्षा विभाग के सभी संचित सघन सैनिकों की क्षमता बढ़ाने में और आवश्यकता के समय उपकरणों को हाथों में थमाने में संकोच नहीं किया जाता। संचित तपश्चर्या का अब वितरण-विकेंद्रीकरण चलेगा। इसमें उन सभी को भाग लेने का निमंत्रण है, जो संयम-साधना के द्वारा अपना उदात्तीकरण करने में व्रतशील हो सकें। पानी कितना ही क्यों न बरसे पर गड्ढे, तालाब, सरोवर में उसकी गहराई-चौड़ाई के अनुसार ही जल जमा होता है। देने वाले की उदारता या संपदा बढ़ी-चढ़ी होना ही सब कुछ नहीं है। प्राप्तकर्ता में उसे पचाने की सामर्थ्य भी होनी चाहिए अंयथा अनावश्यक मात्रा में पकवान खाने पर वे पेट खराब ही करते हैं। हाथ लगी दौलत दुर्व्यसनों में चोर-ठगों में बँट जाती हैं। कुंडलिनी जागरण का विधि-विधान अति कठिन है। उनमें तनिक भी व्यतिक्रम रहने पर खतरे भरे जोखिम भी हैं। फिर उसके लिए भी तपश्चर्या करने वाली संयम-साधना तो अनिवार्य है ही, समय भी लगता है। जो कार्य केंद्र में तीन वर्ष में हुआ है उसे निजी रूप में करने पर सामांय साधकों को न्यूनतम पचास वर्ष तो धैर्यपूर्वक लगाना ही चाहिए। इतना समय निकलना, उपयुक्त स्थान में रहना अनुकूल मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना कठिन है। इसलिए इस आपत्तिकाल में कुंडलिनी जागरण की व्यक्तिगत साधना कठिन तो नहीं बन पड़ेगी, पर उतना ही लाभ इस वितरण व्यवस्था के आधार पर उठाया जा सकता है, जो इसी बसंत पूर्व से आरंभ कर दी गई है। यह अनुदान लेना उन्हीं को चाहिए, जो उसका उपयोग परमार्थ में कर सकें। परमार्थी का स्वार्थ तो उसी प्रकार सधता रहता है जिस प्रकार मेंहदी पीसने वाले के हाथ लाल हो जाते हैं, इत्र का व्यवसाय करने वाले के कपड़े अनायास ही महकने लगते हैं। परमार्थी को आत्मसंतोष लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह के तीन लाभ तो सदा-सर्वदा मिलते रहते हैं और मिलते रहेंगे। वितरण अनुदान को ग्रहण करने का तरीका अत्यंत सरल है। प्रातः सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से लेकर एक घंटे बाद तक का समय इस ऊर्जा-प्रवाह को सभी दिशाओं में बहाने का समय है। इस समय में से कोई भी पंद्रह मिनट का समय अपने अधिक ग्रहण के लिए निश्चित किया जा सकता है। उस समय ध्यान और प्राणायाम की समंवित विधि अपनाई जाए। साँस को धीमी गति से इस प्रकार खींचा जाए कि पेट और फेफड़े पूरी तरह भर जाएँ। फिर धीरे-धीरे उस संचित वायु को इस प्रकार निकाला जाए कि पूरी वायु बाहर निकल जाए। यह पूरक-रेचक हुआ। इस अवसर पर रोकने की “कुम्भक” की आवश्यकता नहीं। प्राण-प्रक्रिया के साथ-साथ ध्यान-धारण भी जुड़नी है। प्रभाव कालीन स्वर्णिम सूर्य हिमालय से उदय होता हुआ आंखें बंद करके भाव नेत्रों से देखा जाए। प्राणायाम के साथ उदीयमान सूर्य की प्राण-ऊर्जा अपनी समग्र सत्ता में ओत-प्रोत हुआ विश्वास माना जाए।
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