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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देवताओं का स्वर्ग धरती पर भी

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उत्कृष्ट और निकृष्ट सिद्धांतों की जानकारी सर्वसाधारण को अनायास ही होती है। अंतःकरण की आत्मचेतना पाप और पुण्य की विवेचना कर सकने में भली प्रकार समर्थ है। इसका वर्गीकरण-विश्लेषण कर सकना अपनी अंतरंग विशेषता है। किसी असत्यवादी से पूछा जाए कि सत्य बोलना ठीक है या झूठ बोलना, तो वह जनसाधारण के सामने सत्य बोलने का ही समर्थन करेगा, भले ही वह स्वयं झूठ बोलने का ही व्यवसाय-आचरण क्यों न करता हो? व्यभिचारी भी यह नहीं चाहते कि उनकी स्त्री या पुत्री इस अनौचित्य को अपनाए। कोई व्यक्ति अपने यहाँ चोर नौकर नहीं रखना चाहता, चाहे वह स्वयं चोरी करने का ही अभ्यस्त क्यों न हो? नशेबाज भी अपनी संतान को नशा न पीने की शिक्षा देता है। दूसरों को हर व्यक्ति अच्छी ही शिक्षा देता है। परामर्शों और प्रवचनों में आदर्शवादी रीति-नीति का ही सहारा लिया जाता है, ताकि सुनने वाले उसे सदाचारी एवं भला मानुष समझे। इस प्रकार की मनोभूमि रखते हुए जो सोचा जाता है, जो किया जाता है, उसमें सुख, चैन, शांति, संतोष की अनुभूति होती रहती है। पवित्र अंतःकरण गंगास्नान से परिशुद्ध हुई स्थिति में रहता है। जिसका चरित्र-चिंतन-व्यवहार, उत्कृष्ट आदर्शवादिता से समन्वित है, उसे अंतरंग से उभरते उल्लास की अनुभूति होती है। इसके साथ ही यदि पुण्य-परमार्थ का क्रियाकलाप में समावेश है; दूसरों की भलाई के लिए अपने से कुछ करते-धरते बन पड़े, तो वह बीजारोपण वर्षा ऋतु में सहज अंकुरित होने वाली हरीतिमा की तरह अपनी शोभा-सुषमा से समूचा वातावरण भर देता है। क्रिया की प्रतिक्रिया चल पड़ती है। सेवा-साधना का बीजारोपण कुछ ही समय में सुरम्य उद्यान की तरह विकसित हुआ दिख पड़ता है।

परमार्थी जीवन चंदनवन की तरह महकता है और समीपवर्त्ती झाड़-झंखाड़ों को भी सुवासित कर देता है। परमार्थी जीवन कल्पवृक्ष की तरह पल्लवित होता है। उसकी छत्रछाया में बैठने वाले अपनी तृष्णा-लिप्साओं की दरिद्रता से छुटकारा पाते हैं। परमार्थी जीवन स्वाति बूँद की तरह बरसता है। उसका संपर्क जिससे भी सधता है, वह सीप में मोती, बाँस में वंशलोचन, केले में कपूर उत्पन्न करता है। दूसरों के लिए लाभ देते रहने की प्रक्रिया तो प्रत्यक्ष ही है। इसके अतिरिक्त कर्त्ता का निज का जीवन अंतरंग की तृप्ति, तुष्टि और शांति से भर देने के अतिरिक्त ऐसी स्थिति में रहने लगता है, जिसे देवोपम कहा जा सके।

देवता स्वर्ग में रहते हैं। वे न वृद्ध होते हैं न रोगी, जरा-मृत्यु भी उन्हें नहीं सताती। उनकी आयु युवकों जितनी बनी रहती है, उसके पास दूसरों को देने के लिए कुछ होता है। यह विवरण अलंकारिक है, अन्यथा इस परिवर्तनशील विश्व-ब्रह्मांड में कोई भी पदार्थ या प्राणी ऐसा नहीं, जो परिवर्तन चक्र से प्रभावित न होता हो, सदा एक जैसी स्थिति में ही बना रहता हो। अवतार समय-समय पर हुए हैं, पर उनमें से एक भी अब जीवित स्थिति में नहीं है। समय उन सब को भी अपनी झोली में समेट ले गया, फिर देवात्माओं को ही इस उपक्रम में अपवाद करने का अवसर कहाँ मिल सकता है? सूर्य, चंद्र तक समयचक्र के अनुसार अपने आदि-अंत के साथ जुड़े हुए हैं। फिर देवात्माएँ ही क्यों कर जरा-जीर्ण न होंगी? कैसे सदा युवा शरीर धारण किए रहेंगी? कैसे मृत्यु के चंगुल से बची रहेंगी? यह संभव नहीं। किंतु अलंकार की दृष्टि से यह प्रतिपादन सही है। उनकी मनःस्थिति आशाओं से, उमंगों से, सक्रियता से, तत्परता से भरी रहती हैं, उसमें बुढ़ापे के कारण भी अंतर नहीं आता। शारीरिक अवयव दुर्बल पड़ जाते हैं, किंतु मनस्वी के मनोबल में इससे अंतर नहीं आता। कितने ही शतायु व्यक्ति ऐसे हुए हैं, जो जीवन के अंतकाल तक आशाओं से, उमंगों से भरे रहे। उनका मनोबल ठीक काम करता रहा। शरीर कुछ क्षीण हो गया, तो श्रमशील में थोड़ा-बहुत अंतर आया, पर उससे कुछ विशेष हानि नहीं होती। शारीरिक श्रम का मूल्य ही कितना है? उसे तो पैसे के बल पर श्रमिकों, स्वजन-संबंधियों से भी पूरा कराया जा सकता हैं। अंधे हो जाने पर भी कर्मचारी की सहायता से पढ़ने-लिखने का आने-जाने का अधिकांश काम चलता रह सकता है। सूरदास ने आँखें चली जाने के उपरांत अपनी रचनाएँ आरंभ की और इतना साहित्य सृजा, जिसके कारण उन्हें काव्य-क्षेत्र का सूर्य कहा जाने लगा। देवता सदा तरुण रहते हैं। वृद्ध नहीं होते, मुसकाते रहते हैं, उदासी-मलीनता चेहरे पर फटकती नहीं। यह सभी कथन उन लोगों की मनोदशा को देखते हुए यथार्थ सिद्ध होते हैं, जिन्हें जीवन का प्रत्येक क्षण सरस प्रतीत होता है और उसे तत्परता, तन्मयता के साथ सत्प्रयोजनों में नियोजित किए रहते हैं। गांधी, नेहरू, बुद्ध, कबीर, विनोवा आदि अस्सी पार कर चुके थे, पर उनकी तेजस्विता में अंतिम दिनों तक कोई अंतर नहीं आया।

देवता मरते नहीं; यह कथन उनके स्थूलशरीर पर तो नहीं; पर सूक्ष्मशरीर पर भली-भाँति लागू होता है। उनका यशस्वी जीवन हर किसी के लिए अनुकरणीय और अभिनंदनीय होता है। हरिश्चंद्र, भागीरथ, दधिचि, हनुमान, जैसों को मृतकों की श्रेणी में गिनकर उपेक्षा के गर्त्त में डाला नहीं जा सकता। वे इतिहास के पृष्ठों पर अपना अस्तित्त्व स्वर्णाक्षरों में अंकित कराए जाने जैसे स्थिति में अनंतकाल तक बने रहते हैं। इसके अतिरिक्त उनका सूक्ष्मशरीर कामना-वासनाओं के दबाव से मुक्त हो जाने के कारण जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने के लिए बाधित नहीं होता। वे भगवान के पार्षद की स्थिति में रहकर रिजर्व फोर्स की स्थिति में बने रहते हैं। जब कभी विश्व-व्यवस्था में गड़बड़ी फैलती है, तो उसे सुधारने-संभालने के लिए अवतारी महामानवों की तरह भेजे जाते हैं। वे संत, सुधारक और शहीद की महती भूमिका संपन्न करते हैं, यह कार्य वे जन्म लेकर स्थूलशरीर धारण करके भी कर सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि अदृश्य रहकर व ऋतु-प्रभाव की तरह वातावरण बदलें और बनाएँ। ऋतुएँ दीखती नहीं, उनका शरीर नहीं होता तो भी अपने पराक्रम का असाधारण परिचय देती हैं। वर्षा, शीत, बसंत, ग्रीष्म का आगमन अपने-अपने समय पर अपने प्रभाव-पराक्रम से जन-जन को अवगत कराता है। देवात्मा यदि स्थूलशरीर धारण न भी करे, तो भी उनका प्रभाव आँधी-तूफान की तरह प्रकट होता है और परिस्थितियों को उलट-पुलटकर रख देता है। ऐसी प्रभाव-प्रेरणा को देखते हुए उन्हें भवबंधनमुक्त या अजर-अमर कहा जाए, तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

देव नाम से उन्हें संबोधित इसलिए किया जाता है कि वे सदा दूसरों को देने की ही बात सोचते हैं। उनके पास पदार्थ, संपदा होती है, तो उसे देते हैं। अन्यथा वैभव तो मनुष्य अपने बाहुबल और बुद्धिबल से भी कमा लेता है, जो सहज नहीं मिल पाता, वह है— दिव्य-प्रेरणाओं से भरा-पूरा मार्गदर्शन एवं उन्हें कार्यान्वित कर सकने का दूरदर्शी विवेक एवं सत्साहस। आदर्शवादिता का दिव्य प्रकाश। यह देवसमुदाय द्वारा ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदान किया जाता है। जो देते हैं, वे देवता। जो लेते हैं, वे लेवता। लेवता दूसरों से पाने, माँगने, छीनने की ही कुचेष्टा में लगे रहते हैं। देवताओं की भूमिका उनसे सर्वथा विपरीत होती है।

देवताओं का पारस्परिक व्यवहार, स्वच्छता ,व्यवस्था, प्रसन्नता, सद्भावना का क्रियाकलाप ऐसा होता है कि वे जिस भी स्थिति में, जहाँ भी रहें, वहाँ का वातावरण स्वर्गोपम हो जाता है। यही है देवात्माओं का स्वर्गसृजन, जिसकी छत्रछाया में सभी आनंद पाते हैं।

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