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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्राणाग्नि की ज्योति ज्वाला

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First 11 13 Last
कागज बड़ी संख्या में छपते और आये दिन रद्दी का पहाड़ खड़ा करते है। उसका प्रभाव लोगों के मस्तिष्क पर नगण्य जितना ही होता है। इसी प्रकार वाणी की बकवास का भी कोई अन्त नहीं। घर-परिवारों में भली-बुरी कहनी-सुननी होती रहती है। उपदेशक, व्याख्याता लम्बी-चौड़ी डींगें हाँकते और स्टेजों पर उछलते-फुदकते देखे जाते है। इन दोनों क्रियाकलापों को यों पुरातन काल के स्वाध्याय-सत्संग की अनुकृति कहा जा सकता है। इतने पर भी दोनों के बीच मौलिक अन्तर यह है कि जो प्रभाव स्वाध्याय-सत्संग का होता था, वह इन दिनों वाले किन्हीं समारोहों, प्रकाशनों का दीख नहीं पड़ता। लोग इस कान से सुनते और उस कान से निकाल देते है। इधर पढ़ते जाते हैं उधर भूलते जाते है। विचार योग्य प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है? प्राचीन काल में तो प्रेस भी नहीं थे, न कागज ही। पढ़े-लिखे लोग भी कम होंगे। फिर भी जो लिखा होता था वह शास्त्र परम्परा में गिना जाता था। उसे लोग मनोयोगपूर्वक पढ़ते थे, हृदयंगम करते थे और प्रतिपादनों को जीवन में उतारते थे। इसी प्रकार सत्संगों में श्रद्धालु लोग उपस्थित होते थे। वक्ताओं का स्तर सामान्य जनों की तुलना में कहीं अधिक ऊँचा होता था। वे अपने ज्ञान, अनुभव और चरित्र का निष्कर्ष नवनीत की तरह निकला कर श्रोताओं की आत्मिक भूख बुझाते और सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग पर चलने का मार्ग सुझाते थे। यही कारण था कि स्वाध्याय का महत्व-महात्म्य इतना अधिक माना जाता था कि उसकी तुलना पारस मणि के साथ की जाती थी। परन्तु ऐसा ही प्रभाव प्रत्यक्ष देखने को भी मिलता था।

अब उन दोनों के प्राण निकल गये प्रतीत होते है और मालूम पड़ता है कि खोखले, निष्प्राण, ढकोसले मात्र जहाँ-तहाँ पड़े है। उनके भीतर दुर्गंध और बाहर चमक-दमक है। देखने-सुनने में वे कितने ही मनोरम क्यों न लगते हो? पर वस्तुतः उनका अन्तराल एक प्रकार से निर्जीव हुआ पड़ा है, अन्यथा इतने पढ़ने-सुनने वालों के जीवन में कोई उच्चस्तरीय परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ होता। स्वाध्याय-सत्संग ने अपना चमत्कार दिखाया होता।

एक वेश्या अपने जीवन में हजार भंडुए बना लेती है। एक नशेबाज, जुआरी, लफंगा अपनी बिरादरी के अनगिनत लोग उत्पन्न कर लेता है, क्योंकि उसका कथन और चरित्र, अभिव्यक्ति और प्रवृत्ति एक जैसी है। मन और वचन के चिन्तन और चरित्र के एक रस होने से ही शक्ति उत्पन्न होती है और वह दूसरों को प्रभावित करती है। यदि ऐसा न होता, तो दीखने वाले दृश्य और सुनने वाले शब्द निर्जीव मशीनें भी उत्पन्न करती रहती है। वे अपना उच्चस्तरीय प्रभाव उत्पन्न कर लेती। मनुष्य को उसके लिए श्रम लगाना भी न पड़ता। छपे कागजों और मधुर वचनों की साज-सज्जा में आज बाजार पटा पड़ा है, पर उनका कोई रचनात्मक प्रभाव कहीं देखने को नहीं मिलता। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि व्यक्तियों को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने वाले यह दोनों ही सशक्त उपकरण आज भोंथरे हो गये है। उनका नगण्य प्रभाव देखते हुए निराशा ही होती है।

दोष इसमें उत्पादकों का है, ग्राहकों का नहीं। श्रोता और पाठक अभी भी प्रभावित होते है और लक्ष्य को पूरी तरह सम्पन्न करते हैं। बुद्ध, गाँधी, ईसा आदि की वाणी में प्राण था। उनकी कलम में ओज था। जो कुछ उनके द्वारा प्रतिपादित किया गया, प्रभावशाली सिद्ध हुआ। पिछले दिनों की कार्ल मार्क्स, रूसो आदि की कलमों ने राजनैतिक क्रान्तियाँ की है। हैरिएट स्टोन की लेखनी ने दास प्रथा का न केवल अमेरिका से, वरन संसार से ही समाप्त कर दिया। वाणी के धनी नेपोलियन की गरज से धरती दहलती थी। मुर्दे जी उठते थे। सन्त भक्तों में भी कबीर, रामदास विवेकानन्द, रामतीर्थ जैसे अनेकानेक ऐसे हुए है, जिनके संपर्क से अनेकों का कायाकल्प हुआ, अगणित लोग उन्हीं की प्रेरणाओं से तन्मय हो गये। यह तो इसी युग का घटनाक्रम है।

इसी पंक्ति में एक नाम अखण्ड-ज्योति का भी जुड़ता है। उनकी ऊर्जा ने अनेकों में प्राण-संचार किया है। 24 लाख की गणना सदस्यों-पाठकों की है। फिर उनका संपर्क-सान्निध्य-परामर्श भी तो काम करता रहा है और एक से अनेक होने की पद्धति का अनुसरण करते हुए यह परिकर करोड़ों की संख्या को पार कर चुका है। यह ऐसे हैं, जो निजी जीवन की दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त और सत्प्रवृत्तियों के प्रयोक्ता बनकर संपर्क क्षेत्र को प्रभावित कर रहे है।

इससे भी एक कदम आगे बढ़ा हुआ उन लोगों का है, जिनने अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं का परित्याग कर दिया है और जो अहर्निश लोकमानस के परिष्कार की सत्प्रवृत्ति संवर्धन की नवसृजन साधना में लगे हुए है। इनने प्राचीन काल की साधु संस्था, ब्राह्मण वर्ग, और वानप्रस्थ परम्परा को युग के अनुरूप धारण किया है, जो अपने-अपने निकटवर्ती कार्यक्षेत्रों में युगशिल्पी की भूमिका निभा रहे है। घर-परिवार की सामान्य देख-भाल करते हुए अधिकाँश समय सार्वजनिक जीवन में रचनात्मक कार्यक्रमों में लगा रहे है। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त है। इन्हें पुरातन काल के ब्राह्मण वर्ग में गिना जा सकता है, भले ही वे जन्म से किसी भी जाति में उत्पन्न क्यों न हुए हो। इनकी संख्या इन दिनों एक लाख से किसी भी प्रकार कम नहीं। इन्हीं के बलबूते वे सत्प्रवृत्तियाँ द्रुतगति से अग्रगामी हो रही है। जिन्हें मिशन के बहुमुखी प्रयासों में सम्मिलित किया जाता है कि दुर्दिनों का अन्त हुआ और सद्भावना की श्रेष्ठ श्रृंखला का अरुणोदय हो चला।

अखण्ड-ज्योति के विगत 52 वर्ष के उत्पादन में बहुत बड़ी संख्या उन चन्दन वृक्षों की है। जिनकी सुगन्ध और शोभा से सारा वातावरण महक उठा है। उन्हें शान्ति कुंज, हरिद्वार में गायत्री तपोभूमि, मथुरा में तथा सहस्त्रों शक्ति केन्द्रों में काम करते देखा जा सकता है। इन सबके पारस्परिक मिलन तो यदा-कदा होते है। सभी अपने-अपने निर्धारित कार्यक्रमों में प्राणपण से लगे रहते है। कहीं इनका अधिक झुरमुट देखना हो, तो उन्हें मथुरा और हरिद्वार में जीवनदानी की तरह काम करते हुए देख जा सकता है। इन्हें प्राचीनकाल के सन्तों, मनीषियों, धर्मसेवियों में गिना जा सकता है। इनकी संख्या भी हजारों को पार कर गई है।

अकेले शान्ति-कुंज में ब्रह्मवर्चस में कार्यरत व्रतधारियों को देखा जाय, उनकी योग्यता और त्याग भावना का विवरण जाना जाय, तो प्रतीत होगा कि इतनी बड़ी संख्या में इतने ऊँचे स्तर केनर-रन्त कदाचित ही कहीं एकत्रित दीख पड़ें।

शान्ति-कुंज में प्रायः 250 कार्यकर्ता काम करते है। इनमें से अधिकाँश गृहस्थ है; पर ब्रह्मचारी की तरह जीवन-यापन करते है। पुरुषों की तरह उनकी स्त्रियाँ भी निरन्तर मिशन के कार्यों में कंधे-से-कंधा मिलाकर जुटी रहती है। न इन्हें कभी अवकाश लेने की आवश्यकता पड़ती है, और न छोड़े हुए सम्बन्धियों की याद सताती है। उनके पास जाने या उन्हें बुलाने के लिए सामान्यजनों की तरह मन नहीं भटकता।

उनकी उत्कट आदर्शवादिता ही खींच कर यहाँ लाई है। किसी प्रलोभन के कारण यहाँ नहीं आये और न किन्हीं एषणाओं की पूर्ति के उद्देश्य से इस ओर कदम बढ़ाने के लिए उत्सुक हुए है। स्वयं को आदर्श लोकसेवी के रूप में प्रस्तुत करने और अपनी सेवा-साधना से जन-चेतना उभारने सत्प्रवृत्तियों के उद्यान लगाने, दुष्प्रवृत्तियों के विष वृक्षों को उखाड़ने की श्रद्धा ही इन्हें अहर्निश अपने-अपने हिस्से का काम निपटाने में लगाये रहती है। यह सभी अपने-अपने घरों की सुसम्पन्नता छोड़कर आये है। इनमें से कितने ही उच्च पदाधिकारी और सफल व्यवसायी रहे है। शिक्षा की दृष्टि से उन्हें जनसाधारण की तुलना में कहीं ऊँचा ठहराया जा सकता है। प्रस्तुत जीवनदानियों में प्रायः आधे से ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट स्तर के है। पी.एच.डी., एम.डी., एम.एस, .बी.ए.एम.एस स्तर के डॉक्टर और आयुर्वेदाचार्य जैसे अन्यान्य सरकारी डिग्रियों से सुसम्पन्न भी। इने सोच-समझ कर अपनी नौकरियों से इस्तीफा दिया और अपरिग्रही वानप्रस्थों की तरह युग साधना के लिए समर्पित हुए है। इनमें से कई ऐसे है, जिनने अपनी निजी सम्पत्ति बेचकर बैंक में जमा कर दी है और उसी के सहारे अपना निर्वाह करते है। उनके लिए मिशन को एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता। कई पेंशनर है और कुछ अपने परिवार से अपना गुजारा मँगाकर काम चलाते रहते है अथवा नाम मात्र का निर्वाह लेकर ब्राह्मणोचित जीवन जीते है। यह गरीबी स्वयं की ओढ़ी हुई है व यही इनकी शान है।

पूर्णरूपेण समर्पित और समयदानी प्रज्ञा-पुत्रों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है। उसे देखते हुए लगता है कि अब तक किये जा रहे कार्यक्रमों का विस्तार किये बिना और काई चारा नहीं। सम्भ्रान्त और प्रामाणिक, सुशिक्षित सुयोग्य लोकसेवी किसी समाज की प्रगतिशीलता के लिए मेरुदण्ड के वटकों का काम करते है। उनकी संख्या वृद्धि में उज्ज्वल भविष्य की झाँकी की जा सकती है और आशा की जा सकती है कि लोकमानस का परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन का क्रिया-कलाप देशव्यापी विश्वव्यापी बनकर रहेगा और उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचते हुए नवयुग के अवतरण की भूमिका सम्पन्न करेगा।

आश्चर्य होता है कि इस घोर संकीर्ण स्वार्थपरता के युग में इतने अधिक और इतने उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं का उत्पादन-अभिवर्धन हो किस कारण रहा है? जबकि सभी लोक सेवी संस्थाओं में उच्चस्तरीय निस्पृह कार्यकर्ताओं की कमी अनुभव की जाती है और कार्य रुकता है।

इस प्रश्न का उत्तर एक ही है यह सब मात्र पत्रिका के लेखों से नहीं हुआ। वरन उनके सूत्र-संचालकों के साथ घनिष्टतम संपर्क स्थापित होने के उपरान्त दीपक से, दीपक जलने जैसी प्रक्रिया सम्पन्न हुई है। अखण्ड-ज्योति के लेखों से परमार्थ परायणता की सेवा-साधना की प्रेरणा अवश्य मिली है पर इतने भर से यह नहीं हो सकता कि कोई अपनी सुख-सुविधाओं को लात मारकर संतमय तपस्वी जीवन जीने के लिए आतुर हो उठे और उस प्रकार का व्रत लेकर रहे, .... उच्च वर्ग के सुशिक्षित नहीं। उन्हें गहराई तक वास्तविकता की जाँच-परख भी करनी पड़ती है। यही हुआ भी है। अखण्ड ज्योति के पृष्ठ लिखने वाले ऋषि युग्म-माताजी के व्यक्तित्व को चरित्र को आदि से अन्त तक खुली पुस्तक की तरह पढ़ने के उपरान्त ही यह सम्भव हुआ कि अग्रिम पंक्ति पर चलने वाले के पीछे प्रयाण करने का साहस जुट सके। अखण्ड-ज्योति की पंक्तियों में जो प्राणवान ज्योति ज्वाला रहती है। वस्तुतः वह प्रस्तोताओं की प्राणाग्नि ही है। जो चुम्बक का काम करती है। हर कसौटी पर खरी सिद्ध होने के उपरान्त प्राण-ऊर्जा का आदान-प्रदान करती है। यही है एकमात्र वह रहस्य, जिसने न केवल साधु स्तर के, ब्राह्मण स्तर के लोकसेवियों की एक विशालकाय सेना खड़ी कर दी, वरन युग-परिवर्तन के क्रिया-कलापों में आश्चर्यजनक गतिशीलता भी उत्पन्न कर दी।

शान्ति-कुंज आने वाले, इस परिकर के कण-कण में भरी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं प्राण ऊर्जा से प्रभावित होते है और अधिकाधिक निकट आते चले जाते है।

मिशन का प्रत्येक कार्यकर्ता विनम्र कर्मठ एवं मितव्ययी देखा जा सकता है। आश्रम में प्रायः 200 शौचालय और इतने ही स्नानघर है। लम्बाई की दृष्टि से दो मील जितनी नालियाँ। इन सभी की सफाई आश्रम के कार्यकर्ता ही करते है। कोई सफाई कर्मचारी यहाँ नौकर नहीं रखा जाता। सभी का निर्वाह एक स्तर का है। एम.एस., एम.डी डॉक्टरों से लेकर सामान्य स्वयंसेवकों का निर्वाह स्तर एक समान है। साथ ही समान सम्मान भी। यही कारण है कि जो यहाँ आते है, देखते है वे इस परिवार से सदा के लिए सम्बद्ध हो जाते है। सतयुग की- साम्यवाद की चर्चा लोगों ने सुनी है; पर उनका प्रत्यक्ष स्वरूप देखा नहीं। किन्तु शांतिकुंज में आकर उसे व्यवहार में उतरते देख जाते है। यही है वह प्राण-प्रेरणा जो संचालकों के व्यक्तित्व से लेकर आश्रम की रीति-नीति तक तथा अखण्ड ज्योति के लेखों में प्रादुर्भूत होती देखी जा सकती है।

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