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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सद्भावना-संवर्द्धन की पुण्य प्रक्रिया:- अग्निहोत्र

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शक्तियों के संबंध में अभी लोगों का ध्यान उन्हीं की ओर गया है, जो प्रत्यक्ष हैं। धन, शस्त्र, बल और कौशल इन्हीं को सब कुछ समझा जाता है और इन्हीं के संवर्द्धन पर समाज के, शासन के मूर्धन्य लोगों का ध्यान केंद्रित है। गरीबी दूर करने हेतु बड़े-बड़े कलकारखाने, सुरक्षा हेतु शस्त्र बनाने व खरीदने की प्रक्रिया तथा स्वास्थ्य-संवर्द्धनहेतु चिकित्सकों, चिकित्सालयों व औषधियों के निर्माण हेतु बहुत कुछ हो रहा है। सामान्य जनशिक्षा की दिशा में भी बहुत कुछ हो रहा है। ये सभी प्रत्यक्ष शक्तियाँ है, जिनका महत्त्व समझा और अभिवृद्धि के लिए भरसक प्रयास किया जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अभिवर्धन से हमारी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी होगी।

परंतु मनुष्य मात्र भौतिक ही नहीं है, उसके भीतर आध्यात्मिक-संपदा भी अच्छी खासी मात्रा में है। वह परोक्ष होते हुए, भी भौतिक सामर्थ्यों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। चिंतन, चरित्र और भावनाएँ यह तीनों व्यक्ति की भीतरी शक्तियाँ हैं। इनके बल पर व्यक्ति और समाज ऊँचे उठते हैं। यदि इनमें खोखलापन आ जाए तो भौतिक सामर्थ्यों की प्रचुरता होते हुए भी सब कुछ गुड़-गोबर हो जाएगा।

आदर्शविहीन, आस्थाविहीन मनुष्य बेपैंदी के लोटे के समान होते हैं, जो आकर्षण और दबाव के आगे किसी भी ओर झुक सकते हैं। अनीति का समर्थन भी हो सकता है और कायरता अपनाकर औचित्य का परित्याग भी किया जा सकता है। आदर्शों के प्रति निष्ठा में वह शक्ति है, जिसके सहारे साधनविहीन व्यक्ति भी बड़ी से बड़ी हिम्मत कर सकता है और गांधी-विनोबा की तरह वह कर सकता है जो चमत्कार जैसे प्रतीत होते हैं।

विचारों की अपनी शक्ति है; जिनमें प्रजातंत्र और साम्यवाद जैसे असंभव लगने वाले प्रचलनों को संभव कर दिखाया। राजसामंतों की जड़े पाताल तक गहरी घुसी हुई प्रतीत होती थीं। पर वह उलटकर औंधी हो गई। दास-दासियों की खरीद-फरोख्त अब कहाँ होती है? छूत-अछूत का चक्कर अपना दम तोड़ रहा है। आर्थिक विषमता के विरुद्ध प्रत्यक्ष आंदोलन और परोक्ष ईर्ष्या, आतंकवाद का जन्म हो रहा है। विचारों की आत्मिक संपदा ऐसी है जिसके समर्थ रहने पर जापान और इजराइल जैसे छोटे-देश बड़े-बड़ों के कान काट रहे हैं। विचार-क्षेत्र में जो क्रांतियाँ चल रही हैं, उनके सही और गलत रूप कभी-कभी देखने को मिलते रहते हैं।

इन सबसे भी बढ़ी-चढ़ी शक्ति है— भावना। इसी के ऊपर देश, धर्म, समाज, संस्कृति, दया,करुणा, पुण्य, परमार्थ, संयम सदाचार आदि की आधारशिला रखी हुई है। यदि भावनाओं का लोप हो जाए तो मनुष्य या तो पशु हो सकता है, या पिशाच। उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, उदारता के पक्ष में कोई तर्क या तथ्य शेष न रह जाएगा। बहिन और पत्नी के बीच जो अंतर है, उसका समर्थन न हो सकेगा। वयोवृद्ध की सेवा करने की अपेक्षा अर्थशास्त्र के आधार पर उन्हें कसाईखाने के सुपुर्द करना पड़ेगा।

अध्यात्म और धर्म की समूची आधारशिला भावनाओं के ऊपर रखी हुई है। उसे सक्षम बनाए रहने के लिए तत्त्वज्ञान, दर्शन और धर्म का समूचा ढाँचा खड़ा किया गया है। भावना की शक्ति पत्थर में से भगवान प्रकट कर सकती है। वह न रहे तो भगवान भी पत्थर हो जाएगा और परमार्थ स्वार्थ के बीच अंतर कर सकना कठिन हो जाएगा। भावना के ऊपर यह सारा समाज टिका हुआ है और साथ ही मनुष्य का गौरव भी। इतना ही नहीं, उसकी अपनी शक्ति भी है, प्रेरणा भी देशभक्ति एवं पुण्य-परमार्थ के नाम पर मनुष्य अपना सब कुछ दान कर बैठता है। भक्ति भावना में तल्लीन होकर शरीर की सुध-बुध खो बैठता है। झाड़ी में से भूत निकल पड़ता है और प्राण लेकर हटता है। भय और आशंका से ग्रस्त  होने  पर नींद हराम हो जाती है। निराश व्यक्ति जीवन की लाश भर ढोता है। भावना ही है, जिसके कारण बालक माता के पेट में स्थान पाते दूध पीते और उसकी सेवा से लाभ उठाते हैं। यदि भावनाएँ निकल जाँए तो यह संसार नीरस और श्मशान के तुल्य भयानक प्रतीत होगा।

कहा जा चुका है कि भावनाओं को जीवंत रखने के लिए आध्यात्मिक साधनों और धार्मिक क्रियाकांडों का ढाँचा खड़ा किया गया है और उसे जीवंत रखा गया है। यज्ञ भी उनमें से एक है। वह हमारे विचार, व्यवहार और आचरण में सम्मिलित होकर वैसे फलितार्थ उत्पन्न करता है; जिसके गुणगान गाते-गाते शास्त्रकार और आप्तजन थकते नहीं है।

इन पंक्तियों में यज्ञ के कर्मकांड की वैज्ञानिकता पर प्रकाश नहीं डाला जा रहा है; वरन् यह कहा जा रहा है कि उसकी शक्ति सामर्थ्य, श्रद्धाभावना को बढ़ाती है एवं उस प्रयोग के चमत्कार दिखाती है।

यज्ञाग्नि को परमात्मा का मुख माना गया है, जिसमें जो कुछ डाला जाता है उसे तत्काल ग्रहण कर लिया जाता है। प्रतिमाओं को भोग लगाने में वस्तुएँ जहाँ की तहाँ रखी रहती हैं। यज्ञ की साक्षी में किए गए कार्यों के संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि इसमें देवसाक्षी सम्मिलित हो गई और निर्धारण पत्थर की लकीर हो गया। विवाह में पति-पत्नी अग्नि की परिक्रमा करके विश्वास करते हैं कि जन्म-जन्मांतरों के लिए एकदूसरे के साथ वैसे ही जुड़ गए हैं, जैसे कि वैल्डिंग द्वारा धातुओं को एक साथ जोड़ दिया जाता है।

इसमें भावनाप्रधान है। बच्चों के संस्कार होते हैं। नामकरण, अंन प्राशन, मुँडन, विद्यारंभ आदि में यज्ञ के बिना पूर्णता नहीं आती। यज्ञोपवीत का तो नामकरण ही इस आधार पर हुआ है कि यज्ञाग्नि के इस प्रतीक-प्रसाद को कंधे पर, हृदय पर कलेजे पर, लपेटकर मनुष्य तादात्म्य बनता है और नर-पशु से नर-देव बनने की द्विजत्व की संकल्पपूर्वक अवधारण करता है। वानप्रस्थ प्रभूति संस्कारों में भी यही ध्यान आजीवन रखा जाता है कि लोकमंगल और आत्मकल्याण के लिए जीवन समर्पित करने का जो व्रत लिया गया है, उसे आजीवन निवाहा जायेगा।

मरने के उपरांत शरीर को चिता में समर्पित किया जाता है वह भी अन्त्येष्टि यज्ञ है। उसमें मंत्र बोले जाते है, जिनका अर्थ होता है—  हमार प्राण यज्ञ प्रयोजनों में लगा रहे और जिस शरीर से आजीवन प्यार किया है उसे भी यज्ञाग्नि की गोद में समर्पित करते हैं। वह हमारा जीवन-मरण का साथी है।

होली का त्यौहार प्रसिद्ध है। उसका वर्तमान स्वरूप तो कूड़ा, कचरा जला देना जैसा है; पर वस्तुतः वह नवांहयज्ञ है। खेतों में फसल जब तक पक कर तैयार होती है तब स्वयं उसका उपयोग करने के स्थान पर सर्वप्रथम सामूहिक होलिका के रूप में यजन करते हैं। कच्चे अन्न को ही होली कहते हैं। यह उस उक्ति का क्रियान्वयन है कि यज्ञ से बचा हुआ ही खाना चाहिए। इसका सीधा अर्थ होता है कि प्रथम-परमार्थ को प्रश्रय दिया जाए। बाद में पेट भरने की बात सोची जाए। यह मांयता भारतीय देव संस्कृति की मूलभूत भावनाओं का स्मरण कराती है और उसे अपनाने की प्रेरणा देती है।

सभी शुभकर्म यज्ञ के साथ संपंन होते हैं। पितरों की सद्गति के लिए उनका आयोजन किया जाता है। नित्यकर्म में पंचयज्ञ-विधान सम्मिलित है। भले ही उसकी चिह्न पूजा चूल्हे में पाँच छोटे ग्रास होमकर बलिवैश्व के रूप में कर ली जाए; पर उस माध्यम से इस तथ्य का स्मरण किया जाता है कि अपने खाने से पहले पिछलों की अपनी कमाई में साझेदारी स्वीकार की जाए। सत्प्रयोजनों की सहायता करने में यदि अपने ग्रास कम करने पड़े तो उसके लिए भी तैयार रहा जाए। पेट भरना आवश्यक है। किंतु उससे भी बड़ी बात है, पारमार्थिक भावनाओं को जीवित रखना। इसके लिए प्रतीक रूप में कुछ क्रिया-कृत्य करते रहा जाए ताकि दायित्वों का विस्मरण न होने पाए।

यज्ञ एक दर्शन है। उसके साथ पारमार्थिक भाव-संवेदनाएँ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। हमें प्रतीक पूजन के साथ आदर्शों को भी जीवन चर्या के साथ जोड़कर रखना चाहिए, जो सद्भावना, संयम, उदारता के रूप में आहुतियाँ देते हुए कार्यांवित की जाती हैं। इस आधार पर ही मनुष्य सच्चे अर्थों में गौरवशाली एवं सशक्त बनता है।

यज्ञीय क्रिया-कृत्य में जितनी तकनीक है उससे कहीं अधिक भाव-श्रद्धा का समावेश होता है। प्रयोग में आने वाली हर वस्तु को अभिमंत्रित किया जाता है। हवनकुंड, समिधा, शाकल्य, धृतपात्र यहाँ तक कि विभिन्न कार्यों में काम आने वाले जल तक को अभिमंत्रित किया जाता है। वह पानी नल या कुएँ से उसी प्रकार उपलब्ध नहीं किया जाता, जैसे कि पीने, नहाने, कपड़ा धोने आदि के लिए प्राप्त किया जाता है। किसी पवित्र सरोवर या जलाशय तक पीतवस्त्रधारी महिलाएँ रंगे हुए घट लेकर जाती है और जलाशय पर पूजा उपचार करके उस जल को देवप्रसाद मानकर यज्ञमंडप में लाती हैं। कुंड का गड्ढे की तरह उपयोग नहीं किया जाता; वरन् उसके पंच भू संस्कार करके इस योग्य बनाया जाता है कि यज्ञ के निमित्त स्थापित की गई देव अग्नि को उस पवित्र आसन पर स्थापित किया जा सके।

आहुति देने वालों को स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर सम्मिलित होना आवश्यक है। जब यज्ञमंडप में प्रवेश किया जाता है तब फिऱ एक बार पैर धोने पड़ते हैं। होताओं के लिए व्रत उपवास एवं ब्रह्मचर्य का अनुशासन है। कोई वस्तु या कृत्य जो यज्ञ के संदर्भ में प्रयुक्त होती है, उसे श्रद्धाभावनाओं एवं पवित्र मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है।

यज्ञप्रक्रिया में कोई भी विधि-विधान ऐसे नहीं है; जिसे उद्देश्यहीन कहा जा सके। पूजा की वेदी पर महादेवता की स्थापना हो जाती है। प्राणप्रतिष्ठा के साथ वे सभी उपचार संपंन किए जाते हैं; जो किसी मान्य अतिथि के आगमन पर किए जाते हैं। यह सारे विधान इस निमित्त हैं कि प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं का श्रद्धासिक्त बनाया जाए और जो होता, यजमान, आचार्य, उद्गाता, अध्वर्यु आदि इस अनुशासन को संभालते हैं उन्हें अपने आपको देवोपम स्थिति में रखना होता है।

यह बाह्य एवं आभ्यांतरिक पवित्रीकरण से जुड़ा श्रद्धा-संयोजन ही यज्ञ का प्राण है। यजन प्रक्रिया किसी गढ्ढे में हवन सामग्री डालकर, जलाकर चिह्नपूजा के रूप में नहीं की जाति, बल्कि उसे हर विधि-विधान द्वारा उस प्रयोजन की पूर्ति की जाति है, जिसके लिए यज्ञ किया गया है। यज्ञ अर्थात संघबद्ध होकर किया गया एक उच्चस्तरीय परमार्थ-प्रयोजन, जो अंतर्जगत् में दिव्यता के समावेश की प्रक्रिया पूरी करता है।

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