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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सूर्योपासना कब और कैसे?

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आस्तिकजनों की प्राचीनतम उपासना का पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि भगवान के दृश्य प्रतीकों में सर्वप्रथम मान्यता सूर्य को प्राप्त हुई। वह प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान भी है। अंयान्य देवताओं के नामरूप कल्पित हैं। जिस आकार-प्रकार में उनका वर्णन हुआ है, वैसा कहीं प्रत्यक्ष दृश्यमान नहीं होता। प्रतिमाएँ उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर कल्पित एवं विनिर्मित की गई हैं। यही कारण है कि अंयान्य देवताओं के मुखमंडल, वाहन, आयुध, परिधान, आच्छादन आदि में अंतर मिलता है। किंतु सूर्य के प्रत्यक्ष उदीयमान रहने के कारण उसका आकार सुस्थिर रखा गया है। पुरातनकाल से लेकर अद्यावधि सूर्य प्रतीकों में कोई अंतर नहीं पड़ा हैं।

सूर्य को चतुर्भुजी माना गया है। यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का प्रतीक है। चार वर्ण और चार आश्रम भी इन्हें कहा जा सकता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश और गणेश यह चार देव भी सूर्य की चार भुजाओं में समाहित हैं।

एक चक्र का रथ प्रकारांतर से सुदर्शनचक्र है। इसे विश्वव्यापी गतिशीलता कह सकते है। ऊर्जा का शक्तिस्रोत भी यही है। भगवान का प्रधान आघु सुदर्शनचक्र है। विश्व-ब्रह्मांड, सौरमंडल, परमाणु-परिभ्रमण का चक्र इसी आधार पर गतिशील है। भ्रमण से शक्ति उत्पन्न होने का सिद्धांत पदार्थ विज्ञानियों को भी मान्य है। उत्पादन, अभिवर्धन, परिवर्तन का एक सुनियोजित चक्र है, जिसके अनुसार प्राणियों, वनस्पतियों एवं पदार्थों का उत्पादन-विसर्जन होता रहता है। अस्त्रों में वे ही अधिक शक्तिशाली होते हैं, जिनके पीछे भ्रमणगति काम करती है। जिन दिनों रण-क्षेत्र पर हाथियों का प्रभुत्व था, उन दिनों उसकी सूंड से लोहे की जंजीर बाँध दी जाती थी। वह उसे घुमाता था और सामने उपस्थित शत्रु-समुदाय को तितर-बितर कर देता था। सौरमंडल और अंयान्य ग्रह-नक्षत्रों में यह गतिशीलता ही गुरुत्वाकर्षण से लेकर अनेकानेक प्रकार की क्षमताएँ उत्पन्न करती है, फलतः प्रकृति के अनेकानेक प्रकट-अप्रकट क्रियाकलाप गतिशील रहते है। भ्रमणशीलता के अद्भुत प्रवाह में यह ब्रह्मांड सतत् नियत निर्धारित गति से चल रहा है और अधर में लटका हुआ है।

सूर्य को सचेतन माना गया है— 'सविता'। उसका रथ कलेवर ही वह है, जो अंयान्य ग्रहों की भाँति गतिशील रहता है चमकता है, उदय-अस्त होता है, जिसे अग्निपिंड भी कहते हैं। यह कलेवर ही अरुण है, जो ऊषाकाल के उपरांत स्वर्णिम आभा के साथ उदय होता है।

सूर्यरथ में सातअश्व जुते हुए है। यह दिव्य अश्व हैं। इन्हें सप्तवर्ण भी कह सकते हैं। जिन्हें इंद्रधनुष दिखाई पड़ने पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। अनादिकाल में जब आदिम मनुष्य को दिनभर समूचे आकाश में एक सूर्य ही प्रकाशवान दिखा तो उसे विदित हुआ कि रात्रि के सघन अंधकार को यही भगाता है। दिख पड़ने वाली वस्तुओं को यह रूप देता है, शीत को भगाता है, वर्षा लाता है। उसकी गर्मी से अंडों से लेकर फल तक पकते है। उसकी अनुकूलता से ही बसंत आता है और धऱती पर हरीतिमा छाती है। जिस समय चारों ओर अंधकार और शीत का साम्राज्य होता है, उन दिनों विकास की हर दिशा-अवरुद्ध हो जाती है। इस प्रकार के अनेकानेक गुण तों प्रत्यक्ष ही हैं। जीवितों की भाँति वह चलता भी हैं। प्रातः उगना और रात्रि में अस्त होना मनुष्यों की तरह जब आदिमकाल से जब मनुष्य को दिख पड़ा, इसलिए उसे प्रत्यक्षदेव माना गया। प्रकृति की चित्र-विचित्र घटनाएँ जब सामान्य बुद्धि से न समझी जा सकीं तो उन्हें देवकृत ही माना जाने लगा और यहाँ तक समझा जाने लगा कि मनुष्य के जीवन में जो शुभ-अशुभ घटित होता है, उसके पीछे दैवी-अनुग्रह या आक्रोश ही निमित्त कारण है। बहुदैववाद की कल्पना पीछे जगी। विभिन्न प्रयोजनों के साथ विभिन्न देवताओं का संबंध पीछे जुड़ा; पर पहले एक से ही काम चलता रहा। सूर्य को ही एकमात्र सर्वशक्तिमान प्रत्यक्षदेव माना गया। जब बहुदैव मान्यता भी विकसित हुई तो भी सूर्य को देवाधिदेव सब प्राणियों और देवताओं की आत्मा उसे माना गया।

ऋग्वेद संसार में सबसे प्राचीन ग्रंथ है। उसमें आठ सूक्त सिर्फ सूर्य की प्रार्थना और विवेचना के संबंध में ही है। देव मांयताओं के साथ यह तथ्य भी जुड़ा कि उनकी पूजा, प्रार्थना से अपने अंदर दैवी गुण को समाविष्ट कर उन्हें अपने अनुकूल बनाया जा सकता है और अभिष्ट वरदान पाया जा सकता है। प्रत्यक्ष जीवन में  उस की अनेकानेक उपलब्धियों के साथ जब यह विश्वास बढ़ा कि उसकी पूजा से मनोकामनाएँ पूरी होती है, कठिनाइयाँ विपत्तियां दूर होती हैं, तो उसके साथ भक्ति-भावना का संबंध और भी सघन हो गया।

संसार में सूर्योपासना का प्रचलन सर्वोपरि है। सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख भी। जब वाणी द्वारा प्रार्थना, अभ्यर्थना करके ही उपासना का काम चलाया जाता था, तब गायत्री महामंत्र के शब्द समुच्चय को सूर्योपासना का प्रधान मंत्र माना गया। प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य स्वर्णिम होता है। जिस प्रकार नवागंतुक के आगमन के समय ही स्वागत सत्कार की परंपरा है, उसी प्रयोग को सूर्योपासना के लिए भी प्रयुक्त किया गया।

जब तक वाणी का विकास-परिष्कार नहीं हुआ था, जब तक संकेतों द्वारा अपना उपासना अभिप्राय: व्यक्त किया जाता था। यथा-सूर्यार्घ्यदान, सूर्योपस्थान, सूर्यनमस्कार, सूर्यस्नान, सूर्यसांनिध्य, सूर्य सेवन, सूर्यदर्शन, सूर्य-परिक्रमा आदि-आदि। यह सभी क्रिया-कृत्य ऐसे थे, जो जलाशय की समीपता में आसानी से हो सकते हैं। यहाँ तक कि सूर्य प्रभावित जल को सौम या अमृत की संज्ञा दी जाने लगी। उसका पान करके रोग-निवारण या दीर्घायुष्य की कामना की जाने लगी सूर्योदयकाल को पवित्र समय मानकर उपासना हेतु निर्धारित किया गया।

भूत-प्रेत, राक्षस, यक्ष आदि का भय आरंभिक युग में चल पड़ा था। समझा जाता था कि ये दुष्ट आत्माएँ रोग, भय, मनोविकार आदि के रूप में मानवमात्र को संत्रस्त करती हैं। उनका दौर सूर्य की अनुपस्थिति में ही चलता है। अस्तु उन्हें निशाचर वर्ग में गिना गया। मनुष्य में जो भी अपराधी-आततायी थे, उनके बारे में भी यही मान्यता रही कि इनकी घात अँधेरे में ही लगती है, इसलिए रात्रि में भी अंधकार को दूर करने के लिए दीपक या अग्निप्रज्ज्वलन का प्रचलन चला। पूजा उपचारों में भी इन प्रकाश प्रतीकों का प्रयोग होने लगा।

अखंड अग्नि ज्योति की स्थापना अखंड दीपकों का प्रज्ज्वलन, होम, यज्ञ, अग्निहोत्र की विद्या सूर्यपूजा के रूप में अपनाई गई। इन्हें अभिमंत्रित करने के लिए सावित्री मंत्र को परमशक्तिशाली माना गया। जब भाषा का प्राज्जल विकास हो चला तो गायत्री मंत्र का प्रयोग सूर्यउपासना के रूप में होने लगा। इससे पूर्व ‘ॐ शं सूर्याय नमः’ इतना कहकर ही काम चलाया जाता था। शं— सूर्य का बीज मंत्र है। इसे पूर्व गायत्री का छोटा रूप माना गया। ए और भी छोटा रूप गायत्री का है—’ हरि ॐ तत् सत्’ एक तीसरा प्रयोग है, मात्र तीन व्याह़तियों का उच्चारण “ॐ भूर्भुवः स्वः” इन लघु स्वरूपों का आश्रय इसलिए लेना पड़ा कि 24 अक्षरों और तीन पदों वाली गायत्री का उच्चारण करने के लिए भाषा संबंधी इसलिए जानकारी आवश्यक थी। साथ में व्याकरन के पद प्रत्ययों की भी इतना जान-पाना और स्मरन रखना उन दिनों सर्वसाधरण के लिए संभव न था। विद्वान लोग ही गायत्री मंत्र का उच्चारण-अवगाहन कर पाते थे। अशिक्षितों को संक्षिप्त शब्दावली से ही काम चलाना पड़ता है।

  सूर्य-साधना के संबंध में शास्त्रकार लिखते हैं —

"स्मरतां संध्ययोनृणं हरन्तं हो दिने दिने"

— भागवत्

अर्थात्— "दोनों संध्याओं के समय सूर्य का ध्यान करने से मनुष्य दिन-दिन पवित्र बनता जाता है।"

"संध्ययो अर्चयेत् सूर्य।"

  — सूर्यपुराण

अर्थात्— "दोनों उदय-अस्त की संध्याओं में सूर्य की उपासना करें। अंय प्रकार की उपासनाएँ न बन पड़ें तो कम से कम इतना तो प्रत्येक साधक को करना ही चाहिए।"

"प्रातर्भजामि सविता रमनन्त शक्तिं

पापैश्च शत्रु भय रोग हरं परं च "

अर्थात्— "अनंत शक्ति वाले सविता का प्रातःकाल स्मरण करना चाहिए। जो शत्रु भय तथा रोगों को हरने वाला परमतत्त्व है।"

"सूर्य सम्पूजयेनित्यं

सावित्रीं च जपत् तथा।

सूर्यार्ध्यं संधयोर्दद्यान्नम स्कूर्याच्च भास्करम्।"

अर्थात्— "सूर्य की नित्य पूजा करें, तथा गायत्री का जप करें। दोनों संध्याओं में अर्घ्य दें। भास्कर को नमस्कार करें।

संध्यावंदन के अनेक विधि-विधान हैं। वे कितने ही क्रिया-कृत्यों के साथ जुड़े हुए हैं, पर उन सब में सबसे संक्षिप्त और सरल यह है कि प्रातःसायं सूर्योपासना की जाए।"

" सूर्योदय यः सुमगहितः भास्करः

धृति प्रज्ञाँ च मेघाँ च सविन्दयते समहित"

—महाभारत

अर्थात्— " सूर्योदय के समय जो भगवान भास्कर की भली प्रकार उपासना करता है। वह धृति, मेधा और प्रज्ञा को प्रचूर-परिमाण में प्राप्त करता है।"

उद्यते नमः उदीयते नमः उदिताय नमः

अस्तंयेते नमो स्तमें प्यते 

अर्थात्— " उदय होने वाले को नमस्कार।  उदय करने वाले को नमस्कार ।उदीयमान को नमस्कार। अस्त होने वाले को नमस्कार। अस्त करने वाले को नमस्कार।अंधकार हरने वाले को नमस्कार। "

"अद्यादेवा उदिता सूर्यस्य निरहंस "

— ऋग्वेद 

अर्थात्— " हे उदीयमान सूर्य आप हमें पाप कर्मों से उबारें। सूर्यउपासना से अपने मनःक्षेत्र में ऐसा परिवर्तन होता है कि पापकर्मों से अनायास ही घृणा होने लगती है।"

"उद्यन्तमस्त यन्तमादित्य भभिध्यायन कुर्वन् सकलं भद्रयश्नुते "

—तैत्तरीय

अर्थात्— "उदय होते हुए, अस्त होते हुए सूर्य का ध्यान करें। इससे सब प्रकार के कल्याण होते हैं। "

अधिक लोग, एक ही समय, एक नियत-निर्धारित साधना करें, तो उसका अधिक प्रतिफल उपलब्ध होता है। इस्लाम धर्म में अजान देने, नमाज पढ़ने के नियत समय होते है। ईसाई धर्म में भी नियत समय पर ही प्रार्थनाएँ होती हैं। भारतीय धर्म संस्कृति में प्रातःकाल सूर्योदय के समय और सायंकाल सूर्यअस्त होने के समय के समय गायत्री मंत्र के माध्यम से जप-ध्यान करने पर बहुत जोर दिया गया है। नियत समय में अनुशासन पालने से उसका अधिक महत्त्व व सत्परिणाम माना गया है।

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